वाणी प्रकाशन के स्त्री-विमर्श
दूसरी कड़ी
औपनिवेशिक भारत ‘घर के दायरे’
अनुपमा रॉय
अनुवाद
कमल नयन चौबे
इसअध्याय में औपनिवेशिक भारत में घर के दायरे की अवधारणा की चर्चा की गयी है। उन्नीसवीं सदी के आखि़र और बीसवीं सदी के प्रारम्भ में इसके कुछ ख़ास आयाम सामने आए। इस अध्याय में इस प्रक्रिया से सम्बन्धित विविध जटिल तरीकों और पहलुओं का परीक्षण किया गया है। इसमें उन अध्ययनों की प्रस्तावना को आगे बढ़ाया गया है जो यह दिखाते हैं कि ‘घर’ की अवधारणा ने औपनिवेशिक राज्य और राष्ट्रवादी अभिजन के बीच विरोध की प्रक्रिया में एक आकार ग्रहण किया। ‘घर’ एक ऐसे स्थान के रूप में सामने आया, जहाँ वैध प्राधिकार (अथॉरिटी) की दावेदारी का संघर्ष होता है। इस अध्याय में इस दलील को स्वीकार किया गया है कि औपनिवेशिक दौर में घर के दायरे के निर्माण के साथ राष्ट्रीय परम्परा की पुनर्रचना हुई। साथ ही, इससे आगे बढ़ते हुए यह अध्याय प्रस्तावित करता है कि घर और सार्वजनिक स्थान के बीच एक तरह का संवादीय और अन्तःक्रियात्मक सम्बन्ध था। इस सम्बन्ध की बुनियाद उपनिवेशकों और राष्ट्रवादी अभिजनों के बीच संघर्ष में निहित थी, लेकिन इसमें घर के दायरे का कोई सुनिश्चित अर्थ सामने नहीं आया। यह कहना भी सही नहीं होगा कि यह पूरी तरह उपनिवेशक और राष्ट्रवादी अभिजनों के विरोध की रूपरेखा में सामने आया। इसके बजाय, इन संघर्षों ने उपनिवेशकों और उपनिवेशितों के बीच जटिल टकराव, प्रतिरोध, संवाद, और समझौते के विविधतापूर्ण क्षेत्र और उनमें शामिल गतिशीलता को अभिव्यक्त किया। साथ ही, इसने कई ऐसे तरीकेंप्रस्तुत किये जिनसे घर के दायरे की सीमा-रेखा काफ़ी हद तक लचीली और भेद्य बन गयी।
इस अध्याय में विशेष रूप से उपदेशात्मक पुस्तिकाओं/आचरण सम्बन्धी किताबों और परचों का अध्ययन किया गया है। बेशक घर के दायरे की अभिव्यक्ति एक विशिष्ट सामाजिक-ऐतिहासिक सन्दर्भ में हुई। यह एक अहम सवाल है कि ऐसी अभिव्यक्तियों के विचारधारात्मक, स्थानिक और सामयिक निहितार्थ क्या थे? यह भी ग़ौरतलब है कि इस दौर में शासन-तन्त्र एक ख़ास तरीक़ेसेविकसित हो रहा था। इसलिए इस प्रश्न पर भी ग़ौर करने की शरूरत है कि इन अभिव्यक्तियों का महिलाओं की नागरिकता पर क्या प्रभाव पड़ा? उपेदशात्मक/निर्देशात्मक लेखन पर ध्यान देने से इस क्षेत्र के मौज़ूदाअनुसंधान में एक नया आयाम जुड़ता है। उल्लेखनीय है कि इस अनुसंधान में बड़े पैमाने पर पुरुषों और महिलाओं द्वारा जर्नलों में लिखे गये राष्ट्रवादी लेखन और कहानियों आदि पर ध्यान दिया गया है। लेकिन इस अध्याय में जिन किताबों या पुस्तिकाओं पर ग़ौर किया गया है, उनकी विशेषता यह है कि वे कहानी या निबन्ध नहीं हैं। अर्थात् इनमें भूमिका या सन्दर्भ के साथ तर्क प्रस्तुत नहीं किये गये हैं। इसके बजाय, इन किताबों में बहुत ही स्पष्ट और निर्देशात्मक रूप से विचार प्रस्तुत किये गये हैं। ख़ास बात यह है कि इनमें से कुछ किताबें कन्या विद्यालयों के पाठ्यक्रम का भाग थीं, और इसलिए इनका आधिकारिक चरित्र था। औपनिवेशिक शासन के आखि़री दौर में इस तरह के ग्रन्थों की संख्या में काफ़ीबढ़ोतरी हुई। इस दौर में जेण्डर भूमिकाओं में लगातार बदलाव हो रहा था। ये ग्रन्थ इनसे सम्बन्धित विवादों और बेचैनियों को अभिव्यक्ति कर रहे थे। इस लिहाज़से यह कहा जा सकता है कि इनमें विरोध और संघर्ष का क्षेत्र भी अभिव्यक्त होता है।
पश्चिमी आधुनिकता में घर का दायरा: महिलाओं की
नागरिकता पर इसका प्रभाव
आधुनिकता के विचारधारात्मक, भौतिक और सामाजिक संघटनों द्वारा नागरिकता की आधुनिक अवधारणाओं का विकास हुआ। इन अवधारणाओं को प्रबोधनकालीन चिन्तन, सत्रहवीं और अठारहवीं सदियों की बूर्ज्वा क्रान्तियों तथा पूँजीवाद के विस्तार और विकास के दौरान सामने आए आधुनिकीकरण के मॉडलों द्वारा बढ़ावा दिया गया। इन विचारधारात्मक सामाजिक और भौतिक संघटनों ने विभिन्न वर्गों की महिलाओं को अलग-अलग और यहाँ तक कि विपरीत तरीक़ों से भी प्रभावित किया। मुख्य रूप से यह प्रभाव ‘पारिवारिकता’ (डॉमेस्टिसिटी) के मुहावरे के माध्यम से सामने आया। यह कहा जा सकता है कि पारिवारिकता घरेलू क्षेत्र की प्रकृति और गतिविधियों की विशिष्टता से सम्बन्धित है। इसलिए यह माना जा सकता है कि घर के दायरे की अवधारणा में कुछ ‘स्थानिक’, ‘सामयिक’ और ‘विचारधारात्मक’ अर्थ शामिल होते हैं। इससे यह बात भी सामने आती है कि घर के दायरे और पारिवारिकता से जुड़ा अर्थ स्थायी नहीं होता है। यह सामयिक, स्थानिक और विचारधारात्मक आयामों से प्रभावित होता है।
