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भारतीय संविधान राष्ट्र की आधारशिला : ग्रेनविल ऑस्टिन, अनुवाद : नरेश गोस्वामी

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भारतीय संविधान राष्ट्र की आधारशिला

ग्रेनविल ऑस्टिन

अनुवाद : नरेश गोस्वामी


प्रस्तुति कृति से पहले भारतीय संविधान से सम्बन्धित अधिकांश लेखन संविधान के नीरस प्रावधानों में उलझ कर रह जाता था। यह तात्कालिकता और वर्णनात्मकता से आक्रान्त एक ऐसा लेखन था जिसमें एक दस्तावेज़ के रूप में संविधान की ऐतिहासिक पूर्व-पीठिकासंविधान सभा की उग्र बहसों के आग्रह-दुराग्रह और चिन्ताएँ अनुपस्थित थीं। इस तरह ग्रेनविल ऑस्टिन की इस रचना ने भारत में संवैधानिक अध्ययन की धारा को एक नया परिप्रेक्ष्य प्रदान किया।

भारतीय संविधान की निर्माण-प्रक्रियाउसके अवधारणात्मक आधार तथा उसकी लोकतान्त्रिाक परिणति से लेकर केन्द्र सरकार के स्वरूपनागरिक अधिकारोंसंघ और राज्य के आपसी सम्बन्धोंन्यायपालिका की भूमिका तथा भाषा के असाध्य विवाद जैसे विभिन्न मुद्दों पर विमर्शी दृष्टि डालती यहकृकृति सिर्फ औपनिवेशिक सत्ता का भाष्य न लिख कर यह दिखाती है कि इन मसलों के सम्बन्ध में भारतीय पक्ष के विभिन्न धड़े क्या सोच रहे थे।

अपने समय के प्रकाशित-अप्रकाशित दस्तावेज़ो के अलावा संविधान सभा के सदस्यों के विस्तृत साक्षात्कारों तथा लेखक द्वारा जुटाये गये अन्य प्राथमिक स्रोतों पर आधारित यह रचना आज एक क्लासिक की हैसियत रखती है।  

                    अनुक्रम 

1. संविधान सभा : बीज से वृक्ष की ओर - 29• सभा : उत्पत्ति और गठन
• 
भारत : एक सूक्ष्म चित्र
• 
सभाकांग्रेस और देश
• 
नेतृत्व तथा निर्णय-प्रक्रिया
2. सामाजिक क्रान्ति : मार्ग का चुनाव – 63• मौज़ूदा विकल्प
• 
चुना गया मार्ग
• 
विकल्प चुनने के कारण
1. कांग्रेस कभी गाँधीवादी थी ही नहीं
2. 
समाजवादी प्रतिबद्घता
3. 
तात्कालिक कारण
4. 
वयस्क मताधिकार की ज़रूरत
3. संविधान की अन्तरात्मा मौलिक अधिकार तथा राज्य के नीति-निर्देशक सिद्घान्त 1 - 98निरन्तरता के साठ वर्ष 
• 1947 का माहौल 
• 
सभा द्वारा मौलिक अधिकारों की रचना
• 
अधिकारों की सीमाएँ
• 
सभा और नीति-निर्देशक सिद्धांत
4. मौलिक अधिकार-2 सामाजिक सुधारराज्य सुरक्षा बनाम 'उचित प्रक्रिया’ - 130 1. उपयुक्त विधि और सम्पत्ति
2. 
सम्पत्ति के अनुच्छेद की संशोधन-प्रक्रिया 
3. 
उपयुक्त विधि और वैयक्तिक स्वतन्त्रता
4. 
निवारक नज़रबन्दी : 1950 से
मौलिक अधिकार तथा नीति-निर्देशक सिद्घान्त : एक सिंहावलोकन
5. कार्यपालिका : लोकतन्त्र की शक्ति
• कार्यपालिका : स्वरूप का प्रश्न 
• 
कार्यपालिका तथा अल्पसंख्यकों के हित
• 
कार्यपालिका : शक्ति की सीमाएँ
1. राष्ट्रपतिमन्त्रिपरिषद् तथा निरीक्षण समितियाँ
2. 
लिखित प्रावधान बनाम पारम्परिक परिपाटियाँ 
कार्यपालिका : सन् 1950 के बाद
6. विधायिका : निर्वाचित सरकार की समन्वयकारी भूमिका 217• मतभेदों के विरुद्घ संघष
• 
द्वितीय सदनों की समस्या
7. न्यायपालिका और सामाजिक क्रान्ति 245• सर्वोच्च न्यायालय
• 
न्यायपालिका की स्वतन्त्रता
• 
एकजुटता का स्थायी विषय
8. संघवाद-1 : एक सौहार्द्रपूर्ण संघ 277शक्तियों का वितरण
1. विधायी सूचियों में शक्ति-विभाजन
2. 
संघीय कार्यपालिका का प्राधिकार तथा शक्तियों का वितरण
संघ का अन्यतम हथियार : आपातकालीन प्रावधान
9. संघवाद-2 : राजस्व का वितरण 321
1. भारत के संघीय वित्त की पृष्ठ भूमि
2. 
वित्तीय प्रावधानों की रचना
10. संघवाद-3 : राष्ट्रीय नियोजन 346• भाषाई प्रान्तों का मुद्दा और संविधान 
• 
संविधान का रियासतों में प्रसार
11. संशोधन : संघ का लचीलापन 373
12. भाषा और संविधान : एक आधा-अधूरा समझौता388
• गाँधी के आगमन से संविधान सभा तक
• 
सभा में शुरुआती झड़प
1. संविधान के मसौदे की रचना
2. 1948 
की घटनाएँ 
3. 
राष्ट्रीय भाषा
4. 
जनवरी-अगस्त, 1949 की घटनाएँ
• सर्वसम्मति पर आधारित निर्णय-प्रक्रिया
• 
सामंजस्य का सिद्घान्त
• 
चयन और समायोजन का हुनर
• 
युद्ध का शंखनाद
• 
उपसंहार
13. निष्कर्ष : एक सफ ल संविधान की अन्तर्कथा450• भारत का मौलिक योगदान
1. सर्वसम्मति पर आधारित निर्णय-प्रक्रिया
2. 
सामंजस्य का सिद्घान्त
• चयन और समायोजन का हुनर
• 
संविधान का आलोचना-पक्ष
• 
इसकी सफलता का श्रेय भारत की जनता को जाता है
परिशिष्ट 1 483परिशिष्ट 2 486परिशिष्ट 3 492ग्रन्थ-सूची 513

 


नरेश गोस्वामी ने मेरठ और दिल्ली विश्वविद्यालय से अपनी शिक्षा पूरी की है। उन्होंने हिन्दी समाज विज्ञान कोश’ (सं. अभय कुमार दुबे) में लगभग पैंसठ लेखों का योगदान दिया है और ग्रेनविल ऑस्टिन,स्टुअर्ट हॉलजोशुआ फिशमैनबृजबिहारी कचरु आदि पर परिचयात्मक लेखन भी किया है। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में उनके कुछ प्रमुख शोध-लेख और समीक्षाएँ प्रकाशित हो चुकी हैं। धर्म और राजनीति के अन्तःसम्बन्धों का अध्ययन उनके शोध का मुख्य विषय है। सम्प्रति वे विकासशील समाज अध्ययन पीठ (सीएसडीएसदिल्ली) द्वारा प्रकाशित शोध-जर्नल प्रतिमान’ में सहायक सम्पादक हैं।

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निर्मल स्मृति

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निर्मल स्मृति

(3 अप्रैल 1929 )





निर्मल सूक्तियाँ ~
  • मुझे ईश्वर में विश्वास नहीं है, फिर भी न जाने कैसे एक विचित्र स्नेहिल-सी कोमलता मेरे अस्तित्व के गहनतम तल में भाप-सी उठने लगती है, जब मैं अपने लेखन में कभी ईश्वरका नाम लिखता हूँ।

  • साहित्य हमें पानी नहीं देता, वह सिर्फ़ अपनी प्यास का बोध कराता है। जब तुम स्वप्न में पानी पीते हो, तो जागने पर सहसा अहसास होता है कि तुम सचमुच कितने प्यासे थे।
   
  • मनुष्य का अन्तःविवेक समाज की नैतिक मान्यताओं से नहीं आता, जो बदलती रहती हैं। यह आता है, उस असीम विस्तार के बोध से, जो इतिहास के ऊपर फैला हैऔर मनुष्य के भीतर भी।

  • मेरे लिए सफलता एक ऐसे खिलौने की तरह है, जिसे एक अजनबी किसी बच्चे को देता है, इससे पहले कि वह इसे स्वीकार करे, उसकी नज़र अपने माँ-बाप पर जाती है और वह अपना हाथ खींच लेता है।
  • जब हम जवान होते हैं, हम समय के ख़िलाफ़ भागते हैं, लेकिन ज्यों-ज्यों बूढ़े होते जाते हैं,हम ठहर जाते हैं,समय भी ठहर जाता है,सिर्फ़ मृत्यु भागती है,हमारी तर                                               
  • असली सन्त और क्रान्तिकारी सिर्फ़ वही लोग हो सकते हैं जो माँ के पेट से निकलते ही चारों तरफ़ दुनिया को देखते होंगे और घोर निराशा में चीख मार कर रोते होंगे...क्योंकि हर बच्चा पैदा होते ही चीखता है-सन्त और क्रान्तिकारी बनने की सम्भावनाएँ हर व्यक्ति में मौजूद रहती हैं।
  • सुख की तलाश आँखमिचौनी का खेल है-जब तुम उसे खोजते हो, तो वह ओझल हो जाता है, फिर वह अचानक तुम्हें पकड़ लेता है, जब तुम अपनी यातना की ओट में मुँह छिपा कर बैठे हो।
  • हर लेखक की शुरुआत में उसका अन्त छिपा रहता है...और इन दोनों के बीच वह स्वयं है, पराजित भी और विजेता भी, यातना भोगता हुआ, लेकिन उस यातना का द्रष्टा भीएक ऊबड़-खाबड़ ज़मीन, जिस पर उसकी समूची दुनिया बसी है।
  • शब्द व्यक्तियों के बीच सम्प्रेषणीयता स्थापित नहीं करते, बल्कि महज उसे उद्घाटित करते हैं, जो पहले से ही उनके बीच अदृश्य रूप से व्याप्त है।

                                                              
  • कभी-कभी ऐसा होता है कि हम चाहे सत्य को प्राप्त न कर सकें, अपने झूठ को पहचान लेते हैं, उस झूठको उद्घाटित करने का जोख़िम उठा लेते हैं। यह अपने में एक नैतिक कर्म है।
  • कोई भी रचना न पूर्ण रूप से स्वतन्त्र है, न पूर्ण रूप से उपज, बल्कि जिस सँकरे दरवाज़ेसे लेखक ख़ुद नहीं गुज़र सकता, उसकी रचना अपने को अदृश्य छाया-सी उस दरवाज़ेके अनुकूल समेट कर रास्ता बना लेती है। समेटने की प्रक्रिया में उस अदृश्य ईश्वर का जन्म होता है जिसे हम रूप कहते हैं, उस छाया को गति और प्राण देता और एक मांसल प्रवाह देता हुआ।

  • बन्द करने के लिए कितनी चाभियाँ हैं, खोलने के लिए एक भी नहीं।
  • एक सुख का अभाव कभी दुख का कारण नहीं बनता, उलट एक नये, अपरिचित सुख को जन्म देता है
  • पुराने स्मारक और खँडहर हमें उस मृत्यु का बोध कराते हैं जो हम अपने भीतर लेकर चलते हैं। बहता पानी उस जीवन का बोध कराता है जो मृत्यु के बावजूद वर्तमान है, गतिशील है, अन्तहीन है।

  • इतिहास का यह धर्म है कि वह हर देश को किसी-न-किसी दुनिया के कठघरे में खड़ा कर सके; कलाकार का धर्म है कि वह हर कठघरे से मुक्ति पा कर अपनी प्राथमिक और मौलिक दुनिया में प्रवेश करने का साहस जुटा सके।
  • हमारा असली यथार्थ वही नहीं, जो मैं जी रहा हूँ। हमारा असली यथार्थ हमारे स्वप्नों, हमारी आकांक्षाओं, हमारी इच्छाओं, हमारे उन विकल्पों के भीतर भी छिपा रहता है जिन्हें हम चुन नहीं सके लेकिन वे हमारे भीतर उतने ही जीवन्त और स्पन्दनशील हैं।
  • पहाड़, भिक्षुक, लामा, फकीर, सूनी दुपहरें...ये ऐसेबिम्ब हैं, जिनके बीच मेरी कल्पना ने अपना परिवेश निर्मित किया था...बचपन के बिम्ब जिन्हें शब्दों में ढालते हुए समूचा जीवन बीत जाता है, और फिर भी लगता है, जो कुछ बना है, उससे बहुत कम है, जो अछूता, बंजर, आकारहीन पड़ा है।
  • साहित्य में अभाव का उतना ही महत्त्व है, जितना कला में अदृश्य का, और संगीत में मौन का...मौनअभाव और अदृश्य के स्थल खाली नहीं हैं...इनमेंहमारी कल्पना वास करती है।
  • जब सारे अन्धविश्वास एक सुसंगत शृंखला में जुड़ते हैं, तो वे अन्धे हों, न हों, एक गहरी सांस्कृतिक अर्थवत्ता प्राप्त कर लेते हैं।
                                                                                             
  • तुम यथार्थ को पास रख कर उसका सृजन नहीं कर सकते। तुम्हें उसके लिए मरना होगा, ताकि वह  तुम्हारे लिए जीवित हो सके।
  • मृत्यु कोई समस्या नहीं है, यदि तुमने अपनी ज़िन्दगी शुरू न की हो।
  • जो लोग तुम्हें प्यार करते हैं, वे तुम्हें कभी माफ़ नहीं करते।
  • एक कलाकृति न जड़ है, न वृक्ष-वह भाषा में प्रकृति की लीला है।

  • किसी भी महान कलाकृति का अनुभव-वह चाहे कहानी में हो या महाकाव्य में-अपने पाठक को विस्मृति  के अँधेरे से स्मृति के आलोक में लौटाने का क्षण है।
  • देवता ईर्ष्या करते हैं मनुष्य से, इसलिए कि मनुष्य किसी भी बने-बनाये खेल से बाहर आ सकता हैदेवताओं की बनी-बनायी भूमिका होती है।

  • हम प्रायः लेखक के अकेले क्षणों की चर्चा तो करते हैं, कभी पाठक के एकान्त की बात नहीं करतेजिसके बिना वह कभी साहित्यिक कृति से साक्षात नहीं कर सकता था।
  • जो चीज़ेंहमें अपनी ज़िन्दगी को पकड़ने में मदद करती हैं, वे चीज़ें हमारी पकड़ के बाहर हैं। हम न उनके बारे में कुछ सोच सकते हैं, न किसी दूसरे को बता सकते हैं...
  • हमें समय के गुज़रने के साथ-साथ अपने लगावों औरवासनाओं को उसी तरह छोड़ते चलना चाहिए जैसे  साँप अपनी केंचुल छोड़ता है और पेड़ अपने पत्तों औरफलों का बोझ... जहाँ पहले प्रेम की पीड़ा वास करतीथी, वहाँ सिर्फ़ खाली गुफ़ा होनी चाहिए, जिसे समयआने पर संन्यासी और जानवर छोड़कर चले जाते हैं...
  • जीवन में अकेलेपन की पीड़ा भोगने का क्या लाभयदि हम अकेले में मरने का अधिकार अर्जित न कर सकें? किन्तु ऐसे भी लोग हैं जो जीवन भर दूसरों केसाथ रहने का कष्ट भोगते हैं, ताकि अन्त में अकेले न मरना पड़े...

  • हम अपने को सिर्फ़ अपनी सम्भावनाओं की कसौटीपर नाप सकते हैं। जिसने अपनी सम्भावनाओं को  आखिरी बूँद तक निचोड़ लिया हो, उसे मृत्यु के क्षण कोई चिन्ता नहीं करनी चाहिए...
  • कैसी विचित्र बात है, सुखी दिनों में हमें अनिष्ट की छाया सबसे साफ़ दिखाई देती है, जैसे हमें विश्वास न हो कि हम सुख के लिए बने हैं। हम उसे छूते हुए भी डरते हैं कि कहीं हमारे स्पर्श से वह मैला न हो जाए और इस डर से उसे भी खो देते हैं, जो विधाता ने हमारे हिस्से के लिए रखा था। दुःख से बचना मुश्किल है, पर सुख को खो देना कितना आसान है... 
  • जब हम अकेले सड़क पार करते हैं, तो खाली हाथ हवा में डोलता है, पुरानी छुअन की याद में उस अपाहिज की तरह, जिसे मौके-बेमौके अपने कटे अंग की याद आ जाती है-यह एक छोटी-सी मृत्यु है। लोग बहुत धीरे-धीरे मरते हैं...
  • जिसे हम पीड़ा कहते हैं, उसका जीने या मरने से कोई सम्बन्ध नहीं है। उसका धागा प्रेम से जुड़ा होता है, वह खिंचता है तो दर्द की लहर उठती है...
  • मैं जब अकेले में सोचता हूँ-यह मैं हूँ, यह क्षण मेरा है, यह मेरी जगह है; कोई मुझे इससे नहीं छीन सकता... तो एक गहरी राहत और ख़ुशी होती है-मैं स्वतन्त्र हूँ और पूरी तरह अपनी स्वतन्त्रता चख सकता हूँ। किन्तु जिस दिन कोई ऐसा क्षण आएगा, जब मैं यह सोच सकूँगा-कि न यह मैं हूँ, न यह क्षण मेरा है, न मेरी अपनी कोई जगह है, न मैं जीवित हूँ, न मनुष्य हूँ... इसलिए जो नहीं हूँ, उसे कौन मुझसे छीनकर ले जा सकता है? जिस दिन मैं यह सोचूँगा, उस दिन मैं मुक्त हो जाऊँगा, अपनी स्वतन्त्रता से मुक्त, जो अन्तिम गुलामी है। मुक्ति और स्वतन्त्रता में कितना महान अन्तर है...

निर्मल वर्मा का समस्त साहित्य संसार 

वाणी प्रकाशन से ...

आप अपनी प्रति यहाँ पाएँ 


चित्र  (c) गगन गिल 


‘बात अभी ख़त्म नहीं हुई’ की समीक्षा।

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समय पत्रिका
12 अप्रैल, 2018  


सामाजिक तानेबाने में पिरोई गयीं रंग-बिरंगी कहानियाँ
baat-abhi-khatm-nahi-hui
क्षमा शर्मा की कहानियां हमारी अपनी हैं, क्योंकि इनके हिस्से हमारी ज़िन्दगियों के हिस्से भी हैं.

क्षमा शर्मा की कहानियां अलग-अलग रंगों से जुड़कर बनी हैं। इनमें जिंदगी के वह रंग हैं जिनके बूते वह चहल-कदमी करती है। ये कहानियां नई हैं, ये कहानियां पुरानी हैं और ये कहानियां भविष्य की चुनौतियों को भी उजागर करती हैं। यह जीवन अनगिनत संघर्षों से भरा है तथा हर कदम पर कुछ नया देखने को मिलता है। लेखिका ने जीवन की आपाधापी, विचारों का संघर्ष, प्यार, ईर्ष्या आदि विषयों पर शब्दों की बेहतरीन बुनाई की है।

'बात अभी ख़त्म नहीं हुई'क्षमा शर्मा की कहानियों का रोचक संग्रह है जिसे वाणी प्रकाशन ने प्रकाशित किया है। ये कहानियां हंस, कादम्बनी, आउटलुक आदि में छप चुकी हैं।

क्षमा शर्मा की पहली कहानी 'दादी'दिल को छू जाती है। उन्होंने एक वृद्धा को केंद्र में रखकर इस कहानी को लिखा है। उसका पूरा परिवार है, लेकिन फिक्र करने वाला कोई नहीं। यह कहानी हमें बताती है कि वृद्ध उपेक्षित हैं। जब तक उनकी हड्डियों में जान है वे अपने परिवार के सदस्यों एवं समाज के लोगों के लिए कुछ ना कुछ योगदान करते हैं। उनका दिल मोम की तरह है जो भावनाओं की मामूली गर्माहट से पिघल जाता है। क्षमा शर्मा ने इस कहानी के जरिए वृद्धों की वास्तविकता को उजागर किया है। यह समाज को आईना दिखाती है। कहानी के आखिर में कहे गए संवाद सच्चाई को बयां करते हैं :''..तुम सब औरतें हो। रोज़ टीवी पर तुम्हारे अधिकारों के बारे में बताया जाता है मगर बूढ़ी होते ही मैं औरत नहीं रही।"

क्षमा शर्मा की कहानियां हमारी अपनी हैं, क्योंकि इनके हिस्से हमारी ज़िन्दगियों के हिस्से भी हैं। पात्र हमारी बोली बोलते हैं। यह हमारी कहानी है। यह कहानियां हर उस इंसान की है जो समाज में बसता है और भावनाएं रखता है।

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 क्षमा शर्मा पिछले चालीस सालों से कहानियाँ लिख रही हैं। उनकी कहानियों को एक तरह से भारत में स्त्रियों की पल-पल बदलती स्थितियों के दस्तावेज़ के रूप में देखा जाता है। वह बदलती स्त्री, उसके बदले तेवर को बार-बार रेखांकित करती हैं। किसी भी विमर्श या वाद की बेड़ी से मुक्त वह स्त्रियों ही नहीं पुरुषों की समस्याओं को भी मानवीय नज़र से देखती हैं। उनका मानना है कि किसी भी एक नज़रिए की झाडू से पूरे समाज को हाँका नहीं जा सकता।
पेशे से पत्रकार क्षमा ज़िन्दगी की हर क्षण बदलती तस्वीर को किसी चित्रकार की तरह पेश करती हैं। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित, इस पुस्तक में संकलित, उनकी ये कहानियाँ अनूठी शैली और ताज़गी से भरपूर हैं।

इस संग्रह की कहानी 'बात अभी खत्म नहीं हुई'ढेरों सवाल छोड़ जाती है। यह कहानी बेहद रोचक है। कहानी के पात्र सदानंद की अचानक मौत हो जाने के बाद एक बहुत बड़ा ट्विस्ट आता है। हालांकि हम शुरू से ही सभी पात्रों से अच्छी तरह परिचित हो जाते हैं और आनंद लेकर सभी घटनाओं को अपनी आंखों के सामने होता हुआ पाते हैं। यह एकतरफा प्यार की अधूरी दास्तान है।

यह कहानियाँ कभी न मिटने वाले कैनवस पर लिखी गई हैं। लेखिका ने ज़िन्दगी को करीब से देखा है, उसे महसूस किया है। तभी उन्होंने अपने शब्दों में एहसासों को पिरोया है जिसमें वे पूरी तरह सफल हुई हैं। महिला और पुरुष के संबंधों पर विस्तार से लिखा गया है। कहानियों को जीवन देना आसान नहीं होता क्योंकि संवाद और घटनाएँ जोड़कर कुछ अच्छा सजाया जा सकता है। क्षमा शर्मा ने आम जीवन की घटनाओं को सरलता से लिखा है। तभी ये सभी कहानियाँ हमसे दूर नहीं होतीं और हमें हर पल झंझोड़ती हैं। कहती हैं कि ज़िंदगी ऐसे भी है, वैसे भी है।

यह जरुरी नहीं कि हर सवाल का हल तुरंत निकल आये, लेकिन यह जरुर है कि बिना सवालों के ज़िन्दगी मुमकिन नहीं। जिंदगी है तो सवाल होंगे। ज़िन्दगी है तो कहानी होगी। सबसे अच्छी बात यह है कि ज़िन्दगी में रंग-बिरंगापन बेहद जरुरी है। क्षमा शर्मा की कहानियाँ जीवन के उन्हीं रंगों से बनी हैं जिनसे हमारा नाता है।

'बात अभी ख़त्म नहीं हुई
लेखिका : क्षमा शर्मा
प्रकाशक : वाणी प्रकाशन
पृष्ठ : 110





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25 अप्रैल, 2018, लखनऊ 

साभार : अमर भारती 

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 'बात अभी ख़त्म नहीं हुई'पुस्तक आप यहाँ पाएँ :- 







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आप इस पुस्तक को ई-बुक में भी पढ़ सकते हैं।





वाणी प्रकाशन समाचार | वर्ष :11, अंक : 132, मई 2018

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प्रिय पाठकों,

प्रस्तुत है वाणी प्रकाशन समाचार 

  वर्ष :11, अंक : 132, मई  2018  













नये शेखर की जीवनी | अविनाश मिश्र

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नये 
शेखर 
की जीवनी 
                                                                                  
                                                                                    अविनाश 
                                                                                        मिश्र


 वाणी प्रकाशन से शीघ्र प्रकाशित होने जा रहा है 
युवा लेखक अविनाश मिश्रका नया उपन्यास 

नये 
शेखर 
की 
जीवनी

आइये पढ़ते हैं किताब का एक अंश 

सत्ताएँकैसे भेदती हैं एक व्यक्ति के अन्तरतम को...

शेखरमूलतः कवि है और कभी-कभी उसे लगता है कि वह इस पृथ्वी पर आख़िर कवि है। यह स्थिति उसे एक व्यापक अर्थ में उस समूह का एक अंश बनाती है, जहाँ सब कुछ एक लगातार में ‘अन्तिम’ हो रहा है। वह इस यथार्थ में बहुत कुछ बार-बार नहीं, अन्तिम बार कह देना चाहता है। वह अन्तिम रूप से चाहता है कि सब अन्त एक सम्भावना में बदल जाएँ और सब अन्तिम कवि पूर्ववर्तियों में।

वह एक कवि के रूप में अकेला रह गया है, गलत नहीं है तो एक मनुष्य के रूप में अकेला रह गया हैएक साथ नया और प्राचीन। वह जानता है कि वह जो कहना चाहता है वह कह नहीं पा रहा है और वह यह भी जानता है कि वह जो कहना चाहता है उसे दूसरे कह नहीं पाएँगे

शेखर मूलतः कवि है और वर्षों से एक वक्तव्य देना चाहता रहा है। वह एक वक़्त से इस वक्तव्य को कविता-पंक्तियों की तरह अपने भीतर बुनता आया है। उसने कई वक्तव्यों को पढ़ा और सुना है और वह उन सब खामियों से वाकिहै जो उसने उन्हें पढ़ते और सुनते हुए अनुभव की हैं।

शेखर अपने एकान्तको इस वक्तव्य के रियासे भरा करता है। वह राह चलते-चलते कुछ बोलने लगता है। उसका आस-पास उस पर हँसता है।

शेखर मूलतः कवि है और वह चाहता है कि लोग उस पर ध्यान दें।

शेखर इस वक्तव्य में उस जीवन के विरुद्ध जाना चाहता है जिसमें आत्मा अनुपस्थित है।

शेखर एक आत्मवंचित खालीपन से बाहर आना चाहता है।

लेकिन शेखर की उम्र या कहें उसकी अयोग्यता ने अब तक उसे उन अवसरों से अलग बनायेरखा है जिनमें ख़ुद को एक वक्तव्य देने के लिए मुस्तैद करना पड़ता है।

शेखर मूलतः कवि है और यह जानता है कि उसकी भावनाएँउसके खिलाइस्तेमाल की जा सकती हैं

मानसून-दर-मानसून बरसते चले जा रहे हैं और शेखर अपनी उम्र, अपनी अयोग्यता और अपनी कविता-पंक्तियों के साथ ख़ुद में कहीं गुम होता जा रहा है।

उदासी एक बासी चीहै शेखर के समय में, जो बरों की तरह उसे दी गयीहै। लेकिन यह बरों से भी ज़्यादा बासी है। सब कुछ रंगीन और रौशन है, लेकिन शेखर उदास है। वह बाक़ी खबरें जानना चाहता है, लेकिन वे प्रत्येक अन्तराल में उत्पादों में बदल जाती हैं। बाक़ी ख़बरें कहीं नहीं हैं।