घर के दायरे का विचार ऐसे क्षेत्र के बारे में बताता है, जो सार्वजनिक (पुरुष) दायरे से अलग होता है। यह घर के भीतर स्त्रियों की गतिविधियों से सम्बद्धहोता है। अमूमन इसे सार्वजनिक दायरे से कमतर माना जाता था। इसका उभार सामंती,खेतिहर, कुलीनतन्त्रीय समाजों से औद्योगिक बूर्ज्वा-पूँजीवादी समाजों की ओर ऐतिहासिक बदलाव के सन्दर्भ में हुआ था। सामंती और घरेलू अर्थव्यवस्थाओं में उत्पादन प्रक्रिया और श्रम एक ख़ास तरीकें से संगठित था। लेकिन पूँजीवाद के विकास के साथ इसमें बदलाव आया। इसने बाज़ार और निजी घर के लिए होने वाले उत्पादनों में एक तरह की पृथकतापैदा की। इस प्रकार, इसने सार्वजनिक तथा घरेलू दायरों के बीच विभाजन पैदा दिया। यह विभाजन मुख्य रूप से इस तथ्य से तय हुआ कि घर की आर्थिक गतिविधियाँ सार्वजनिक/नागरिक समाज की गतिविधियों से अलग होती हैं। यह माना गया कि सार्वजनिक/नागरिक समाज में उत्पादन मुनाफ़ाकमाने के लिए होता है तथा उत्पादन के सम्बन्ध में पारिवारिक और व्यक्तिगत जुड़ाव बेमतलब होते हैं। इसके अलावा, दोनों दायरों के बीच जेण्डर के आधार पर भी अन्तर किया गया। घरेलू क्षेत्र को स्त्री और सार्वजनिक क्षेत्र को पुरुष दायरे के रूप में प्रस्तुत किया गया। प्रबोधनकालीन चिन्तन की कुछ धाराओं की मदद से इस पृथकताको सही साबित किया गया। इस पूरे विमर्श में घर के काम को कोई ख़ास तव्वज़ोनहीं दी गयी। यह माना गया जैविक रूप से पुरुष और महिला की भूमिका तय होती है और इसी ‘प्राकृतिक’ व्यवस्था के अनुरूप सामाजिक स्तर पर उनका अलग-अलग काम होता है। रूसो ने यह दावा किया कि प्रकृति ने महिलाओं को बुनियादी रूप से पुरुषों से अलग बनाया है और वे शारीरिक, नैतिक और बौद्धिक स्तर पर मुख्य रूप से प्रजनन कार्य के लिए ही उपयुक्त हैं। इसलिए इस बुनियादी तथ्य के आधार पर ही उनकी शिक्षा और समाज में उनका स्थान तय किया जाना चाहिए। उनके स्वाभाविक नारी-सुलभ सहज प्रवृत्ति के कारण उन्हें ‘सभ्य घरेलू जीवन’ के लिए तैयार करना ही समाज के लिए फ़ायदेमंद है। रूसो ने शिक्षा सम्बन्धी अपनी पुस्तिका एमाईल में महिला शरीर के बारे में प्रबोधनकालीन विचार प्रस्तुत किये हैं। उन्होंने इन विचारों को लैंगिक विभेद के एक नये वैज्ञानिक दृष्टिकोण की संज्ञा दी है। उनके मुताबिक़यह व्यवस्था सामाजिक जीवन को संगठित करने के लिए नैतिक और सामाजिक रूप से अनिवार्य है। उन्होंने यह घोषणा भी की कि ‘पुरुष और स्त्री एक-दूसरे के लिए बने हैं’। लेकिन इसके साथ ही वे चेतावनी भी देते हैं कि ‘उनकी आपसी निर्भरता का मतलब बराबरी क़तई नहीं है’:
..हम उनके बग़ैर, उनसे ज़्यादा बेहतर तरीकें से अपना वजूद क़ायम रख सकते हैं...इसलिए पुरुषों को ध्यान में रखकर ही महिलाओं को सारी शिक्षा दी जानी चाहिए। पुरुष को खुश रखना, उनकी ज़रूरतें पूरी करना, उनसे प्यार और इज्ज़त पाना, बच्चों के रूप में उनका पालन-पोषण करना, बड़े होने पर उनकी देखभाल करना, उनकी ग़लतियों को सुधारना और उन्हें सांत्वना देना, उनके जीवन को सुखी और आनन्ददायक बनाना-ये सभी हर उम्र कीस्त्रियों के कर्त्तव्य हैं और बचपन से उन्हें इसी की शिक्षा दी जानी चाहिए (रूबिन्सटीन 1986, 202)।
इस तरह, बूर्ज्वा संस्कृति के उभार ने लैंगिक भूमिकाओं को नये सिरे से परिभाषित किया। इसने एक ऐसी घरेलू महिला का विचार प्रस्तुत किया जिसे परिवार की देखभाल करने की ज़िम्मेदारी दी जा सकती थी। सामाजिक भूमिकाओं की इस नयी परिभाषा में घर या परिवार का दायरा एक ख़ास प्रतीक बन गया। यह कहा गया कि इसमें स्त्रिायाँ निस्वार्थ प्यार और सेवा जैसों मूल्यों की हिफ़ाज़त करती हैं जिन्हें बाज़ार की भौतिकवादी और ताक़तवर दुनिया में कोई जगह नहीं दी गयी है। ‘आधुनिक महिला’ की आदर्श छवि के तौर पर ‘गृहिणी’ की छवि का प्रचार-प्रसार किया गया। इससे ‘स्त्रियों के गृहिणीकरण’ की प्रक्रिया भी सामने आयी (मीज़1998, 40)। मारिया मीज़का मानना है कि गृहिणीकरण की प्रक्रिया महिलाओं के विरुद्ध हिंसा, ‘गोरे पुरुषों के प्रभुत्ता’ तथा औरत, प्रकृति और विदेशी लोगों के उपनिवेशीकरण के निरन्तर इतिहास का भाग थी।1उनके अनुसार, यह लाखों महिलाओं के साथ क्रूर हिंसा का इतिहास है जिसमें उनके साथ ‘विच हंट’ (डायन घोषित करना) जैसा जघन्य अपराध भी किया गया। आमतौर पर यह माना जाता है कि आधुनिक इतिहास में महिलाओं का सबसे ज़्यादा जनसंहार अधंकार युग (डार्क ऐज) या मध्य युग में या अंध-विश्वासों के कारण हुआ था। लेकिन असलियत यह है कि औरतों का सबसे ज़्यादा जनसंहार आधुनिक अर्थव्यवस्था और आधुनिक राज्य के उद्भव के समय हुआ था।2नारीवादी अनुसंधान ने यह दिखाया है कि महिलाओं, ख़ासतौर पर चिकित्सकों और दाईयों पर हुए वहशियाना हमले और आधुनिक चिकित्साशास्त्र के उदय के बीच सीधा जुड़ाव है। इसका नतीजा यह हुआ कि आधुनिक चिकित्साशास्त्र पर आगे चलकर पुरुषों का एकाधिपत्य हो गया। इस अनुसंधान ने विशेष रूप से यह भी प्रदर्शित किया है कि सिर्फ़आधुनिक चिकित्साशास्त्र ही नहीं, बल्कि आधुनिक भौतिकी और यांत्रिकी (मैकेनिक्स) के विकास की कहानी भी महिलाओं के खि़लाफ़क्रूरता की दास्तान से जुड़ी हुई है। इसी तरह, प्रकृति के साथ नये वैज्ञानिक सम्बन्ध के विकास के दौरान भी ‘बुरी औरतों’ को जलाया गया।3इस आग में सिर्फ़ औरतों का शरीर ही नहीं जला, बल्कि पुराना अन्तरंग सम्बन्ध तथा स्वास्थ्य, बीमारी और प्रकृति की उपचारी शक्तियों के बारे में उनका ज्ञान भी जलकर पूरी तरह नष्ट हो गया। इससे सम्बन्धित विश्लेषण में डायन घोषित महिलाओं के जनसंहार पर तो ध्यान दिया गया किन्तु उनकी सम्पत्ति पर अन्य क़ब्ज़ा करने के पहलू की उपेक्षा की गयी। इस तरह से क़ब्ज़ा की गयी सम्पत्ति का उपयोग युद्धों और आधुनिक परियोजनाओं को वित्तीय मदद देने के लिए किया गया।4इस प्रकार ‘बुरी महिलाओं’ के साथ क्रूर बरताव करके उनको अधीनबनाया गया और इसके बाद अठारहवीं सदी में पारिवारिक, दब्बू, कमज़ोरऔर निर्भर ‘अच्छी महिला’ का उदय हुआ। उभरते बूर्ज्वा वर्ग के घरों की गृहणियों को ऐसी ही आदर्श ‘अच्छी महिला’ के रूप में पेश किया गया। शल्द ही यह आदर्श महिला प्रगति का प्रतीक और एक ऐसा मॉडल बन गयी जिसका अन्य वर्गों की औरतें भी अनुसरण करने लगीं।5इन ‘अच्छी’ महिलाओं की मौज़ूदगी के आधार पर किसी सभ्यता के स्तर को मापा जाने लगा।6
बहुत सारे नारीवादी लेखन में पुरुषों और महिलाओं द्वारा नागरिकता हासिल करने के इतिहास की व्याख्या करने के लिए ‘घर के दायरे की थीसिस’ (डॉमेस्टिक थीसिस) का सहारा लिया गया है। इसमें यह दावा किया जाता है कि जेण्डर के आधार पर स्थान (या स्पेस) को संगठित किया गया और इसी आधार पर सामाजिक भूमिकाएँ भी तय हुईं। इस कारण सामाजिक भूमिकाओं, संस्थाओं और नागरिकता से महिलाओं का बहिष्करण हुआ। इस थीसिस के प्रतिपादक यह मानते हैं कि पश्चिमी राजनीतिक और सामाजिक चिन्तन तथा व्यवहार की यह विशेषता रही है कि इसमें सार्वजनिक और निजी के रूप में अलग-अलग तथा विरोधी दायरों का निर्माण किया गया। पिफर उनके साथ जेण्डर के आधार पर क्रमशः पुरुष-सम्बन्धी (मैस्कुलीन) और नारी-सम्बन्धी (फेमिनिन) गुण जोड़ दिये गये।7निजी और सार्वजनिक के ‘पृथकऔर विरोधी स्थानों’ के आस-पास जेण्डर-आधारित सामाजिक सम्बन्धों का संगठन होता है जो ‘घेरलू महिला’ की निर्मिति में विशेष योगदान देता है। यह महिलाओं को निजी स्थान तक सीमित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। इसके द्वारा सार्वभौमिक नागरिकता की रूपरेखा बनाने वाली समानता की स्थिति पैदा करना नामुमकिन है। असल में, यह महिलाओं की नागरिकता के लिए एक पृथकसमय-तालिका तैयार करता है। यह कहा जा सकता है कि पुरुषों को अठारहवीं सदी में नागरिक अधिकार मिले और उनके लिए नागरिकता का आगाज़हो गया। किन्तु इसी सदी में महिलाओं की पुरुषों पर निर्भरता बढ़ती चली गयी8
बेशक आधुनिक समय में सामाजिक भूमिकाओं और स्थानों को प्रभावित करने में घर के दायरे की अवधारणा का महत्त्व है। लेकिन समाज वैज्ञानिकों में इस थीसिस की प्रामाणिकता और इसके विश्लेषण की प्रक्रिया के बारे में एक हद तक संदेह रहा है। बहुत से समाज वैज्ञानिक यह मानते हैं कि इस बारे में पुख्ता प्रमाण मौज़ूद नहीं कि पारिवारिकता का प्रभुत्व रहा है और महिलाओं ने इसे स्वीकार किया है। उनकी दलील है कि घर के दायरे की विचारधारा को औरतों की भूमिका की आदर्श संहिता के रूप में प्रस्तुत किया गया। किन्तु यह न तो सभी महिलाओं के जीवन्त अनुभवों को अभिव्यक्त करती थी और न ही उनसे प्रेरित थी। दरअसल, यह विचारधारा औरतों की एक बहुत ही छोटी श्रेणीअर्थात् विवाहित उच्च और उच्च मध्य वर्ग की महिलाओं से ही सम्बन्धित थी।9उनका यह भी मानना है कि थीसिस प्रत्यक्ष विरोधाभासों पर निर्भर है, इसलिए इसकी माध्यम से गहन विश्लेषण की उम्मीद नहीं की जा सकती है।10इन समाज-वैज्ञानिकों का मानना है कि ये प्रत्यक्ष विरोधाभास मनुष्यों के अनुभवों की बहुत ही सरल तरीकें से व्याख्या करते हैं, जबकि ये अनुभव काफ़ी जटिल होते हैं। विशेष रूप से जोन वॉलेच स्कॉट और डेनिस राइले सहित बहुत सी नारीवादियों ने यह स्वीकार किया है कि विचारधारात्मक वातावरण ने महिलाओं की सार्वजनिक भूमिका को सीमित किया। लेकिन इनका यह भी मानना है कि इनकी पेचीदा और बहुआयामी भूमिका थी, जिसे आवश्यक रूप से सामाजिक-राजनीतिक सम्बन्धों के द्विभाजित भागों तक सीमित नहीं किया जा सकता है।11