शेखर अबारों पर सो रहा हैएक बन्द कमरे में पानी पी-पीकर आईनों से झगड़ता हुआ। वह घुट रहा है, इसलिए खिड़कियाँखोल देना चाहता है, यह जानते हुए भी कि अब कुछ भी सुरक्षित नहीं समग्र मानचित्र में।

शेखर मूलतः कवि है और पुरस्कार नहीं यात्राएँ स्वीकार करना चाहता है। यात्राएँही बचा सकती हैं उसे। वह बहुत दूर तक गुम होना चाहता है। सर्वत्र प्रताड़ितों के भोज्य में से एक कौर उठाते हुए वह जानना चाहता है कि सत्ताएँकैसे भेदती हैं एक व्यक्ति के अन्तरतम को। वह यह भी जानना चाहता है कि क्या जल से भी ज़्यादा अर्थपूर्ण है कुछ जीवन में और वृक्षों से भी जो सर्वत्र उसके साथ रहेंगे और धूल से भी जो वह कहीं भी चला जाए, भूल से भी कभी उसे उसके साथियों से जुदा नहीं होने देगी।


अविनाश मिश्र
5 जनवरी 1986 को गाज़ियाबाद में जन्म। शुरुआती शिक्षा और जीवन उत्तर प्रदेश के कानपुर में। आगे की पढ़ाईलिखाईसंघर्ष और आजीविका के लिए साल 2004 से दिल्ली के आस-पास रहनवारी और बीच-बीच में दिल्ली से दूर प्रवास। कविताआलोचना और पत्रकारिता के इलाके में सक्रिय। कुछ प्रतिष्ठित मीडिया संस्थानों में सेवाएँ दीं और लगभग सभी प्रतिष्ठित प्रकाशन माध्यमों पर रचनाएँ और साहित्यिक पत्रकारिता से सम्बन्धित काम प्रकाशित।अज्ञातवास की कविताएँ’ शीर्षक से कविताओं की पहली किताब साहित्य अकादेमी से साल 2017 में आयी। इन दिनों आलोचना की एक किताब पर काम और विश्व कविता और अन्य कलाओं की पत्रिका सदानीरा’ का सम्पादन कर रहे हैं।  
यह उपन्यास विश्व के सबसे बड़े साहित्योत्सव जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल के प्रकाशन प्लेटफार्म जयपुर बुकमार्क द्वारा संचालित 'फर्स्ट बुक क्लब २०१७'में प्रकाशन के लिए चुना गया है। 

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 #शीघ्रप्रकाशय  #जून2018 
@VANI PRAKASHAN  #VANI 55 
 @ZEEJLF @JBMatJLF 

वाणी प्रकाशन समाचार | वर्ष :11, अंक : 133, जून 2018

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प्रिय पाठकों,

प्रस्तुत है वाणी प्रकाशन समाचार 

  वर्ष :11, अंक : 133, जून  2018  









#VaniSamachaar #June2018 

आमन्त्रण : हिन्दी महोत्सव 2018- ऑक्सफ़ोर्ड। लंदन। बिर्मिंघम

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||आमन्त्रण ||

नमस्कार !

आपको बताते हुए ख़ुशी हो रही है कि  हिन्दी भाषा की विविधतासौन्दर्यडिजिटल और अन्तराष्ट्रीय स्वरूप का उत्सव


हिन्दी महोत्सव 2018
यूनाइटेड किंगडम

के तीन शहरों में आयोजित किया जा रहा है।

वाणी फ़ाउण्डेशनयू.के. हिन्दी समितिवातायन  और कृति यू. के.

के संयुक्त तत्त्वावधान में

28 जून से 1 जुलाई 2018

तक चार दिवसीय चलने वाले हिन्दी महोत्सव   का आयोजन

ऑक्सफोर्डलन्दन  और बर्मिंघम

में सुनिश्चित किया गया है।

महोत्सव में भाषासाहित्यप्रवासी लेखनकविता और संगीतमीडिया और प्रकाशन जगत से सम्बन्धित विविध विषयों पर परिचर्चासम्मेलनकार्यशाला और सांस्कृतिक कार्यक्रमों  का आयोजन किया जाएगा। साथ ही यूनाइटेड किंगडम में हिन्दी पढ़ रहे छात्रों से विशेष संवाद भी किया जायेगा।


आप कार्यक्रम में सादर आमन्त्रित हैं।

कार्यक्रम की रूपरेखा संलग्न हैं।


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विनीत
अरुण माहेश्वरी
चेयरमैनवाणी फ़ाउण्डेशन

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पद्मेश गुप्त
यू.के. हिन्दी समिति के संस्थापक
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सुरेखा चौफ्ला
अध्यक्षयू.के. हिन्दी समिति

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डॉ. के.के. श्रीवास्तव
अध्यक्षकृति यू.के.

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तितिक्षा
महासचिवकृति यू.के.


​​*
दिव्या माथुर
संस्थापक, वातायन

विख्यात लेखक भीष्म साहनी की पुण्यतिथि पर पढ़िये उनकी लोकप्रिय कहानी | अमृतसर आ गया है

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(1915-2003)

विख्यात लेखक भीष्म साहनी की पुण्यतिथि पर पढ़िये उनकी लोकप्रिय कहानी
अमृतसर आ गया है
गाड़ी के डब्बे में बहुत मुसाफ़िर नहीं थे। मेरे सामने वाली सीट पर बैठे सरदार जी देर से मुझे लाम के क़िस्से सुनाते रहे थे। वह लाम के दिनों में बर्मा की लड़ाई में भाग ले चुके थे और बात-बात पर खी-खी करके हँसते और गोरे फ़ौजियों की खिल्ली उड़ाते थे। डब्बे में तीन पठान व्यापारी भी थे, उनमेंसे एक हरे रंग की पोशाक पहने हुए ऊपर वाली बर्थ पर लेटा हुआ था। वह आदमी बड़ा हँसमुख था और बड़ी देर से मेरे साथ वाली सीट पर बैठे एक दुबले-से बाबू के साथ उसका मज़ाक चल रहा था। वह दुबला बाबू पेशावर का रहने वाला जान पड़ता था क्योंकि किसी-किसी वक़्तवे आपस में पश्तों में बातें करने लगते थे। मेरे सामने दायीं ओर कोने में एक बुढ़िया मुँह-सिर ढाँपे बैठी थी और देर से माला जप रही थी। यही कुछ लोग रहे होंगे। सम्भव है दो-एक और मुसाफ़िर भी रहे हों। पर वे स्पष्टतः मुझे याद नहीं।

गाड़ी धीमी रफ़्तार से चली जा रही थी; और गाड़ी में बैठे मुसाफ़िरबतिया रहे थे, और बाहर गेहूँ के खेतों में हल्की-हल्की लहरियाँ उठ रही थीं, और मैं मन-ही-मन बड़ा खुश था क्योंकि मैं दिल्ली में होने वाला स्वतन्त्रता दिवस समारोह देखने जा रहा था।

उन दिनों के बारे में सोचता हूँ तो लगता है, हम किसी झुटपुटे में जी रहे थे। शायद समय बीत जाने पर अतीत का सारा व्यापार ही झुटपुटे में बीता जान पड़ता है। ज्यों-ज्यों भविष्य के पट खुलते जाते हैं, यह झुटपुटा और भी गहराता चला जाता है।

उन्हीं दिनों पाकिस्तान के बनाए जाने का ऐलान किया गया था और लोग तरह-तरह के अनुमान लगाने लगे थे कि भविष्य में जीवन की रूपरेखा कैसी होगी। पर किसी की भी कल्पना बहुत दूर तक नहीं जा पाती थी।

मेरे सामने बैठे सरदार जी बार-बार मुझसे पूछ रहे थे कि पाकिस्तान बन जाने पर जिन्ना साहिब बम्बई में ही रहेंगे या पाकिस्तान में जाकर बस जाएँगे, और मेरा हर बार यही जवाब होता, ‘‘बम्बई क्यों छोड़ेंगे, पाकिस्तान में आते-जाते रहेंगे, बम्बई छोड़ देने में क्या तुक है।’’ लाहौर और गुरदासपुर के बारे में अनुमान लगाए जा रहे थे कि कौन-सा शहर किस ओर जाएगा। मिल बैठने के ढंग में, गप-शप में, हँसी-मज़ाक़में कोई विशेष अन्तर नहीं आया था। कुछ लोग अपने घर छोड़कर जा रहे थे, जबकि अन्य लोग उनका मज़ाक़ उड़ा रहे थे। कोई नहीं जानता था कि कौन-सा कदम ठीक रहेगा और कौन-सा गलत! एक ओर पाकिस्तान बन जाने का जोश था तो दूसरी ओर हिन्दुस्तान के आज़ादहो जाने का जोश। जगह-जगह दंगे हो रहे थे और क़ौम-ए-आज़ादीकी तैयारियाँ भी चल रही थीं।

इस पृष्ठभूमि में लगता, देश आज़ाद हो जाने पर दंगे अपने आप बन्द हो जाएँगे। वातावरण के उस झुटपुटे में आज़ादी की सुनहरी धूल-सी उड़ रही थी। और साथ ही साथ अनिश्चय भी डोल रहा था, और इसी अनिश्चय की स्थिति में किसी-किसी वक़्त भावी रिश्तों की रूपरेखा झलक दे जाती थी।

शायद जेहलम का स्टेशन पीछे छूट चुका था, जब ऊपरवाली बर्थ पर बैठे पठान ने एक पोटली खोल ली और उसमें उबला हुआ मांस और नान-रोटी के टुकड़े निकाल-निकालकर अपने साथियों को देने लगा। फिर वह हँसी-मज़ाक़के बीच मेरी बगल में बैठे बाबू की ओर भी नान का टुकड़ा और मांस की बोटी बढ़ाकर खाने का आग्रह करने लगा था, ‘‘खा ले बाबू, ताकत जाएगी। हम जैसा हो जाएगा। बीवी भी तेरे साथ खुश रहेगी। खा ले दाल-खोर, तू दाल खाता है इसलिए दुबला है...’’

डिब्बे में लोग हँसने लगे थे। बाबू ने पश्तो में कुछ जवाब दिया और फिर मुस्कराता सिर हिलाता रहा।

इस पर दूसरे पठान ने हँसकर कहा, ‘‘ओ खंजीर के तुख्म, इधर तुम्हें कौन देखता है ए? हम तेरी बीवी को नईं बोलेंगा। ओ तू अमारे साथ बोटी तोड़। हम तेरे साथ दाल पिएँगा...’’

इस पर क़ह उठा, पर दुबला-पतला बाबू हँसता सिर हिलाता रहा और कभी-कभी दो शब्द पश्तो में भी कह देता।

‘‘ओ कितना बुरा बात ए, अम खाता ए और तू हमारा मुँह देखता ए...’’ सभी पठान मगन थे।

‘‘यह इसलिए नहीं लेता कि तुमने हाथ नहीं धोए हैं।’’ स्थूलकाय सरदार जी बोले और बोलते ही खी-खी करने लगे। अधलेटी मुद्रा में बैठे सरदारजी की आधी तोंद सीट के नीचे लटक रही थी, ‘‘तुम अभी सोकर उठे हो और उठते ही पोटली खोलकर खाने लग गये हो, इसलिए बाबू जी तुम्हारे हाथ से नहीं लेते, और कोई बात नहीं।’’ और सरदार जी ने मेरी ओर देखकर आँख मारी और फिर खी-खी करने लगे।

‘‘मांस नयी खात ए बाबू तो जाओ जनाना डब्बे में बैठो, इधर क्या करता ए?’’ फिर क़हक़हाउठा।

डब्बे में और भी मुसाफ़िरथे लेकिन पुराने मुसाफ़िरयही थे जो सफर शुरू होने पर गाड़ी में बैठे थे। बाकी मुसाफ़िरउतरते-चढ़ते रहे थे। पुराने मुसाफ़िरहोने के नाते ही उनमें एक तरह की बेतकल्लुफी आ गयी थी।

‘‘ओ इधर आकर बैठो। तुम हमारे साथ बैठो। आओ जालिम, किस्सा खानी की बातें करेंगे।’’

तभी किसी स्टेशन पर गाड़ी रुकी थी और नए मुसाफ़िरोंका रेला अन्दर आ गया था। बहुत से मुसाफिष्र एक साथ अन्दर घुसते चले आये थे।

‘‘कौन-सा स्टेशन है?’’ किसी ने पूछा।

‘‘वजीराबाद है शायद।’’ मैंने बाहर की ओर देखकर कहा। गाड़ी वहाँ थोड़ी देर के लिए खड़ी रही। पर छूटने से पहले एक छोटी-सी घटना घटी। एक आदमी साथ वाले डब्बे में से पानी लेने उतरा और नल पर जाकर पानी लोटे में भर रहा था। वह भागकर अपने डब्बे की ओर लौट आया। छलछलाते लोटे में से पानी गिर रहा था, लेकिन जिस ढंग से वह भागा था उसी ने बहुत कुछ बता दिया था। नल पर खड़े और लोग भी, ती चार आदमी रहे होंगे...इधर-उधर अपने-अपने डब्बे की ओर भाग गये थे। इस तरह घबराकर भागते लोगों को मैं देख चुका था। देखते ही देखते प्लेटफार्म खाली हो गया, मगर डब्बे के अन्दर अब भी हँसी-मज़ाक़चल रहा था।

‘‘कहीं कोई गड़बड़ है,’’ मेरे पास बैठे दुबले बाबू ने कहा।

कहीं कुछ था लेकिन कोई भी स्पष्ट नहीं जानता था। मैं अनेक दंगे देख चुका था इसलिए वातावरण में होने वाली छोटी तबदीली को भी भाँप गया था। भागते व्यक्ति, खटाक से बन्द होते दरवाज़े, घरों की छतों पर खड़े लोग, चुप्पी और सन्नाटा, सभी दंगों के चिद्द थे।

तभी पिछले दरवाज़े की ओट से, जो प्लेटफार्म की ओर न खुलकर दूसरी ओर खुलता था, हलका-सा शोर हुआ। कोई मुसाफ़िरअन्दर घुसना चाह रहा था।