यह अध्याय औपनिवेशिक सन्दर्भ में ‘घर के दायरे’ और ‘पारिवारिकता’ की जाँच-पड़ताल करता है। इसमें यह विश्लेषण भी किया गया है कि महिलाओं की नागरिकता के सन्दर्भ में इनके किस तरह के अर्थ सामने आए। यह इस बात को रेखांकित करता है कि घर का दायरा बहुआयामीय सामाजिक-आर्थिक और राजनीतिक ताक़तों के टकराव, प्रतिरोध और संवाद के क्षेत्र के बारे में बताता है। इसमें उन दृष्टिकोणों को स्वीकार नहीं किया गया है जो इसे किसी अन्य श्रेणी के विरोध में देखते हैं। इसके बजाय, यह अध्याय प्रस्तावित करता है कि विभिन्नताओं की विविधता के इंटरफ़ेस (अन्तरापृष्ठ) में घर के दायरे का उभार होता है और यह आवश्यक नहीं है कि इसका चरित्र द्विभाजन या द्विभाग का हो। यह अर्थों की गतिशीलता प्रदर्शित करता है और पहचानों की बहुलता को एकत्रित करने का काम करता है। स्पष्ट तौर पर, ‘घर के दायरे’ और ‘पारिवारिकता’ की अवधारणा अर्थों की बहुलता के बारे में बताती है और किसी भी तरह की अनम्यता या कठोरता को नकारती है। यह माना जा सकता है कि घर के दायरे और पारिवारिकता के ये विविध और लगातार बदलने वाले अर्थ उपनिवेश-विरोधी संघर्ष के व्यापक सन्दर्भों से अपना महत्त्व हासिल करते हैं। साथ ही, ये विरोधों की रूपरेखाओं से परिभाषित होने वाले एक स्थान और एक ऐसी गतिविधि का रूप धारण करते हैं, जो आवश्यक तौर पर स्थान की अवधारणा से बँधी नहीं होती है।
उपरोक्त प्रस्तावों के सन्दर्भ में हम सामाजिक संरचना ;पुनर्संरचनाद्ध के स्थान के रूप में घर के दायरे के अर्थ (अर्थों) तथा महिलाओं के जीवन्त अनुभवों के लिए इसके निहितार्थों का परीक्षण करेंगे। यह परीक्षण औपनिवेशिक भारत के आखि़री दौर में पारिवारिकता के उभार के तरीक़ों की जाँच-पड़ताल के लिए एक पृष्ठभूमि का काम करेगा। इसका उभार उपनिवेशकों और राष्ट्रवादियों के बीच वैध प्राधिकार की दावेदारी के स्थान के रूप में ‘घर के दायरे’ के निर्धारण औरपरिसीमन के बारे में विवाद के इंटरफ़ेस (अन्तरापृष्ठ) में हुआ था। इसलिए यह प्रस्तावित किया जा सकता है कि घर के दायरे का अर्थ और इसकी रूपरेखाएँ सिर्फ़ विरोध और विवाद के सन्दर्भ में ही तैयार नहीं हुईं, बल्कि यह ऐसे स्थल के रूप में सामने आयीं, जहाँ पुराने अर्थों पर पिफर से बल दिया गया, और नये अर्थ उत्पन्न किये गये। इस पहलू को ज़्यादा ठोस रूप से अभिव्यक्त करने के लिए घर के दायरे के औपनिवेशिक और राष्ट्रवादी सूत्रीकरणों की पड़ताल की जाएगी और यह समझने का प्रयास किया जाएगा कि किस तरह से एक विशिष्ट ऐतिहासिक सन्दर्भ में ‘घर के दायरे’ को अर्थों के एक जटिल नेटवर्क के भीतर अभिव्यक्त किया गया। इस तरह की जाँच-पड़ताल उभरती शासन-व्यवस्था में नागरिक के रूप में स्त्रिायों की सदस्यता को समझने के लिए एक रूपरेखा उपलब्ध कराने का काम करेगी।
घर के दायरे का आदर्श और औपनिवेशिक सन्दर्भ
औपनिवेशिक सन्दर्भ के अन्तर्गत ‘घर के दायरे’ की अवधारणा और ‘पारिवारिकता’ के मुहावरे के साथ महत्त्वपूर्ण स्थानिक, सामयिक और विचारधारात्मक अर्थ जुड़ गये। प्रभुत्व और शोषण की औपनिवेशिक नीति और राष्ट्रीय आत्म-निर्णयके विविध संघर्षों के बीच ‘घर के दायरे’ ने विविध अर्थ धारण किये। ये अर्थ कई बार एक-दूसरे से असंगत और परस्पर-विरोधी भी होते थे। इनका उभार निम्नलिखित रूप में हुआ, (i), उपनिवेशकों और राष्ट्रवादी अभिजन के बीच विरोध और विवाद ;प्रभुत्व और प्रतिरोधद्ध के क्षेत्र के रूप में, (ii)एक विशिष्ट सम्प्रभु क्षेत्र के रूप में, जहाँ राष्ट्र अपनी बुनियाद पर काम कर रहा था और औपनिवेशिक पैठ का प्रतिरोध कर रहा था, (iii)‘लोक’ की परम्परा, इतिहास और संस्कृति के समावेशी धारक के रूप में, जहाँ यह माना गया कि राष्ट्र ने औपनिवेशिक प्रभुत्व से प्रभावित हुए बिना अपना अस्तित्व व़फायम रखा है, और, (iv) जेण्डर-आधारित श्रेणी के रूप में, जिसका महिलाओं की सामाजिक भूमिका को परिभाषित करने के तरीकेंपर महत्त्वपूर्ण प्रभाव पड़ा। यह माना जा सकता है कि ये अर्थ निम्नलिखित प्रक्रिया के माध्यम से सामने आए:
(i) औपनिवेशिक शासन के व्यवहार, और (ii) औपनिवेशिक शासन का राष्ट्रवादी प्रतिरोध और एक भारतीय आधुनिकता की दावेदारी। आगे के भागों में यह जाँच करने का प्रयास किया जाएगा कि ‘घर के दायरे’ के विविध अर्थ किस प्रकार इन दो व्यापक प्रक्रियाओं के रूप में सामने आए।
उपरोक्त अर्थों पर विचार करने के लिए निम्नलिखित प्रश्नों पर चिन्तन करना उपयोगी होगा: (i) यदि घर का दायरा सम्प्रभुत्ता और आत्म-निर्णय के दावों पर आधारित था, तो इसकी ‘ख़ास’ विशेषताएँ क्या थीं? (ii)इसकी सीमा-रेखाको किस तरह परिभाषित किया गया था- क्या यह घर तक ही सीमित था, या पिफर सांस्कृतिक समुदाय, या राष्ट्र, या एक व्यापक राजनीतिक कल्पना में अवस्थित राजनीतिक समुदाय तक पफैला हुआ था? (iii) यह अस्तित्व में कैसे आया? क्या ठोस/पृथक सीमा-रेखाएँ घर के दायरे के अन्त और राजनीतिक/सार्वजनिक की शुरुआत को स्पष्ट करती थीं या यह पूरी तरह आकस्मिक और सन्दर्भयुक्त था? (iv)आमतौर पर, घर के दायरे को ग़ैर-राजनीतिक माना जाता है, क्या सचमुच ऐसा था? (v)घर, समुदाय, राष्ट्र के क्रम में विचार करने पर किस तरह के टकरावों और विरोधों ने घर के दायरे की आन्तरिक गत्यात्मकता को अभिव्यक्त किया? (vi)इस तरह के संघर्षों को समरूपी/समरूपीकृत ‘घर के दायरे’ में किस तरह समायोजित किया गया, और सार्वजनिक/राजनीतिक में इन्होंने किस तरह की भूमिका अदा की। दूसरे शब्दों में इन टकरावों और इनके बीच समझौतों ने कैसे ख़ुद को नागरिकता की भाषा में अभिव्यक्त किया?(vii)औपनिवेशिक इतिहास और जेण्डर अध्ययन के साहित्य में घर के दायरे को किस प्रकार देखा जाता रहा है, तथा इस दौर के साहित्य में इसका चित्राण कैसेकिया गया है, और (viii)महिलाओं ने ख़ुद घर के दायरे के निर्माण की प्रक्रिया को किस प्रकार परिभाषित किया है?
औपनिवेशिक विमर्श और शासन के व्यवहारों में घर का दायरा
यह कहा जा सकता है कि घर के दायरे में औपनिवेशिक शासन की अनिवार्यताओं से सामने आने वाले अर्थों का एक समूह शामिल होता है। यह उपनिवेशक द्वारा उपनिवेशित जनसंख्या को समझकर उन्हें शासित करने में सहायक होता है। इसमें यह बात अन्तनिर्हित थी कि उपनिवेशित संस्कृतियों को समुचित तरीक़े से समझा जाए। इसके लिए घर के दायरे या देशज संस्कृति का विद्वतापूर्ण (प्राच्यवादी) अध्ययन और प्रशासकीय जाँच-पड़ताल आवश्यक था। अठारहवीं और उन्नीसवीं सदी के प्रारम्भ में भारत के बारे में हुए अधिकांश यूरोपीय लेखन और चिन्तन में यही मान्यता व्याप्त थी। उपनिवेशित लोगों को समझने की प्रक्रिया में घर के दायरे के साथ विशेष सांस्कृतिक अर्थ जोड़ा गया। साथ ही, इसमें ऐसे अर्थ भी शामिल हो गये, जिसमें उपनिवेशितों को समकालीन नहीं माना गया और उन्हें पिछड़े हुए समूह के रूप में देखा गया। इस रूपरेखा में उपनिवेशित लोगों का चरित्र ‘घर के दायरे में बँधे’ अराजनीतिक प्रजा-नागरिक के रूप में सामने आया। यह माना गया कि इनकी सांस्कृतिक विशेषताएँ ऐसी हैं कि इन्हें नागरिकता का अधिकार नहीं दिया जा सकता है। ‘घर के दायरे’ के विचार के माध्यम से उपनिवेशित संस्कृति की सभ्यता के मानक के आधार पर समीक्षा की गयी। इसकी बुनियाद पर दलील दी गयी कि औपनिवेशिक शासन का भेदभाव भराव्यवहार पूरी तरह सही है। इस समीक्षा की इमारत तथाकथित ‘महिला-प्रश्न’ की बुनियाद पर आधारित थी, जिसने भारतीय सभ्यता को हीन मानते हुए उसकी निन्दा की। दरअसल, सभ्यता का विचार उपनिवेशक की विश्व-दृष्टि से सामने आया, जिसमें यह माना गया कि यह दुनिया पदसोपानीय (अर्थात् ऊँच-नीच वाली) है। साथ ही, यह विचार पदसोपानों के ख़ास पैमाने से जुड़ा हुआ है जो इसे एक सार्वभौमिक स्थिति से जोड़ते हैं, जिसमें विभिन्न सभ्यताओं का स्थान तय किया गया।
अंग्रेज़ोंद्वारा शासन की एक व्यवस्था का निर्माण करने का प्रयास किया गया। इससे भी घर के दायरे को एक आकार मिला। इसमें उपनिवेश की समझ केवल सांस्कृतिक कसौटियों पर आधाति थी। अंग्रेज़ोंकी इस व्यवस्था में उपनिवेशितों को नागरिक के रूप में स्वीकार नहीं किया गया। अंग्रेज़ोंने यह माना कि सार्वभौमिक सभ्यता के मानक पर उपनिवेशितों की संस्कृति का स्थान काफ़ी नीचे है। इसलिए उन्होंने इन्हें अपना समकालीन (या अपने जितना विकसित) नहीं माना। यह माना गया कि नागरिकता के लिए आधुनिक पश्चिमी सन्दर्भ आदर्श और अनिवार्य हैं। इसलिए यह ‘पूर्व-आधुनिक’ सामाजिक सम्बन्धों वाले समाज में लागू नहीं होता है। यह कहा गया कि चूँकि उपनिवेशित लोग मध्य-युग से आधुनिक युग की ओर आने में असमर्थ होते हैं, इसलिए पश्चिम में नागरिकों को जो अधिकार मिले हुए है, वे उपनिवेशों के नागरिकों को नहीं दिये जा सकते हैं। इस सन्दर्भ में अलेक्जेण्डर डॉउ की 1770और 1772के बीच तीन खंडों में प्रकाशित किताब का उल्लेख किया जा सकता है। उन्होंने अपनी किताब हिस्ट्री ऑफ़ हिन्दुस्तान में अफ़सोस जताते हुए यह लिखा कि ‘...