‘‘कहाँ घुसा आ रहा है, नहीं है जगह! बोल दिया, जगह नहीं है।’’ किसी ने कहा।

‘‘बन्द करो जी दरवाज़ा। यों ही मुँह उठाए घुसे चले आते हैं...’’ आवाजेंआ रही थीं।

जितनी देर कोई मुसाफ़िरडब्बे के बाहर खड़ा अन्दर आने की चेष्टा करता रहे, अन्दर बैठे मुसाफ़िरउसका विरोध करते रहते हैं, पर एक बार जैसे-जैसे वह अन्दर आ जाए तो विरोध ख़त्म हो जाता है और वह मुसाफ़िरजल्दी ही डब्बे की दुनिया का निवासी बन जाता है; और अगले स्टेशन पर वही सबसे हपले बाहर खड़े मुसाफ़िरोंपर चिल्लाने लगता है, ‘‘नहीं है जगह, अगले डब्बे में जाओ...घुसे जाते हैं...।’’

दरवाज़े पर शोर बढ़ता रहा था। तभी मैले-कुचैले कपड़े और लटकती मूँछों वाला एक आदमी दरवाजेंमें से अन्दर दिखाई दिया। चीकट मैले कपड़े, जरूर कहीं हलवाई की दुकान करता होगा। वह लोगों की शिकायतों-आवाजों की ओर ध्यान दिए बिना दरवाज़े की ओर घूमकर बड़ा-सा काले रंग का सन्दूक अन्दर की ओर घसीटने लगा।

‘‘आ जाओ, आ जाओ, तुम भी चढ़ जाओ।’’ वह अपने पीछे किसी से कहे जा रहा था। तभी दरवाज़े में एक पतली सूखी-सी औरत नज़र आयी और उससे पीछे सोलह-सत्तरह बरस की साँवली-सी एक लड़की अन्दर आ गयी। लोग अभी भी चिल्लाए जा रहे थे। सरदारजी को कूल्हों के बल उठकर बैठना पड़ा।

‘‘बन्द करो जी दरवाजा, बिना पूछे चढ़ आते हैं, अपने बाप का घर समझ रखा है। मत घुसने दो जी, क्या करते हो; धकेल दो पीछे...’’ और लोग भी चिल्ला रहे थे।

वह आदमी अपना सामान अन्दर घसीटे जा रहा था और उसकी पत्नी, बेटी सँडास के दरवाज़े के साथ लगकर खड़ी थीं।

‘‘और कोई डब्बा नहीं मिला? औरत जात को भी यहाँ उठा लाया है?’’
वह आदमी पसीने से तर था और हाँफता हुआ सामान अन्दर घसीटे जा रहा था। सन्दूक के बाद रस्सियों से बँधी खाट की पाटियाँ अन्दर खींचने लगा।

‘‘टिकट है जी मेरे पास, मैं बेटिकट नहीं हूँ। लाचारी है। शहर में दंगा हो गया है। बड़ी मुश्किल से स्टेशन तक पहुँचा हूँ।’’ इस पर डब्बे में बैठे बहुत लोग चुप हो गये पर बर्थ पर बैठा पठान उचककर बोला, ‘‘निकल जाओ इधर से, देखता नईं इदर जगा नईं ए।’’
और पठान ने आव देखा न ताव, आगे बढ़कर ऊपर से ही उस मुसाफ़िरके लात जमा दी, पर लाज उस आदमी को लगने के बजाय उसकी पत्नी के कलेजे में लगी और वह वहीं हाय-हाय करती बैठ गयी।

उस आदमी के पास मुसाफिरोंके साथ उलझने के लिए वक़्तनहीं था। वह बराबर अपना सामान अन्दर घसीटे जा रहा था। पर डब्बे में मौन छा गया। खाट की पाटियों के बाद बड़ी-बड़ी गठरियाँ आयीं, इसके ऊपर बैठे पठान की सहन-क्षमता चुक गयी, ‘‘निकालो इसे, कौन है ये?’’ वह चिल्लाया। इस पर दूसरे पठान ने जो नीचे की सीट पर बैठा था, उस आदमी का सन्दूदरवाज़ेंमें से नीचे धकेल दिया जहाँ लाल वर्दी वाला एक कुली खड़ा सामान अन्दर पहुँचा रहा था।

उसकी पत्नी के चोट लगने पर कुछ मुसाफ़िरचुप हो गये थे। केवल कोने में बैठी बुढ़िया कुरलाए जा रही थी, ‘‘ए नेकबख्तो, बैठने दो, आ जा बेटी, तू मेरे पास आ-आ। जैसे तैसे सफर काट लेंगे। छोड़ो वे जालिमो, बैठने दो...’’

अभी आधा सामान ही अन्दर आ पाया होगा, जब सहसा गाड़ी सरकने लगी।
‘‘छूट गया! सामान छूट गया!’’ वह आदमी बदहवास-सा होकर चिल्लाया।
‘‘पिताजी सामान छूट गया!’’ सँडास के दरवाज़े के पास खड़ी लड़की सिर से पाँव तक काँप रही थी और चिल्लाए जा रही थी।

‘‘उतरो, नीचे उतरो,’’ वह आदमी चिल्लाया और आगे बढ़कर खाट की पाटियों और गठरियाँ बाहर फेंकते हुए दरवाज़े का डंडहरा पकड़कर नीचे उतरा गया। उसके पीछे उसकी भयाकुल बेटी और फिर उसकी पत्नी, कलेजे को दोनों हाथों से दबाए हाय-हाय करती नीचे उतर गयी।

‘‘बहुत बुरा किया है तुम लोगों ने, बहुत बुरा किया है।’’ बुढ़िया ऊँचा-ऊँचा बोल रही थी। ‘‘तुम्हारे दिल में दर्द मर गया है। छोटी-सी बच्ची उनके साथ थी, बेरहमो, तुमने बहुत बुरा किया है। धक्के देकर उतार दिया है।’’

गाड़ी सूने प्लेटफार्म को लाँघती आगे बढ़ गयी। डब्बे में व्याकुल-सी चुप्पी छा गयी। बुढ़िया ने बोलना बन्द कर दिया था। पठानों का विरोध कर पाने की हिम्मत नहीं हुई।

तभी मेरी बगल में बैठे दुबले बाबू ने मेरे बाबू पर हाथ रखकर कहा, ‘‘आग है। देखो, आग लगी है।’’

गाड़ी प्लेटफार्म छोड़कर आगे निकल आयी थी और शहर पीछे छूट रहा था। तभी शहर की ओर से उठते धुएँ के बादल और उनमें लपलपाते आग के शोले नज़र आने लगे थे।
दंगा हुआ है। स्टेशन पर भी लोग भाग रहे थे। कहीं दंगा हुआ है।

शहर में आग लगी थी। बात डब्बे भर के मुसाफिरोंको पता चल गयी और वे लपक-लपककर खिड़कियों में से आग का दृश्य देखने लगे।

जब गाड़ी शहर छोड़कर आगे बढ़ गयी तो डब्बे में सन्नाटा छा गया था। मैंने घूमकर डब्बे के अन्दर देखा, दुबले बाबू का चेहरा पीला पड़ गया था। और माथे पर पसीने की परत किसी मुर्दे के माथे की तरह चमक रही थी। मुझे लगा जैसे अपनी-अपनी जगह बैठे सभी मुसाफिरोंने अपने आस-पास बैठे लोगों का जायज़ा ले लिया है। सरदारजी उठकर मेरी सीट पर आ बैठे। नीचे वाली सीट पर बैठा पठान अपने दो साथी पठानों के साथ ऊपर वाली बर्थ पर चढ़ गया। यही क्रिया शायद रेलगाड़ी के अन्य डब्बों में भी चल रही थी। डब्बे में तनाव आ गया। लोगों ने बतियाना बन्द कर दिया। तीनों-के-तीनों पठान ऊपर वाली बर्थ पर एक साथ बैठे चुपचाप नीचे की ओर देखे जा रहे थे। सभी मुसाफिरों की आँखें पहले से ज्यादा खुली-खुली। ज़्यादा शंकित-सी लगीं। यही स्थिति सम्भवतः गाड़ी के सभी डब्बों में व्याप्त हो रही थी।

‘‘कौन-सा स्टेशन था यह?’’ डब्बे में किसी ने पूछा।

‘‘वजीराबाद,’’ किसी ने उत्तर दिया।

जवाब मिलने पर डब्बे में एक और प्रतिक्रिया हुई। पठानों के मन का तनाव फौरन ढीला पड़ गया, जबकि हिन्दू-सिख मुसाफिरोंकी चुप्पी और ज़्यादा गहरी हो गयी। एक पठान अपने वास्कट के जेब से नसवार की डिबिया निकालकर चढ़ाने लगा। बुढ़िया बराबर माला जपे जा रही थी। किसी-किसी वक्श्त उसके बुदबुदाते होंठ नज़र आते। लगता, उनमें से कोई खोखली-सी आवानिकल रही है।

अगले स्टेशन पर जब गाड़ी रुकी तो वहाँ भी सन्नाटा था। कोई परिन्दा तक नहीं फड़क रहा था। हाँ, एक भिश्ती, पीठ पर पानी की मशक लादे प्लेटफार्म लाँघकर आया और मुसाफिरोंको पानी पिलाने लगा। ‘‘लो, पियो पानी, पानी पियो,’’ औरतों के डब्बे में से औरतों और बच्चों के अनेक हाथ बाहर निकल आये थे।

बहुत मार-काट हुई है, बहुत लोग मरे हैं लगता था, वह इस मार-काट में अकेला पुण्य कमाने चला आया है।

गाड़ी सरकी तो सहसा खिड़कियों के पल्ले चढ़ाए जाने लगे। दूर-दूर तक पहियों की गड़गड़ाहट के साथ खिड़कियों के पल्ले चढ़ने की आवाआने लगी।

किसी अज्ञात आशंकावश दुबला बाबू मेरे पास वाली सीट पर से उठा और दो सीटों के बीच फर्श पर लेट गया। उसका चेहरा अब भी मुर्दे जैसा पीला हो रहा था। इस बर्थ पर बैठा पठान उसकी ठिठोली करने लगा, ‘‘...ओ...बेगैरत, तुम मर्द ए कि औरत ए? सीट पर से उठकर नीचे लेटता ए। तुम मर्द के नाम को बदनाम करता ए।’’ वह बोल रहा था और बार-बार हँसे जा रहा था। फिर वह पश्तों में कुछ कहने लगा। बाबू चुप बना लेटा रहा। अन्य सभी मुसाफिष्र चुप थे। डब्बे का वातावरण बोझिल बना हुआ था।

‘‘ऐसे आदमी को अम डब्बे में बैठने नहीं देगा। ओ बाबू, तुम अगले स्टेशन पर उतर जाओ और जनाना डब्बे में बैठो।’’

मगर बाबू की हाज़िरजवाबी अपने कण्ठ में सूख चली थी। हकलाकर चुप हो रहा। पर थोड़ी देर बार वह अपने आप उठकर सीट पर जा बैठा और देर तक अपने कपड़ों की धूल झाड़ता रहा। वह क्यों उठकर फर्श पर लेट गया था। शायद उसे डर था कि बाहर से गाड़ी पर पथराव होगा या गोली चलेगी, शायद इसी कारण खिड़कियों के पल्ले चढ़ाए जा रहे थे।
कुछ भी कहना कठिन था। मुमकिन है किसी एक मुसाफ़िरने किसी कारण से खिड़की का पल्ला चढ़ाया हो और उसकी देखा-देखी, बिना सोचे-समझे धड़ाधड़ खिड़कियों के पल्ले चढ़ाए जाने लगे हों।

बोझिल अनिश्चित-से वातावरण में सफर कटने लगा। रात गहराने लगी थी। डब्बे के मुसाफिष्र स्तब्ध और शंकित ज्यों-के-त्यों बैठे थे।

कभी गाड़ी की रफ़्तारसहसा टूटकर धीमी पड़ जाती तो लोग एक-दूसरे की ओ देखने लगते। कभी रास्ते में ही रुक जाती तो डब्बे के अन्दर का सन्नाटा और भी गहरा हो उठता। केवल पठान निश्चिन्त थे। हाँ, उन्होंने भी बतियाना छोड़ दिया था। क्योंकि उनकी बातचीत में कोई भी शामिल होने वाला न था।

धीरे-धीरे पठान ऊँघने लगे जबकि अन्य मुसाफ़िरफटी-फटी आँखों से शून्य में देखे जा रहे थे। बुढ़िया मुँह-सिर लपेटे, टाँगे सीट पर चढ़ाए, बैठी-बैठी सो गयी थी। ऊपरवाली बर्थ पर एक पठान ने, अधलेटे ही, कुर्ते के जेब में से काले मणकों की तसबीह निकाल ली और उसे धीरे-धीरे हाथ में चलाने लगा।

खिड़की के बाहर आकाश में चाँद निकल आया और चाँदनी में बाहर की दुनिया और भी अनिश्चित, और भी अधिक रहस्यमयी हो उठी। किसी-किसी वक्श्त दूर किसी ओर आग के शोले उठते नजश्र आते, कोई नगर जल रहा था। गाड़ी किसी वक़्तचिंघाड़ती हुई आगे बढ़ने लगती फिर किसी वक़्त उसकी रफ़्तार धीमी पड़ जाती और मीलों तक धीमी रफ़्तार से ही चलती रहती।

सहसा दुबला बाबू खिड़की में से बाहर देखकर ऊँची आवामें बोला, ‘‘हरबंसपुरा निकल गया है!’’ उसकी आवामें उत्तेजना थी, वह जैसे चीखकर बोला था। डब्बे के सभी लोग उसकी आवाजश् सुनकर चौंक गये। उसी वक्श्त डब्बे के अधिकांश मुसाफिरोंने मानो उसकी आवाको ही सुनकर करवट बदली।

‘‘खो बाबू, चिल्लाता क्यों ए?’’ तसबीहवाला पठान चौंककर बोला, ‘‘इधर उतरेगा तुम? जश्ंजीर खींचूँ?’’ और खी-खी करके हँस दिया। जाहिर है कि हरबंसपुरा की स्थिति से अथवा उसके नाम से अनभिज्ञ था।

बाबू ने कोई उत्तर नहीं दिया, केवल सिर हिला दिया और एक-आध बार पठान की ओर देखकर फिर खिड़की से बाहर झाँकने लगा।

डब्बे में फिर मौन छा गया। तभी इंजन ने सीटी दी और उसकी एकरस रफ़्तार टूट गयी। थोड़ी देर बाद खटाक का-सा शब्द हुआ, शायद गाड़ी ने लाइन बदली थी। बाबू ने झाँककर उस दिशा में देखा जिस ओर गाड़ी बढ़े जा रही थी।

‘‘शहर आ गया है।’’ वह फिर ऊँची आवामें चिल्लाया, ‘‘अमृतसर आ गया है!’’ उसने फिर से कहा और उछलकर खड़ा हो गया, और ऊपर वाली बर्थ पर लेटे पठान को सम्बोधन करके चिल्लाया, ‘‘ओ बे पठान के बच्चे! नीचे उतर! तेरी माँ की...नीचे उतर, तेरी पठान बनाने वाली की मैं...’’

बाबू चिल्लाने लगा था और चीख-चीखकर गालियाँ बकने लगा था। तसबीहवाले पठान ने करवट बदली और बाबू की ओर देखकर बोला, ‘‘ओ क्या ए बाबू? अमको कुछ बोला?’’

बाबू को उत्तेजित देखकर अन्य मुसाफ़िरभी उठ बैठे।

‘‘नीचे उतर, तेरी मैं...हिन्दू औरत को लात मारता है, हरामजादे, तेरी उस...’’

‘‘ओ बाबू, बक-बक नहीं करो। ओ खंजीर के तुख्म, गाली मत बको, अमने बोल दिया। हम तुम्हारा जवान खींच लेगा।

‘‘गाली देता है, मादर...!’’ बाबू चिल्लाया और उछलकर सीट पर चढ़ गया। वह सिर से पाँव तक काँप रहा था।

‘‘बस-बस,’’ सरदारजी बोले, ‘‘यह लड़ने की जगह नहीं है। थोड़ी रब का सफर बाकी है। आराम से बैठो।’’

‘‘तेरी मैं लात न तोड़ दूँ तो कहना, गाड़ी तेरे बाप की है!’’ बाबू चिल्लाया।

‘‘ओ अमने क्या बोला। सभी लोग उसको निकालता था; अमने बी निकाला। ये इदर हमको गाली देता ए। अम इसका जवान खींच लेगा।’’

बुढ़िया बीच में फिर बोल उठी, ‘‘वे जीण जोगयो, अराम नाल बैठो। वे रब्ब दियो बंदयो, कुज होश करो।’’

उसके होंठ किसी प्रेत के होंठों की तरह फड़फड़ाए जा रहे थे और उनमें से क्षीण-सी फुसफुसाहट सुनाई दे रही थी। बाबू चिल्लाए जा रहा था, ‘‘अपने घर में शेर बनता था। अब बोल, तेरी मैं उस पठान बनाने वाली की...’’

तभी गाड़ी अमृतसर के प्लेटफार्म पर रुकी। प्लेटफार्म लोगों से खचाखच भरा था। प्लेटफार्म पर खड़े लोग झाँक-झाँककर डब्बों के अन्दर देखने लगे। बार-बार एक ही सवाल पूछ रहे थे, पीछे क्या हुआ है? कहाँ का दंगा हुआ है?’’

आगे की कहानी पढ़ने के लिए इस लिंक पर क्लिक करें : 



वाणी प्रकाशन समाचार | वर्ष :11, अंक : 134, जुलाई 2018

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प्रिय पाठकों,

प्रस्तुत है वाणी प्रकाशन समाचार 

  वर्ष :11, अंक : 134, जुलाई  2018  









कालजयी कथाकार महाश्वेता देवी की पुण्यतिथि पर पढ़िये विशेष कहानी | ‘तारों तले अँधेरा’

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(1926-2016)


कालजयी कथाकार महाश्वेता देवी की पुण्यतिथि पर पढ़िये विशेष कहानी...

तारों तले अँधेरा


तारों तले अँधेराउपन्यास बांग्लादेश के मामूली परिवार की कहानी को अपने में समेटे हुए है। इस कहानी का मुख्य पात्र है विजय, जिससे माता-पिता को ढेरों आशाएँ हैं। पिता को लगता है जो वह अपने जीवन में नहीं कर पाये, उसे उनका बेटा विजय पूरा करेगा। बस, यहीं से शुरू होता है आशा-निराशाओं का दौर। माता-पिता की आशाओं, पारिवारिक कलह और स्वयं विजय की उम्मीदों के भार को लेकर चलती है यह कहानी-तारों तले अँधेरा!               


आधी रात को दरवाज़ेपर खटखटाहट हुई।

नींद में पहले तो मुझे ऐसा लगा कि भ्रम हुआ है। उसके बाद, मैंने साफ-साफ सुना कि कोई दरवाज़ें पर थाप दे रहा है और जाने कौन तो मेरा नाम ले-लेकर पुकार रहा है।
मुझे आश्चर्य हुआ। यहाँ मुझे इस ढंग से कौन पहचानता है?

मध्यप्रदेश की पंचवर्षीय योजना के तहत एक शिल्पकेन्द्र के इस सीमान्त अंचल में, मैं किसी सरकारी काम से आया था। पहले तो मुझे लगा था कि बांग्लादेश से छह सौ मील दूर, यह निर्वासन मुझसे बर्दाश्त नहीं होगा। जन्मों से परिचित कलकत्ता के लिए मेरा मन हमेशा खिचता रहेगा।

लेकिन जाने कैसे तो मैं इस जगह से प्यार कर बैठा। बेहद खूबसूरत, बेहद निर्जन जगह है यह। इसकी एकमात्र सम्पदा है, शाल पेड़ों का रिज़र्व फॉरेस्ट!

मैं कलकत्ता निवासी हूँ। नयी सेक्रेटरिएट बिल्डिंग से ऊँची कोई इमारत मैंने जीवन में नहीं देखी। यहाँ आकर, इन शाल पेड़ों की उन्नत-उदार महिमा ने मुझे पल भर में मुग्ध कर लिया। इन पेड़ों ने मुझे जीत लिया। ईषत्झूमते-लहराते, माटी की छाती से आसमान की ओर सिर उठाये देखते रहते हैं ये पेड़, यह देख-देखकर अक्सर मेरा मन किसी प्रसन्न उदारता से भर उठता है। वनस्पतियों के इस दल ने मुझे अपने ढेर-ढेर दुःख और आघात भूलने में मेरी मदद की है।

जाने कैसे तो यह जगह टूरिस्ट दफ्तर के भारत भ्रमण करेंपोस्टर की नज़र से छूट गया। अगर रेलवे की तरफ से इन सुन्दर-समुन्नत पेड़ों का पोस्टर बनता और कोयलाघाट स्ट्रीट कार्यालय पर लगता तथा दोपहर एक बजे लंच करने के लिए निकली हुई जनता उस पर जी भरकर पान की पीक फेंक-फेंककर उस पोस्टर को गन्दा कर देती, तो मुझे दुःख होता। ये तमाम पेड़ मानो महत् और बृहत्तर किसी उदार प्राणशक्ति के प्रतीक हों। उनकी अवमानना से मैं भी अपने को अपराधी महसूस करता।

उससे तो यही बेहतर हुआ। मन ही मन मैंने ही इस जगह को आविष्कार किया है, यह सोच-सोचकर मैं बेहद खुश हूँ। यह जगह भी यहीं थी, मैं भी था। जिस दिन हम दोनों मिले, उस दिन यहाँ की प्रकृति और अरण्य-सब कुछ का अथाह सौन्दर्य, एक परिपूर्ण अखण्ड रूप में मेरी नज़रों में भर उठा। यह भी एक किस्म का आविष्कार है, इस जगह को कोई नहीं जानता। यह जो मैं काम करते-करते आँखें उठाकर देखता हूँ, इन पेड़ों का उन्नत, महिमामय रूप देख पाता हूँ, बार-बार मेरा मन भी किसी अजानी उदारता से भर-भर उठता है, मानो यही अच्छा है, मानो यही ठीक है।

धीरे-धीरे यहाँ के लोगों से भी मेरी जान-पहचान हुई। जब मैं अख़बार लेने के लिए स्टेशन गया, स्टेशन-मास्टर ने खुद ही आगे बढ़कर मुझसे परिचय किया। एक दिन मुझे चाय पर भी बुलाया। उनसे परिचित होकर मुझे भी बेहद अच्छा लगा। शहर में किसी इनसान से दिल का रिश्ता जोड़ने में समय लगता है। यहाँ इस सुदीर्घ फुर्सत के समय और कुछ करने को नहीं होता। इसलिए यहाँ ये सब परिचय, ये सब मित्राता भी मूल्यवान लगती है।
स्टेशन मास्टर मेरा नाम जानते हैं।

लेकिन यह सिर्फ उन्हीं की आवाज़ नहीं है। कोई और भी परेशान लहजे में मुझे आवाज़ दे रहा है, "बादलदा! दरवाज़ाखोलो! बादलदा, दरवज़ाखोलो।"

दरवाज़ाखोलते ही, जो अन्दर दाखिल हुआ, उसे देखने के लिए मैंबिल्कुल तैयार नहीं था। वह कुमुद था! हमारे विजय का छोटा भाई, कुमुद!

कुमुद से आखिरी बार मैं आज से दो वर्ष पहले मिला था। दफ्तर से बदली का आदेश लेकर मैं बाहर निकल रहा था। कुमुद से भेंट होते ही मैंने शायद उससे कहा था-नयी जगह जा रहा हूँ। "और जैसा कि मैंने बहुत से लोगों से कहा, शायद कुमुद से भी कहा होगा-" फुर्सत मिलते ही चले आना। नयी जगह है, सैर के लिए आ जाना।खैर, अब मुझे याद नहीं।

क्या वही बात याद करके वह चला आया? लेकिन, ऐसा तो नहीं लगता। मेरे कुछ पूछने से पहले ही कुमुद भाँय-भाँय रो पड़ा।

उसने कहा, "जल्दी स्टेशन चलो, बादलदा, भइया ने खुदकुशी कर ली।"
"क्या कहा?"
"भइया ने खुदकुशी कर ली। तुम जल्दी स्टेशन चलो, बादलदा।"
"कौन विजय? विजय दास ने खुदकुशी कर ली?

कुमुद की ओर देखते हुए, यह असम्भव बात, मैंने दिमाग़ के सहारे समझने की कोशिश की। विजय दास! जिसे हम प्रॉमिथ्यूअस अनड्रोंड कहा करते थे। जो शख़्स दुःसाहसी प्रॉमिथ्यूअस की तरह ही आसमान से आग चुराकर समस्त जीवन को आलोकित करने के सपने देखता था, हम सबको भी दिखाता था,उसी विजय ने खुदकुशी कर ली? विजय का उन्नत माथा, सूखे स्वर्णाभ बालों का गुच्छा और बेचैन प्राणवन्त आँखें, मेरे मन में तस्वीर की तरह तैर रही थीं। आज वह तस्वीर एक बार फिर जीवन्त हो उठी। विजय ने क्या वाकई खुदकुशी कर ली?

मुझे विमूढ़ देखकर कुमुद ने मेरे पैरों को धकियाकर कहा, "चलो, बादलदा! देर मत करो। तुम्हारे पाँव पड़ता हूँ।"

जल्दी-जल्दी बदन पर कुर्ता डालकर मैं बाहर निकल पड़ा। कुमुद पूरे रास्ते रोता-रोता गया।

उसने कहा, "हम अच्छे-खासे आ रहे थे, भाई ने कोई गोलमाल नहीं किया। लेकिन अचानक जैसे ही बम्बई मेल गुज़री..."

छोटा-सा स्टेशन! स्टेशन की घड़ी में दो बजने में तीन मिनट बाकी था। इस समय बम्बई मेल पास करती है और फोर्टीन-अप अपनी चाल धीमी कर देती है। दोनों ट्रेनें जब पास करती हैं, तो गुम्-गुम् का ऐसा शोर गूँजता हैकि कितनी ही रातें मेरी नींद टूट गयी है। ट्रेनकी आवाज़ काफी दूर चले जाने के बाद भी रात की निःशब्दता उसके बाद भी, कितनी देर-देर तक काँपती हुई स्थिर हो आती थी और मुझे लगा कि इस ट्रेन के साथ, इस विलीयमान् शब्दों के साथ मेरा भी संगी होना तय था।

स्टेशन पर तेज़-तेज़ रोशनी जलती हुई!

स्टेशन मास्टर और कई एक कुली एक जगह को घेरे खड़े थे। मुझे देखकर स्टेशन मास्टर आगे बढ़ आये।

उन्होंने कहा, "देखिये, क्या काण्ड हो गया। आपका नाम लेते ही, ये भलेमानस आपको पहचान गये।"

कोई बात सुने बिना ही, मैं आगे बढ़ गया। विजय प्लेटफॉर्म पर लेटा हुआ था। उसकी वह स्वस्थ-सुन्दर देह! जिसे लेकर वह गर्व से सिर ऊँचा किये शान से घूमता-फिरता था, आज वही शरीर असहाय भंगिमा में प्लेटफॉर्म पर धूल-धूसरित पड़ी है, यह देखकर मुझे जबर्दस्त धक्का लगा। विजय इस मुद्रा में पड़ा रहेगा और मैं खड़ा-खड़ा देखता रहूँगा? ऐसा तो मैंने कभी नहीं सोचा था।

स्टेशन-मास्टर विवेचक व्यक्ति थे। उन्होंने विजय का समूचा शरीर कम्बल से ढँक दिया था। कच्चे-पक्के बालों से भरा सिर, एक बीभत्स कोण बनाता हुआ, एक ओर ढलका हुआ था। एक हाथ आँखों पर पड़ा हुआ! चारों तरफ थक्के-थक्के खून! खून इतना लाल होता है और कम्बल के रंग से इस ढंग से मिल जाता है, यह मैं नहीं जानता था।

विजय के उस हाथ की उँगलियों में, मैंने ऐसा कुछ देखा, मानो कोई असहाय गुहार, कोई पराजय या और भी कुछ दुर्बोध...मैं बता नहीं सकता! वे उँगलियाँ विजय के अनेक दिनों की, अनेक आशा-भंग की प्रतीक हों!