बंगाल की उपजाऊभूमि पर खेती करने वाले देशज लोगों को स्वतन्त्र करना राजनीतिक व्यवस्था की क्षमता से बाहर है...उनका धर्म, उनकी संस्थाएँ, उनके आचार-व्यवहार और उनके दिमाग़ की बुनियादी अभिवृत्ति उन्हें निष्क्रिय आज्ञापालन के योग्य बनाती है।’ डाउ यह मानते थे कि यह निष्क्रियता ‘देशज’ जनसंख्या की मानसिकता में गहरे स्तर तक जड़ जमाये हुए हैं। इस कारण, जहाँ पश्चिमी समाजों में ‘आत्म’ निर्णय की बुनियादी स्थितियाँ हासिल करने पर एक ख़ास तरह के नतीजे सामने आए थे, वहीं भारत में ऐसी स्थितियाँ होने पर इनके उल्टे नतीजे सामने आएँगे:‘उन्हें सम्पत्ति देने पर वे हमारे हितों से और भी ज़्यादा मजबूती से बँध जाएँगे और हमारी प्रजा बन जाएँगे। यदि ब्रिटिश राष्ट्र इस शब्द का उपयोग करना चाहे तो यह कहा जा सकता है कि वे हमारे दास बन जाएँगे’। इसी सन्दर्भ में दीपेश चक्रवर्ती ने लिखा है कि साम्राज्यीय विचारधारा और शासन के औपनिवेशिक व्यवहारों में बुनियादी रूप से नागरिकता पर शोर नहीं दिया गया। इसके बजाय, उपनिवेशितों को सिर्फ़ प्रजा की हैसियत प्रदान की गयी (चक्रवर्ती 1992, 6)।
औपनिवेशिक शासन ने शासन की विशिष्ट तकनीकों का प्रयोग किया। इसके माध्यम से इसने उपनिवेशित प्रजा के बारे में जानकारी एकत्रित करने के ख़ास तरीक़ेका ईशाद किया और उपनिवेश की प्रजा से अपने सम्बन्धों को वर्णित और परिभाषित किया। प्रशासन की मदद के लिए प्रजा की जनसंख्या के मापन, गणना और वर्गीकरण के ‘आधुनिक’ प्रशासकीय (गवर्नमेंटलद्) व्यवहारों का विकास किया गया (चक्रवर्ती 1995)। इसने यह बात पूरी तरह स्पष्ट की कि कौन से मसले राज्य के सामर्थ्य के भीतर आते हैं। दूसरी ओर, राष्ट्रवादियों ने औपनिवेशिक राज्य के सामर्थ्य और दायरे पर सवाल उठाए। वे राज्य के प्रभाव के विस्तार को सीमित और संकुचित करना चाहते थे।
राष्ट्रवादी प्रतिरोध स्थल के रूप में घर का दायरा
औपनिवेशिक दौर में सिर्फ़ अंग्रेज़ ही नहीं बल्कि राष्ट्रवादी भी अपने प्रभाव का दायरा बढ़ाने का प्रयास कर रहे थे। इस दौरान घर का दायरा एक ऐसे स्थान के रूप में सामने आया जहाँ (औपनिवेशिक) शासन ने अपने प्रभुत्व और व्यवहार को लागू करने का प्रयास किया। लेकिन इसका उभार औपनिवेशिक शासन से विरोध और प्रतिरोध स्थल के रूप में भी हुआ, जहाँ पर उपनिवेशित लोगों ने अपनी आज़ादी हासिल की। एक ओर, औपनिवेशिक विमर्श ने उपनिवेशित लोगों को घर के दायरे तक सीमित करने, विराजनीतिकृत और अधीन बनाने का काम किया; दूसरी ओर, राष्ट्रवादी विमर्श ने इसे एक ऐसे क्षेत्र में तब्दील किया, जहाँ प्रतिरोधी, मुक्तिकारी, आत्म-पहचान को एक आकार मिला।
औपनिवेशिक दौर में घर के दायरे की रूपरेखा ने आधुनिकता की राष्ट्रवादी आकांक्षा को प्रतिबिम्बित किया। यह उन्हें उपनिवेशकों के ‘बराबर’ बनाती थी। लेकिन इसके साथ ही इसने देशज लोगों के ‘विभेद’ या विशिष्टता को भी अभिव्यक्त किया। दरअसल, विभेद की दावेदारी, एक ‘विशिष्ट जन’—एक ‘राष्ट्र’ होने के दावे ने तार्किक रूप से उपनिवेशकों के साथ समानता की दावेदारी का आधार तैयार किया। साथ ही, इसने राजनीतिक सम्प्रभुत्ता और राष्ट्रीय आत्म-निर्णय के अधिकार को मुखरता से व्यक्त किया। घर एक अपराजेय स्थल के रूप में सामने आया जिसने उपनिवेशकों से बराबर और विभेद-दोनों को ही अभिव्यक्त किया। राष्ट्रवाद ने यह दावा किया कि वह घर के दायरे में औपनिवेशिक राज्य के हस्तक्षेप के बग़ैर काम कर सकता है।
यह कहा जा सकता है कि राष्ट्र के वर्णन और निर्माण की प्रक्रिया में घर के दायरे ने अहम स्थान हासिल कर लिया। यह एक प्रतिरोधी स्व-पहचान का स्थान बन गया। इस सन्दर्भ में यह मुख्य रूप से दो स्तरों पर सामने आया। पहला, सहभागी ऐतिहासिक अतीत पर आधारित समरूपी राष्ट्रीय पहचान और दूसरा, लोकतान्त्रिक नागरिक समाज की कल्पना। समरूपी राष्ट्रीय पहचान के बारे में यह माना गया कि नियति ने इसे बनाया है। इस राष्ट्रीय पहचान का आह्वान इस अर्थ में भी वर्चस्व (हेजेमनी) कायम करने वाला था कि यह विविधतापूर्ण सम्भावनाओं को एक राष्ट्रीय सत्त्व (नैशनल इसेंस) में सीमित करता था। यह औपनिवेशिक समाज के भीतर राष्ट्रीय सम्प्रभुत्ता का क्षेत्र