वह मंजर देखकर मेरे पाँव काँपते रहे। मुझे लगा, यह सबकुछ असम्भव है। किसी रात का दुःस्वप्न! मुझे इस रात के अँधेरे में आवाज़ देकर, मुझे बहला-फुसलाकर बुलाकर, यह दुःस्वप्न दिखा रहा है। विजय दास इस भंगिमा में पड़ा है, यह भला कैसे सम्भव है? मेरा मन हुआ, उसे आवाज़ दूँ और पूछूँ- "क्या-क्या चाहा था? बताओ, विजय, कौन-कौन-सी चाहत थी? इन हाथ की मुट्ठियों में क्या पकड़ना चाहते थे? जो चाहा था, वह नहीं मिला,इसीलिए यूँ हाथ फैला रखा है? या इस परिणति को रोकना चाहा था? इस परिणति का आह्नान करके, बाद में डर गये थे? क्या तुमने यह सोचा था कि आँखें ढँक लेने से, कुछ देखना नहीं पड़ेगा?

ऐसी रात किसी के भी जीवन में न आये। कहाँ थाना, कहाँ पुलिस-खबर देते-देते रात गुज़र गयी और सुबह हो गयी। डॉक्टर ने पहले तो सर्टिफिकेट देने से इनकार कर दिया। कुमुद ने जब विजय की मानसिक अस्वस्थता के बारे में कागजात दिखाये, तब जाकर वह राज़ी हुआ। सारे हंगामे निपटाकर, एक छोटे-से झरने के किनारे विजय का दाह-संस्कार करने में दोपहर ढल गयी।

कुमुद को साथ लेकर मैं एक काली चट्टान पर आ बैठा। आस-पास का परिवेश देखकर यह ख़्याल आया कि विजय दास की आखिरी शय्या लेने के लिए वाकई यह उपयुक्त माहौल है। जीवन की जो विस्तृति, जो सीमाहीन व्याप्ति सिर्फ सपना बनकर विजय को इशारा करती रही, मौत के बाद यह परिवेश मानो उसका थोड़ा-सा क्षतिपूरण कर गयी। चारों तरफ शाल वन, ऊपर अनन्त आकाश और आस-पास ऊबड़खाबड़ माटी के दिगन्तव्यापी प्रान्तर की उदारता और प्रशान्ति क्या विजय को ज़रा भी स्पर्श नहीं करेगी? उसे बूँद भर भी शान्ति नहीं देगी?

कुमुद को शान्त करने की जिम्मेदारी मेरी पत्नी ने ले ली। तीन दिन बाद उसे कलकत्ते की ट्रैन में सवार करा आया। ऐसा लगा, इस शोक में भी उसे थोड़ी-बहुत सान्त्वना मिली है।
ट्रेन छूटने से पहले कुमुद ने उदास मुस्कान बिखेरते हुए कहा, "पता है, बादल’ दा, अन्त में भाई भी कहीं से जी गया। ऐसा जीवन लेकर जीये जाना उसके लिए भी अभिशाप बन गया था। हम सब कुछ भी नहीं कर पाये...भाई को इस तरह देखते रहना भी...जो हुआ, अच्छा ही हुआ! बस, माँ के लिए ही फिक्र होती है। उन्हें तो यह सब समझाया नहीं जा सकता।"

विजय की माँ! उस शान्त, दुःखिनी महिला की याद हो आयी, जितनी तकलीफ होगी, उस माँ के दिल को ही होगी। उनकी छाती सूनी हो जाएगी।

उसके करीब छह महीने बाद, मैं छुट्टी लेकर कलकत्ता आया। विजय का ज़िक्र छेड़ते ही और एक जबर्दस्त धक्का लगा। कोई इनसान क्या इसी तरहख़त्म हो जाता है? कोई इनसान जब गैर-जरूरी हो जाता है, तो उसे इसी तरह निर्मम मज़ाक़ करना पड़ता है?
जिसने जो हमदर्दी जतायी वह सिर्फ मुँहज़ुबानी थी।

दिलीप ने कहा, "बड़े ही दुःख की बात है! लेकिन, विजय बहुत दिनों पहले ही खारिज हो चुका था। बहुत दिनों से तो वह सभा-समितियों में भी नज़र नहीं आता था। आजकल वह क्या कर रहा था, इसकी भी जानकारी नहीं मिलती थी। सच्ची, सोचने बैठो, तो कैसा तो अजीब लगता है। है कि नहीं?"

बूला राय और पिकपिक सोम वगैरह की खबर दिलीप ही लाया था।

उसने कहा, "वह क्या न्यूरोसिस का शिकार हो गया था? कितना ट्रैजिक हुआ। मिसेस सोम तो पहले पहचान ही नहीं पायीं। थोड़ा ठहरकर उन्होंने कहा-

फ्रस्ट्रेशन...कुण्ठा इनसान को क्या बना देती है, देखो!"

माधवी के पास मैं नहीं गया! उसके लिए तो विजय बहुत दिनों पहले ही खत्म हो गया था। ख़बर पाकर वह भी मुँहज़ुबानी हमदर्दी जताएगी और उसके बाद अपने बाल-बच्चों या पति की कोई सुविधा-असुविधा में व्यस्त होकर, विजय को भूल जाएगी-यह देखने का मेरा बिल्कुल मन नहीं था।

ख़बर पाकर दिल्ली से अरुण ने बेला को विजय की माँ के पास भेज दिया था। विजय के घर में बैठकर भी यही लगा कि इसी बीच रिक्तता भरने लगी थी। बेला और अरुण के बेटे को पाकर विजय की माँ को थोड़ी तसल्ली मिली थी। बातचीत से यह भी लगा कि अब वे सुजय की शादी के बारे में सोच रही हैं। वहाँ से उठकर आते ही मैंने देखा कि दीवार पर विजय के पिता की तस्वीर कि बगल में विजय की भी तस्वीर झूल रही थी।

यानी विजय भी तस्वीर बन गया। उसके अन्दर की आग, वह मन-प्राण की प्यास, ज़िन्दगी को मुट्ठी में पकड़े रहने का आग्रहसबकुछ क्या इतना ही कमज़ोरथा?  इसीलिए सब झूठ पड़ गया?

सिलेक्ट की मीटिंग में अब कोई दूसरा व्यक्ति! किसी नयी प्रतिभा को लेकर सिलेक्ट के औरत-मर्दों में गहमागहमी! वहाँ मेरे लिए प्रमाण-पत्र किसी दिन भी नहीं था। इसके बावजूद एक दिन मैं कॉफी हाउस चला गया। मैंने देखा, वहाँ का परिवेश वैसा का वैसा ही था। मेज़ पर घिरे बैठेलड़के-लड़कियाँ आज भी बहसबाजी में मुखर थे। मेरा यह जानने का मन हो आया कि ये लोग अब किन बातों पर चर्चा-परिचर्चा-बहसबाज़ीकरते हैं।

कॉफी की प्याली पर मलाई की झीनी पर्त जमी हुई। हवा में सिगरेट के धुएँ के जाल उड़ते हुए। मैंने देखा किसी तरुण लड़के को घेरे हुए, कुछेक लड़के-लड़कियाँ बातचीत में मुखर थे। वह लड़का कभी ईषत् हँस पड़ता था, कभी अपने बालों में उँगलियाँ फेरते हुए, बातचीत के बीच-बीच में दो-एक मन्तव्य उछाल देता था। मैंने यह भी देखा कि कोई एक लड़की विस्मय-विमुग्ध निगाहों से उस लड़के को निहारे जा रही है। वह लड़का, वह लड़की, वह परिवेशसबकुछ मेरे जाने-पहचाने थे। वह मंज़र देखते-देखते अन्दर ही अन्दर मैंने कहीं दर्द महसूस किया।

वह सब देखते-देखते मुझे विजय की याद हो आयी। यहाँ विजय को क्या, किसी ने याद रखा है? इस कॉफी हाउस ने इतने सालों में जाने कितने ही विजय दास को देखा है। यहाँ, इन सब लड़के-लड़कियों के बीच कितने ही विजय दास, कितनी प्रतिभा नयी-नयी चर्चा का विषय बनीं और फिर खारिज हो गयीं। सन् उन्नीस सौ अड़तालीस का विजय दास क्या उन लोगों को याद है? जब यहाँ की बत्तियाँ गुल हो जाती हैं, जब थके हुए जमादार फ़र्श और मेज़ पर झाड़ू लगाकर जली हुई सिगरेटें इकट्ठी करते हैं, जब बैरे टोकरी-टोकरी भरकर कप-डिश धो-धोकर रखते सजाते हैं, तब क्या इस हॉल-कमरे को कभी किसी विजय दास की याद आती है? या किसी कवि की वह बात, सिर्फ कविता भर है?

I feel like one, who treads alone
Some banquet hall deserted,
Whose lights are fled,
Whose garlands dead,
And all but he deserted—

इन सब यादगारों में भी क्या उन लोगों को विजय की याद नहीं आती?

मैं वापस लौट आया। लेकिन विजय को भूल नहीं पाया। किसी दिन विजय जानता था, इसलिए हमने भी जाना था कि इस समूची पृथ्वी की सृष्टि हुई है, विजय की अनुभूति में, विजय की उपलब्धि में स्वीकृति पाने के लिए। अपने अलावा, विजय को चाँद-सूरज तक नज़र नहीं आता था।

वही विजय कैसे तो धीरे-धीरे खारिज हो गया। दुनिया छोड़कर जाने के बहुत पहले ही, दुनिया ने उसे छोड़ दिया था। दुनिया की नज़रों में बहुत पहले ही विजय मर चुका था। इसीलिए उसकी देह की मृत्यु, सभी लोग इतने निर्विकार ढंग से ले पाये।

जब मैं अपने कर्मस्थल में लौट रहा था, तक ट्रेनके पहिये-पहिये में ढेर-ढेर बातें, ढेर-ढेर शब्द मुखर होकर, टुकड़े-टुकड़े ढंग से बिखरती रही। उस वक्त विजय के बारे में सोचते-सोचते मैंने चकित होकर देखा, कि मेरी नज़रें कॉफी हाउस में देखे हुए उस जवान लड़के की तरफ टिकी हुई हैं। मैं किसके बारे में सोच रहा हूँ? मैंने अपने मन को समझने की कोशिश की। मुझे लगा यह लड़का भी उस परिवेश और भक्त-मित्रों की स्तुति-प्रशंसा में अपने को नये सिरे से जान रहा है। वह अपने को उपलब्ध कर रहा है! उसके भी मन में उच्चाशा और स्वप्न-कामनाओं का रंग खिल रहा हैधीरे-धीरे! अनजाने में! वह भी सबको पीछे छोड़कर, सबकुछ को लाँघकर, अपने को देखना चाहेगा।

यह सब सोचते हुए मन में फिर कहीं दर्द जाग उठा! उसके प्रति ममता हो आयी! विजय दास जैसे लोग कभी, किसी दिन काम नहीं आते, लेकिन जब भी उनकी याद आएगी, उनके लिए अफसोस नहीं होगा? उसे प्यार नहीं करूँगा?

उन जैसों को प्यार किये बिना रहा कैसे जा सकता है? जब भी विजय को याद करूँगा, जैसे अभी कर रहा हूँ, उसे याद करते हुए उसके प्रति ममता और प्यार के साथ प्रगाढ़ दर्द नहीं उमड़ेगा?

विजय की ज़ुबानी बहुत बार सुनी हुई उस कविता के माध्यम से उसे याद करूँगा।

To remember, with love
To remember, with tears.

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कथाकार मुंशी प्रेमचन्द जी के जन्मदिवस पर पढ़िये विशेष कहानी | ‘गुल्ली-डण्डा’

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(1880-1936)

कथाकार मुंशी प्रेमचन्द जी के जन्मदिवस पर पढ़िये विशेष कहानी...

गुल्ली-डण्डा

हमारे अंग्रेज़ीदाँ दोस्त मानें या न मानें, मैं तो यही कहूँगा कि गुल्ली-डण्डा सबखेलों का राजा है। अब भी कभी लड़कों को गुल्ली-डण्डा खेलते देखता हूँ, तो जीलोट-पोट हो जाता है कि इनके साथ जाकर खेलने लगूँ। न लॉन की जरूरत, कोर्ट की, न नेट की, न थापी की। मजे से किसी पेड़ की एक टहनी काट ली,गुल्ली बना ली, और दो आदमी भी आ गये; तो खेल शुरू हो गया। विलायतीखेलों में सबसे बड़ा ऐब है कि उनके सामान महँगे होते हैं। जब तक कम-से-कमएक सैकड़ा न खर्च कीजिए, खिलाड़ियों में शुमार ही नहीं हो सकता। यहगुल्ली-डण्डा है कि बिना हर्र-फिटकरी के चोखा रंग देता है; पर हम अंग्रेजी चीजोंके पीछे ऐसे दीवाने हो रहे हैं कि अपनी सभी चीजों से अरुचि हो गयी है। हमारेस्कूलों में हरेक लड़के से तीन-चार रुपये सालाना केवल खेलने की फीस ली जातीहै। किसी को यह नहीं सूझता कि भारतीय खेल खेलायें; जो बिना दाम-कौड़ीके खेले जाते हैं। अंग्रेजी खेल उनके लिए है, जिनके पास धन है। गरीब लड़कोंके सिर क्यों यह व्यसन मढ़ते हो। ठीक है, गुल्ली से आँख फूट जाने का भयरहता है। तो क्या क्रिकेट से सिर फूट जाने, तिल्ली फट जाने, टाँग टूट जाने काभय नहीं रहता ? अगर हमारे माथे में गुल्ली का दाग आज तक बना हुआ है,तो हमारे कई दोस्त ऐसे भी हैं, जो थापी को बैसाखी से बदल बैठे। ख़ैर, यहअपनी-अपनी रुचि है। मुझे गुल्ली ही सब खेलों से अच्छी लगती है और बचपनकी मीठी स्मृतियों में गुल्ली ही सबसे मीठी है। वह प्रातःकाल घर से निकलजाना, वह पेड़ पर चढ़कर टहनियाँ काटना और गुल्ली-डण्डे बनाना, वह उत्साह,वह लगन, वह खिलाड़ियों के जमघटे, वह पदना और पदाना; वह लड़ाई-झगड़े,वह सरल स्वभाव, जिसमें छूत-अछूत, अमीर-गरीब का बिल्कुल भेद न रहता था,जिसमें अमीराना चोचलों की, प्रदर्शन की, अभिमान की गुंजाइश ही न थी, यहउसी वक्त भूलेगा जब...घरवाले बिगड़ रहे हैं, पिताजी चौके पर बैठे वेग सेरोटियों पर अपना क्रोध उतार रहे हैं, अम्माँ की दौड़ केवल द्वार तक है, लेकिनउनकी विचारधारा में मेरा अन्धकारमय भविष्य टूटी हुई नौका की तरह डगमगारहा है, और मैं हूँ कि पदाने में मस्त हूँ, न नहाने की सुधि है, न खाने की।गुल्ली है तो जरा-सी; पर उसमें दुनिया भर की मिठाइयों की मिठास और तमाशोंका आनन्द भरा हुआ है।

मेरे हमजोलियों में एक लड़का गया नाम का था। मुझसे दो-तीन साल बड़ाहोगा। दुबला, लम्बा, बन्दरों की-सी लम्बी-लम्बी पतली-पतली उँगलियाँ, बन्दरोंकी-सी ही चपलता, वही झल्लाहट। गुल्ली कैसी हो, उस पर इस तरह लपकताथा; जैसे छिपकली कीड़ों पर लपकती है। मालूम नहीं उसके माँ-बाप थे या नहीं,कहाँ रहता था, क्या खाता था; पर था हमारे गुल्ली-क्लब का चैम्पियन। जिसकीतरफ वह आ जाय, उसकी जीत निश्चित थी ! हम सब उसे दूर से आते देख,उसका दौड़कर स्वागत करते थे और उसे अपना गोइयाँ बना लेते थे।

एक दिन हम और गया दो ही खेल रहे थे। वह पदा रहा था, मैं पद रहाथा; मगर कुछ विचित्र बात है कि पदाने में हम दिन भर मस्त रह सकते हैं,पदना एक मिनट का भी अखरता है। मैंने गला छुड़ाने के लिए सब चालें चलीं,जो ऐसे अवसर पर शास्त्र-विहित न होने पर भी क्षम्य हैं, लेकिन गया अपना दाँव लिए बगैर मेरा पिण्ड न छोड़ता था।
अनुनय-विनय का कोई असर न हुआ। मैं घर की ओर भागा।

गया ने मुझे दौड़कर पकड़ लिया और डण्डा तानकर बोला-मेरा दाँव देकर जाओ। पदाया तो बड़े बहादुर बनके, पदने की बेर क्यों भागे जाते हो ?

तुम दिन भर पदाओ तो मैं दिन भर पदता रहूँ ?’
हाँ, तुम्हें दिन भर पदना पड़ेगा।
न खाने जाऊँ न पीने जाऊँ ?’
हाँ, मेरा दाँव दिये बिना कहीं नहीं जा सकते।
मैं तुम्हारा गुलाम हूँ ?’
हाँ, मेरे गुलाम हो।
मैं घर जाता हूँ, देखूँ मेरा क्या कर लेते हो ?’
घर कैसे जाओगे, कोई दिल्लगी है ? दाँव दिया है, दाँव लेंगे।
अच्छा, कल मैंने तुम्हें अमरूद खिलाया था। वह लौटा दो।
वह तो पेट में चला गया।
निकालो पेट से। तुमने क्यों खाया मेरा अमरूद ?’
अमरूद तुमने दिया, तब मैंने खाया। तुमसे माँगने न गया था।
जब तक मेरा अमरूद न दोगे, मैं दाँव न दूँगा।

मैं समझता था, न्याय मेरी ओर है। आखिर मैंने किसी स्वार्थ से ही उसेअमरूद खिलाया होगा। कौन निःस्वार्थ किसी के साथ सलूक करता है। भिक्षा तकतो स्वार्थ के लिए ही देते हैं। जब गया ने अमरूद खाया, तो फिर उसे मुझसेदाँव लेने का क्या अधिकार है ? रिश्वत देकर तो लोग खून पचा जाते हैं। यहमेरा अमरूद यों ही हजम कर जायेगा ? अमरूद पैसे के पाँच वाले थे, जो गयाके बाप को भी नसीब न होंगे। यह सरासर अन्याय था।
गया ने मुझे अपनी ओर खींचते हुए कहा-मेरा दाँव देकर जाओ, अमरूद-
समरूद मैं नहीं जानता।

मुझे न्याय का बल था। वह अन्याय पर डटा हुआ था। मैं हाथ छुड़ाकरभागना चाहता था। वह मुझे जाने न देता था ! मैंने गाली दी; उसने उससे कड़ीगाली दी, और गाली नहीं, दो-एक चाँटा जमा दिया। मैंने उसे दाँत काट लिया।उसने मेरी पीठ पर डण्डा जमा दिया। मैं रोने लगा। गया मेरे इस अस्त्र कामुकाबला न कर सका। भागा। मैंने तुरन्त आँसू पोंछ डाले, डण्डे की चोट भूलगया और हँसता हुआ घर में जा पहुँचा ! मैं थानेदार का लड़का एक नीच जातके लौंडे के हाथों पिट गया, यह मुझे उस समय भी अपमानजनक मालूम हुआ;लेकिन घर में किसी से शिकायत न की।

उन्हीं दिनों पिताजी का वहाँ से तबादला हो गया। नई दुनिया देखने की खुशीमें ऐसा फूला कि अपने हमजोलियों से बिछुड़ जाने का बिल्कुल दुःख न हुआ।पिताजी दुःखी थे। यह बड़ी आमदनी की जगह थी। अम्माँजी भी दुःखी थीं, यहाँसब चीजें सस्ती थीं, और मुहल्ले की स्त्रियों से घराव-सा हो गया था, लेकिन मैंमारे खुशी के फूला न समाता था। लड़कों से जीट उड़ा रहा था, वहाँ ऐसे घरथोड़े ही होते हैं। ऐसे-ऐसे ऊँचे घर हैं कि आसमान से बातें करते हैं। वहाँ केअंग्रेजी स्कूल में कोई मास्टर लड़कों को पीटे, तो उसे जेहल हो जाय। मेरे मित्रोंकी फैली हुई आँखें और चकित-मुद्रा बतला रही थीं कि मैं उनकी निगाह मेंकितना ऊँचा उठ गया हूँ। बच्चों में मिथ्या को सत्य बना लेने की वह शक्ति है,जिसे हम, जो सत्य को मिथ्या बना लेते हैं, क्या समझेंगे। उन बेचारों को मुझसेकितनी स्पर्द्धा हो रही थी। मानो कह रहे थेμतुम भाग्यवान हो भाई, जाओ हमेंतो इस ऊजड़ ग्राम में जीना भी है और मरना भी।

बीस साल गुजर गये। मैंने इंजीनियरी पास की और उसी जिले का दौराकरता हुआ, उसी कस्बे में पहुँचा और डाकबँगले में ठहरा। उस स्थान को देखतेही इतनी मधुर बाल-स्मृतियाँ हृदय में जाग उठीं कि मैंने छड़ी उठाई और कस्बेकी सैर करने निकला। आँखें किसी प्यासे पथिक की भाँति बचपन के उनक्रीड़ा-स्थलों को देखने के लिए व्याकुल हो रही थीं; पर उस परिचित नाम केसिवा वहाँ और कुछ परिचित न था। जहाँ खँडहर था। वहाँ पक्के मकान खड़ेथे। जहाँ बरगद का पुराना पेड़ था; वहाँ अब एक सुन्दर बगीचा था। स्थान काकाया-पलट हो गया था। अगर उसके नाम और स्थिति का ज्ञान न होता, तोमैं इसे पहचान भी न सकता। बचपन की संचित और अमर स्मृतियाँ बाँहें खोलेअपने उन पुराने मित्रों से गले मिलने को अधीर हो रही थीं; मगर वह दुनियाबदल गयी थी। ऐसा जी होता था कि उस धरती से लिपटकर रोऊँ और कहूँ,तुम मुझे भूल गयीं। मैं तो अब भी तुम्हारा वही रूप देखना चाहता हूँ।

 सहसा एक खुली हुई जगह में मैंने दो-तीन लड़कों को गुल्ली-डण्डा खेलतेदेखा। एक क्षण के लिए मैं अपने को बिल्कुल भूल गया। भूल गया कि मैं एकऊँचा अफसर हूँ, साहबी ठाठ में, रौब और अधिकार के आवरण में।जाकर एक लड़के से पूछा-क्यों बेटे, यहाँ कोई गया नाम का आदमी रहताहै?

एक लड़के ने गुल्ली-डण्डा समेटकर सहमे हुए स्वर में कहा-कौन गया ?गया चमार?
मैंने यों ही कहा-हाँ-हाँ, वही। गया नाम का कोई आदमी है तो। शायद वही हो।

हाँ, है तो।
जरा उसे बुलाकर ला सकते हो?’
लड़का दौड़ा हुआ गया और एक क्षण में एक पाँच हाथ के काले देव कोसाथ लिए आता दिखाई दिया। मैं दूर ही से पहचान गया। उसकी ओर लपकनाचाहता था कि उसके गले लिपट जाऊँ; पर कुछ सोचकर रह गया। बोला-कहोगया, मुझे पहचानते हो?
गया ने झुककर सलाम किया-हाँ मालिक, भला पहचानूँगा क्यों नहीं ?आप मजे में रहे?
बहुत मजे में। तुम अपनी कहो?’
डिप्टी साहब का साईस हूँ।
मतई, मोहन, दुर्गा यह सब कहाँ हैं? कुछ खबर है?’
मतई तो मर गया, दुर्गा और मोहन दोनों डाकिये हो गये हैं, आप?’
मैं तो जिले का इन्जीनियर हूँ?’
सरकार तो पहले ही बड़े जहीन थे।
अब कभी गुल्ली-डण्डा खेलते हो?’

गया ने मेरी ओर प्रश्न भरी आँखों से देखा-अब गुल्ली-डण्डा क्या खेलूँगासरकार, अब तो पेट के धंधे से छुट्टी नहीं मिलती।

आओ, आज हम तुम खेलें। तुम पदाना, हम पदेंगे। तुम्हारा एक दाँव हमारेऊपर है। वह आज ले लो।

गया बड़ी मुश्किल से राजी हुआ। वह ठहरा टके का मजदूर, मैं एक बड़ाअफसर। हमारा और उसका क्या जोड़ ? बेचारा झेंप रहा था; लेकिन मुझे भीकुछ कम झेंप न थी; इसलिए नहीं कि मैं गया के साथ खेलने जा रहा था; बल्किइसलिए कि लोग इस खेल को अजूबा समझकर इसका तमाशा बना लेंगे औरअच्छी-खासी भीड़ लग जायेगी। उस भीड़ में वह आनन्द कहाँ रहेगा; पर खेलेबगैर तो रहा नहीं जाता था। आखिर निश्चय हुआ कि दोनों जने बस्ती से दूरजाकर एकान्त में खेलें। वहाँ कौन कोई देखनेवाला बैठा होगा। मजे से खेलेंगेऔर बचपन की उस मिठाई को खूब रस ले-लेकर खायेंगे। मैं गया को लेकरडाकबँगले पर आया और मोटर में बैठकर दोनों मैदान की ओर चले। साथ मेंएक कुल्हाड़ी ले ली। मैं गंभीर भाव धारण किये हुए था, लेकिन गया इसे अभीतक मजाक ही समझ रहा था। फिर भी उसके मुख पर उत्सुकता या आनन्द का कोई चिद्द न था। शायद वह हम दोनों में जो अन्तर हो गया था, वह सोचने मेंमगन था।

मैंने पूछा-तुम्हें कभी हमारी याद आयी थी गया ? सच कहना।गया झेंपता हुआ बोला-मैं आपको क्या याद करता हुजूर, किस लायकहूँ। भाग में आपके साथ कुछ दिन खेलना बदा था, नहीं मेरी क्या गिनती।

मैंने कुछ उदास होकर कहा-लेकिन मुझे तो बराबर तुम्हारी याद आतीथी। तुम्हारा वह डण्डा, जो तुमने तानकर जमाया था, याद है न ?