था। अर्थव्यवस्था, राज्य-तन्त्र, विज्ञान और तकनीक जैसे बाहरी क्षेत्र अलगाव पैदा करने वाले और दुर्बल बनाने वाले क्षेत्र थे। इन क्षेत्रों में पूर्व ने पश्चिम के सामने पूरी तरह आत्म-समर्पण कर दिया था। लेकिन घर के क्षेत्र के बारे में यह दावा किया गया कि यह चिन्तन और व्यवहार के स्तर पर विदेशी (औपनिवेशिक) शासन की बाहरी दुनिया से पृथक है। यहाँ राष्ट्र की सर्वोच्चता और विशिष्टता की दावेदारी की गयी। यह संस्कृति का आन्तरिक क्षेत्र था, जो एक अर्थ में राष्ट्र के सीमा-क्षेत्र की तरह था। इसे औपनिवेशिक राज्य से सम्प्रभुत्ता हासिल थी, जिसमें घुसपैठ करना नामुमकिन था और जो अपने मूल्यों से ‘समझौता’ नहीं कर सकता था। पार्थ चटर्जी यह मानते हैं कि घर के दायरे के इसी सम्प्रभु क्षेत्र में राष्ट्रवादियों ने अपने सबसे ‘शक्तिशाली, सृजनात्मक और ऐतिहासिक रूप से महत्त्वपूर्ण योजना’ को लागू करने का प्रयास किया। अर्थात् इसमें सुधरी हुई राष्ट्रीय परम्परा का निर्माण किया गया और स्त्रियों को इसका धारक माना गया (चटर्जी 1994, 129)।
दूसरे स्तर पर घर के दायरे की एक लोकतान्त्रिक नागरिक समाज के रूप में कल्पना की गयी जहाँ अधिकार और नागरिकता की आधुनिक अवधारणाएँ अपना रूप और सत्त्व हासिल कर सकती थीं। पहले भाग में राज्य की ‘नौकरशाही-तार्किक’ गतिविधियों की विवेचना की गयी है, जिसमें उपनिवेशित लोगों की परिभाषा और गणना शामिल थी। यह सिर्फ़व्यक्तियों के रूप में नहीं होती थी, बल्कि इसमें जाति, पंथ, ‘सैन्य नस्ल’ ;मार्शल रेसेजद्ध जैसे व्यापक समुदायों की श्रेणियों पर भी ध्यान दिया जाता था। ये सभी राज्य द्वारा अराजनीतिक माने गये।14इस गणना ने यह भी प्रदर्शित किया कि औपनिवेशिक राज्य अपने सामर्थ्य और प्रभाव के दायरे को सार्वजनिक-राजनीतिक स्तर पर संगठित कर रहा था। दूसरी ओर, इस तरह की गणना के साथ-ही-साथ नागरिक समाज के एक क्षेत्र का भी उभार हुआ जहाँ राष्ट्र के नागरिक जीवन के लोकतन्त्राीकरण की प्रक्रिया को बढ़ावा दिया गया। स्पष्टतः शासन के औपनिवेशिक व्यवहारों में समुदायों की गणना शामिल थी। इन्हें धार्मिक और सांस्कृतिक गतिविधियों का संकेतक माना गया। वहीं, इन सांस्कृतिक सामुदायिक पहचानों के आस-पास बहुत सारे संघर्ष हो रहे थे। इन संघर्षों ने भारतीय समाज में सामाजिक-आर्थिक और धार्मिक पदसोपानों के कारण होने वाले हाशियाकरण और इनके वर्चस्व पर सवाल उठाए। निश्चित रूप से, घर का दायरा राष्ट्र के सम्प्रभु, आन्तरिक, समरूपी और सांस्कृतिक क्षेत्र के रूप में सामने आया। इसने औपनिवेशिक हस्तक्षेप को सीमित करने वाले सीमा-क्षेत्र की भूमिका अदा की। उपनिवेशिक विमर्श में घर के दायरे को विराजनीतिक और दमित समुदायों के समूह के रूप में देखा गया। लेकिन उपनिवेशितों के विमर्श में यह एक ऐसे क्षेत्र के रूप में सामने आया, जहाँ सामाजिक-आर्थिक पुनःसंरचना और सत्ता सम्बन्धों की पुनःअभिव्यक्ति का संघर्ष चल रहा था। दूसरे शब्दों में, यहाँ मौशूदा शक्ति सम्बन्धों के लोकतन्त्रीकरण के लिए संघर्ष हो रहे थे। इनके चलते स्व-शासन की आधुनिक संरचनाओं के लिए आधार तैयार हुआ। इन संघर्षों में अधिकार और नागरिकता की भाषा का प्रयोग किया गया। संक्षेप में, यह कहा जा सकता है कि इसने एक ऐसे राजनीतिक समुदाय के निर्माण की शुरुआत की जो क्षैतिज (समस्तरीय) बन्धुता सम्बन्धों पर आधारित था।
घर का दायरा और जेण्डर-आधारित नागरिकता
जैसा कि पहले भाग में बताया गया है कि उपनिवेशितों के बारे में अनुसंधान करते वक़्त यह बात पूरी तरह स्पष्ट कर दी गयी वे अत्यधिक पिछड़े हुए हैं और उपनिवेशकों के समकालीन नहीं हैं। यह कहा गया कि उपनिवेशित लोग औरतों के साथ बहुत ही दवि़फयानूसी बरताव करते हैं जो यह प्रमाणित करता है कि उनकी सभ्यता बहुत ही निम्न है। पिछले भागों में इसकी विवेचना की गयी है। साथ ही, यह भी बताया गया है कि किस तरह इस प्रक्रिया से भारतीयों का नारीकरण और विराजनीतीकरण हुआ। निश्चित रूप से, विभेद के नियम ने औपनिवेशिक राज्य द्वारा उपनिवेशितों की नागरिकता टालने के प़फैसले को वैधता प्रदान किया। वहीं, राष्ट्रवादियों ने उपनिवेशवादियों की आधुनिकता की इस अवधारणा की आलोचना की कि आधुनिकता एक ऐसी परिघटना है, जो पहले से ही किसी अन्य स्थान पर घटित हो चुकी है। अपनी इस आलोचना के आधार पर ही उन्होंने भारतीयों के लिए नागरिकता की माँग की। राष्ट्रवादियों (पुरुषों) ने भारतीय आधुनिकता को परिभाषित करने के लिए घर के क्षेत्र का प्रयोग किया। इस आधुनिकता की परिकल्पना के लिए इस बात पर बल दिया गया कि घर के क्षेत्र में स्थायी चेतना और भारतीयता का सत्त्व मौज़ूद होता है। घर के दायरे को तैयार करने के लिए पूरी तरह जाँच-परखकर अतीत के तत्त्वों को चुना गया। इस पर शोर दिया गया कि ये तत्त्व बाहरी सत्ता की मौज़ूदगी और उसके प्रभुत्व से बेदाग और निष्कलंक रहे हैं। उन्नीसवीं सदी के आखि़री और बीसवीं सदी के प्रारम्भिक दौर में राष्ट्रवादियों ने घर के दायरे में मौज़ूद स्थायी चेतना की पुष्टि करने के लिए इतिहास का पुरशोर सहारा लिया। उन्होंने इतिहास के आगोश सेएक ‘राष्ट्रीय’ संस्कृति की पुनःप्राप्ति, पुनःउभार और पुनःपुष्टि करने का प्रयास किया। स्पष्टतः घर के दायरे में राष्ट्रीय संस्कृति को फिर से हासिल किया गया। महिलाएँ बच्चों को जन्म देने और उनके पालन-पोषण के काम से जुड़ी हुई थीं। अपनी इस विशिष्ट भूमिका के आधार पर ये एक राष्ट्रीय संस्कृति और पहचान की निरन्तरता का ‘राष्ट्रीय’ प्रतीक बन गयीं। इस तरह हिन्दू स्त्री का आदर्श रूप तैयार किया गया। एक राष्ट्रीय परम्परा की पुनःप्राप्ति और नवीकरण के लिए लगातार इस स्त्री का महिमामंडन किया गया। राष्ट्रवादी विमर्श में महिलाओं के लिए व्यावहारिक मानक तय करने के लिए काफ़ी विस्तृत लेखन किया गया। इसके माध्यम से राष्ट्रीय परम्परा का उत्पादन और पुनरुत्पादन किया गया। इसमें आदर्श हिन्दू स्त्री का शरीर साम्राज्यवाद के प्रतिरोध के सर्वोच्च और यहाँ तक कि आखि़री प्रतीक के तौर पर सामने आया। तनिका सरकार ने इस महत्त्वपूर्ण लेकिन विरोधाभासी सम्बन्ध को प्रस्तुत किया है: ‘एक गुप्त आभूषण की तरह स्वतन्त्रता भी पराजय को अभिव्यक्त करने वाले बाहरी परिवेश से अलग की जा सकती थी और फिर भी इसे महिला के शरीर में छिपाया जा सकता था’ (सरकार 1987, 2014)। हालाँकि सार्वजनिक/वैश्विक दुनिया में आज़ादी घर के दायरे में मुक्ति की दावेदारी पर निर्भर थी। इसलिए पवित्रता को रेखांकित करने वाले स्त्री शरीर और राज्य के स्तर पर राजनीतिक स्वतन्त्रता के बीच एक परोक्ष शृंखला के रूप में सामने आती है। ख़ास बात यह है कि इस स्पेक्ट्रम के दूसरे सिरे से देखने पर यह बात सामने आती है कि राजनीतिक आज़ादी, सम्प्रभुत्ता और नागरिकता ‘प्रतिगमन की निरन्तर प्रक्रिया’ पर निर्भर हो गये। महिलाओं के मामले में यह उल्टी दिशा में जाने की तरह है। उनका ‘स्वतन्त्र स्वत्व’ सार्वजनिक क्षेत्र से घर के आन्तरिक स्थान पर वापस लौटता है। फिर, इसके आगे वह ‘निष्कलंक, पवित्र और शुद्ध महिला शरीर की गुप्त गहराइयों’ में ढकेल दिया जाता है (सरकार 1987)। ऐसे में, महिलाओं की व्यक्तिकरण की प्रक्रिया और उनकी नागरिकता भी उल्टी दिशा में आगे बढ़ने लगती है।
इस तरह राष्ट्र के इतिहास लेखन में इस बात की पुरशोर तरप़फदारी की गयी कि स्त्रियाँ राष्ट्रीय सत्त्व का अभिन्न भाग हैं। इस सन्दर्भ में उनके चरित्र विविध रूप में सामने आए। इतिहास से प्रतिष्ठित स्त्री चरित्रों को एकत्रित किया गया तथा उन्हें वर्तमान संघर्ष के लिए सार्थक और प्रासंगिक बनाया गया। उनके लिए आदर्श सामाजिक भूमिका को स्पष्ट करने के लिए एक ओर वीरांगना मॉडल पेश किया गया। इसमें वीर नारीत्व (लक्ष्मीबाई, अहिल्याबाई होल्कर, दुर्गा, और काली) के आदर्श पर बल दिया गया। दूसरी ओर, इनके लिए सीता और सावित्री के रूप में आदर्श पत्नी के चरित्र को देवी की तरह प्रस्तुत किया गया। प्रतिरोध और संघर्ष या त्याग और ‘स्व-निषेध’ व्यक्त करने वाले इन सभी रूपों में एक सामान्य अर्थ मौज़ूद था। इसमें यह माना गया कि स्त्रियाँ ही राष्ट्र को कायम रखती हैं और इसका पुनरुत्पादन करती हैं। ये राष्ट्र को जीवन प्रदान करती हैं तथा इसे मजबूत करने और विदेशी प्रभुत्व से बचाने का नैतिक दायित्व अपने कंधों पर लेती हैं। इस तरह, एक ख़ास राष्ट्रीय पहचान निर्मित हुई, जिसमें स्त्रियों को देवी सदृश माना गया। इनके लिए तय की गयी प्रामाणिक भूमिका ने बहिष्करणों की एक शृंखलाबनायी और विभेदों का समरूपीकरण किया। इस पूरी प्रक्रिया से सार्वभौमिक राष्ट्रीय पहचान का वर्चस्व स्थापित हुआ। इस सन्दर्भ में घरेलू व्यवहार और सम्बन्धों के साथ नये तरह के अर्थ जोड़े गये। ये ऐसे अर्थ थे जिन्होंने परिवार और समुदाय की कल्पना को राष्ट्र से जोड़ा। इनके चलते परिवार को एक नया अर्थ मिला। फिर इस पहलू की नवीन व्याख्या सामने आयी कि किस प्रकार परिवार समुदाय और राष्ट्र की अवधारणा के साथ संलग्न हो गया है।
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