गया ने पछताते हुए कहा-वह लड़कपन था सरकार, उसकी याद नदिलाओ।

वाह ! वह मेरे बाल-जीवन की सबसे रसीली याद है। तुम्हारे उस डण्डेमें जो रस था, वह तो अब न आदर-सम्मान में पाता हूँ, न धन में। कुछ ऐसीमिठास थी उसमें कि आज तक उससे मन मीठा होता रहता है।

इतनी देर में हम बस्ती से कोई तीन मील निकल आये हैं। चारों तरफसन्नाटा है। पश्चिम की ओर कोसों तक भीमताल फैला हुआ है, जहाँ आकर हमकिसी समय कमल के पुष्प तोड़ ले जाते थे और उसके झुमके बनाकर कानों मेंडाल लेते थे। जेठ की सन्ध्या केसर में डूबी चली आ रही है। मैं लपककर एकपेड़ पर चढ़ गया और एक टहनी काट लाया। चटपट गुल्ली-डण्डा बन गया।

खेल शुरू हो गया। मैंने गुच्ची में गुल्ली रखकर उछाली। गुल्ली गया केसामने से निकल गयी। उसने हाथ लपकाया जैसे मछली पकड़ रहा हो। गुल्लीउसके पीछे जाकर गिरी। यह वही गया है, जिसके हाथों में गुल्ली जैसे आप-ही-आपजाकर बैठ जाती थी। वह दाहिने-बायें कहीं हो, गुल्ली उसकी हथेलियों में हीपहुँचती थी। जैसे गुल्लियों पर वशीकरण डाल देता हो। नई गुल्ली, पुरानी गुल्ली,छोटी गुल्ली, बड़ी गुल्ली, नोकदार गुल्ली, सपाट गुल्ली, सभी उसे मिल जाती थी।जैसे उसके हाथों में कोई चुंबक हो, जो गुल्लियों को खींच लेता हो, लेकिन आजगुल्ली को उससे प्रेम नहीं रहा। फिर तो मैंने पदाना शुरू किया। मैं तरह-तरहकी धाँधलियाँ कर रहा था। अभ्यास की कसर बेईमानी से पूरी कर रहा था।हुच जाने पर भी डण्डा खेले जाता था; हालाँकि शास्त्र के अनुसार गया कीबारी आनी चाहिए थी। गुल्ली पर जब ओछी चोट पड़ती और वह जरा दूर परगिर पड़ती, तो मैं झटपट उसे खुद उठा लेता और दोबारा टाँड़ लगाता। गयायह सारी-बे-कायदगियाँ देख रहा था, पर कुछ न बोलता था, जैसे उसे वह सबकायदे-कानून भूल गये। उसका निशाना कितना अचूक था। गुल्ली उसके हाथ सेनिकलकर टन-से डण्डे में आकर लगती थी। उसके हाथ से छूटकर उसका कामथा डण्डे से टकरा जाना; लेकिन आज वह गुल्ली डण्डे में लगती ही नहीं। कभीदाहिने जाती है, कभी बायें, कभी आगे, कभी पीछे।आधा घण्टे पदाने के बाद एक बार गुल्ली डण्डे में आ लगी। मैंने धाँधलीकी, गुल्ली डण्डे में नहीं लगी, बिल्कुल पास से गयी; लेकिन लगी नहीं।गया ने किसी प्रकार का असन्तोष न प्रकट किया।न लगी होगी।

डण्डे में लगती तो क्या मैं बेईमानी करता ?’
नहीं भैया, तुम भला बेईमानी करोगे !

बचपन में मजाल था, कि मैं ऐसा घपला करके जीता बचता। यही गयागरदन पर चढ़ बैठता; लेकिन आज मैं उसे कितनी आसानी से धोखा दिये चलाजाता था। गधा है ! सारी बातें भूल गया।

सहसा गुल्ली फिर डण्डे में लगी और इतने जोर से लगी जैसे बन्दूक छूटीहो। इस प्रमाण के सामने अब किसी तरह की धाँधली करने का साहस मुझे इसवक्त भी न हो सका; लेकिन क्यों न एक बार सच को झूठ बनाने की चेष्टाकरूँ ? मेरा हरज ही क्या है। मान गया, तो वाह-वाह नहीं तो दो-चार हाथ पदनाही तो पड़ेगा। अँधेरे का बहाना करके जल्दी से गला छुड़ा लूँगा। फिर कौन दाँवदेने आता है।

गया ने विजय के उल्लास में कहा-लग गयी, लग गयी ! टन से बोली।मैंने अनजान बनने की चेष्टा करके कहातुमने लगते देखा ? मैंने तो नहींदेखा।
टन से बोली है सरकार !

और जो किसी ईंट में लग गयी हो ?’

मेरे मुख से यह वाक्य उस समय कैसे निकला, इसका मुझे खुद आश्चर्यहै। इस सत्य को झुठलाना वैसे ही था जैसे दिन को रात बताना। हम दोनों नेगुल्ली को डण्डे में जोर से लगते देखा था; लेकिन गया ने मेरा कथन स्वीकारकर लिया।

हाँ, किसी ईंट में ही लगी होगी। डण्डे में लगती, तो इतनी आवाज नआती।

मैंने फिर पदाना शुरू कर दिया; लेकिन प्रत्यक्ष धाँधली कर लेने के बाद,गया की सरलता पर मुझे दया आने लगी, इसलिए जब तीसरी बार गुल्ली डण्डेमें लगी, तो मैंने बड़ी उदारता से दाँव देना तय कर दिया।

गया ने कहा-अब तो अँधेरा हो गया भैया, कल पर रखो।

मैंने सोचा, कल बहुत-सा समय होगा, यह न जाने कितनी देर पदाये,इसलिए इसी वक्त मुआमला साफ कर लेना अच्छा होगा।

नहीं, नहीं। अभी बहुत उजाला है। तुम अपना दाँव ले लो।
गुल्ली सूझेगी नहीं।
कुछ परवाह नहीं।

गया ने पदाना शुरू किया, पर उसे अब बिल्कुल अभ्यास न था। उसनेदो बार टाँड़ लगाने का इरादा किया; पर दोनों ही बार हुच गया। एक मिनट सेकम में वह दाँव पूरा कर चुका। बेचारा घण्टा भर पदा; पर एक मिनट ही मेंअपना दाँव खो बैठा। मैंने अपने हृदय की विशालता का परिचय दिया।

एक दाँव और खेल लो। तुम पहले ही हाथ में हुच गये।
नहीं भैया, अब अँधेरा हो गया।

तुम्हारा अभ्यास छूट गया। क्या कभी खेलते नहीं ?’
खेलने का समय कहाँ मिलता है भैया !

हम दोनों मोटर पर जा बैठे और चिराग जलते-जलते पड़ाव पर पहुँच गये।गया चलते-चलते बोला-कल यहाँ गुल्ली-डण्डा होगा। सभी पुराने खिलाड़ी खेलेंगे।आप भी आओगे ? जब आपको फुरसत हो, तभी खिलाड़ियों को बुलाऊँ।मैंने शाम का समय दिया और दूसरे दिन मैच देखने आया। कोई दस-दसआदमियों की मण्डली थी। कई मेरे लड़कपन के साथी निकले। अधिकांश युवकथे जिन्हें मैं पहचान न सका। खेल शुरू हुआ। मैं मोटर पर बैठा-बैठा तमाशादेखने लगा। आज गया का खेल, उसका वह नैपुण्य देखकर मैं चकित हो गया।टाँड़ लगाता, तो गुल्ली आसमान से बातें करती। कल की-सी वह झिझक, वहहिचकिचाहट, वह बेदिली आज न थी। लड़कपन में जो बात थी, आज उसनेप्रौढ़ता प्राप्त कर ली थी। कहीं कल इसने मुझे इस तरह पदाया होता, तो मैंजरूर रोने लगता। उसके डण्डे की चोट खाकर गुल्ली दो सौ गज की खबर लातीथी।

पदनेवालों में एक युवक ने धाँधली की ! उसने अपने विचार में गुल्लीलोक ली थी। गया का कहना था-गुल्ली जमीन में लगकर उछली थी। इस परदोनों में ताल ठोंकने की नौबत आयी। युवक दब गया। गया का तमतमाया हुआचेहरा देखकर डर गया। अगर वह दब न जाता, तो जरूर मारपीट हो जाती।मैं खेल में न था; पर दूसरों के इस खेल में मुझे वही लड़कपन का आनन्द आरहा था, जब हम सब कुछ भूलकर खेल में मस्त हो जाते थे। अब मुझे मालूमहुआ कि कल गया ने मेरे साथ खेला नहीं, केवल खेलने का बहाना किया।उसने मुझे दया का पात्र समझा। मैंने धाँधली की, बेईमानियाँ कीं; पर उसे ज़राभी क्रोध न आया। इसलिए कि वह खेल न रहा था, मुझे खेला रहा था, मेरामान रख रहा था। वह मुझे पदाकर मेरा कचूमर नहीं निकालना चाहता था। मैंअब अफसर हूँ। यह अफसरी मेरे और उसके बीच में दीवार बन गयी है। अबमैं उसका लिहाज पा सकता हूँ, अदब पा सकता हूँ, साहचर्य नहीं पा सकता।लड़कपन था, तब मैं उसका समकक्ष था। हममें कोई भेद न था। यह पद पाकरअब मैं केवल उसकी दया के योग्य हूँ। वह मुझे अपना जोड़ नहीं समझता। वहबड़ा हो गया है, मैं छोटा हो गया हूँ।


प्रेमचन्द की तीन सौ कहानियाँ
मानसरोवर
(1-8 खण्ड)
वाणी प्रकाशन से प्रकाशित मुंशी प्रेमचन्द जी की सभी पुस्तकें यहाँ पाएँ : 

हिन्दी महोत्सव'2018 | रिपोर्ट

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हिन्दी महोत्सव'2018

वाणी फॉउण्डेशन, यू.के. हिन्दी समितिवातायन और कृति यू.के. द्वारा संयुक्त आयोजन।

| 28 जून से 1 जुलाई | 
यूनाइटेड किंगडम
ऑक्सफोर्ड | लन्दन | बर्मिंघम

हिन्दी भाषा की विविधतासौन्दर्यडिजिटल और अंतराष्ट्रीय स्वरुप का उत्सव हिन्दीमहोत्सव 2018 युनाइटेड किंगडम  के तीन बड़े शहरों में आयोजित किया जा रहा है। वाणी फ़ाउंडेशनयू.के. हिन्दी समितिवातायन  और कृति यू. के. के संयुक्त तत्त्वावधान में 28 जून से 1 जुलाई 2018 तक चार दिन तक चलने वाले हिन्दी महोत्सव  का आयोजन  ऑक्सफोर्ड,लन्दन और बर्मिंघम  में सुनिश्चित किया गया है। महोत्सव में भाषासाहित्यप्रवासी लेखनकविता और संगीतमीडिया और प्रकाशन जगत से सम्बन्धित विविध विषयों पर परिचर्चासम्मेलनकार्यशाला और सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन किया जाएगा। साथ ही यूनाइटेड किंगडम में हिन्दी पढ़ रहे छात्रों से विशेष संवाद भी किया जायेगा।

 दीप प्रज्वलन 
स्वागत

अरुण माहेश्वरी
चेयरमैन

वाणी फाउंडेशननई दिल्ली


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श्रीमती जेरी ताकामुरा
प्रधानाचार्य,
ऑक्सफोर्ड बिज़नेस कॉलेज

~ कार्यक्रम की रूप-रेखा ~



पुस्तक लोकार्पण
 प्रवासी लेखन : नयी ज़मीन नया आसमान
अनिल शर्मा जोशी

बाएँ से जय वर्मा, पद्मेश गुप्त, शिखा वार्ष्णेय, दिव्या माथुर, अनिल शर्मा 'जोशी' ,
नीलिमा आधार डालमिया, अरुण माहेश्वरी और यतीन्द्र मिश्र।  


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हिन्दी सिनेमा और साहित्य

बाएँ से अजय जैन, यतीन्द्र मिश्र, कुसुम अंसल और ललित.एम.जोशी। 

***

कविता सन्ध्या


बाएँ से जोएल मुखर्जीं और चिन्मय त्रिपाठी।  

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वातायन सम्मान समारोह 

बाएँ से अरुण माहेश्वरी, तरुण कुमार, अरुणा सभरवाल, वीरेन्द्र शर्मा,

मीरा कौशिक, तिथि दानी डोवाल, कुसुम अंसल, दिव्या माथुर, यतीन्द्र मिश्र और पद्मेश गुप्त। 


***
पुस्तक लोकार्पण
मेरी दृष्टि तो मेरी है कुसुम अंसल

बाएँ से अरुण माहेश्वरी, तरुण कुमार, अरुणा सभरवाल, वीरेन्द्र शर्मा, 
मीरा कौशिक, तिथि दानी डोवाल, कुसुम अंसल, दिव्या माथुर, यतीन्द्र मिश्र और पद्मेश गुप्त। 


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कवि सम्मेलन 


कविता सुनाते हुए पद्मेश गुप्त 

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बाएँ से अदिति माहेश्वरी-गोयल, बिहार गौरव डेम आशा खेमका, अरुण माहेश्वरी। 

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हिन्दी शिक्षण और संसाधन 


हिन्दी सीख रहे बच्चों की विशेष प्रस्तुति। 


***

धन्यवाद ज्ञापन 
अदिति माहेश्वरी-गोयल
मैनेजिंग ट्रस्टी, वाणी फॉउण्डेशन 

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   मीडिया में 'हिन्दी महोत्सव'18  


नवोदय टाइम्स ( 23जून 2018, पृष्ठ संख्या  )

http://epaper.navodayatimes.in/1708286/Navodaya-Times-Main/Navodaya-Times-Main#page/6/2

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आउटलुक (23 जून 2018 )

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समय पत्रिका (23 जून 2018 )


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अमर भारती (25 जून 2018)
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दैनिक भास्कर (26 जून 2018)

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समय पत्रिका (23 जून 201)

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जनसत्ता (1 जुलाई  2018 , पृष्ठ  संख्या-3 )

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समय पत्रिका (30 जून 2018)



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अमर भारती (2जून 201)

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अमर भारती (5 जुलाई  2018)

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आज तक , 1 जून 2018 

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हिन्दी महोत्सव'2018 
को सफल बनाने के लिए आप सभी का धन्यवाद!

भारतीय शास्त्रीय संगीत के महान गायक पद्मविभूषण पंडित जसराज के जीवन पर आधारित पहली जीवनी 'रसराज : पंडित जसराज'

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वरिष्ठ लेखिका व संगीत अध्येता 


की

भारतीय शास्त्रीय संगीत के महान गायक पद्मविभूषण 

पंडित जसराज

के जीवन पर आधारित पहली जीवनी



950 /-  978-93-87889-58-3  हार्ड कवर 
895/-  978-93-8788-61- पेपर बैक 
जीवनगाथा    पृष्ठ संख्या -534 


सराज के जन्मते ही पिता पंडित मोतीराम ने उन्हें शहद चटाया था। उनके घर में इसे घुट्टी पिलाना कहा जाता है। माँ कृष्णा बाई का कहना था कि सभी बच्चों में से मोतीराम जी ने केवल जसराज को ही शहद चटाया था। बच्चों को माँ की सेवा करने का अच्छा अवसर मिलाक्योंकि वह 1957 तक जीवित रहीं। पिता तो अपने गाने के सिलसिले में आते-जाते रहते थे।

गाँव पीली मन्दौरी जहाँ जसराज का जन्म हुआ हिसार (हरियाणा) से लगभग  70 किलोमीटर दूर है। उस समय वह पंजाब में था। गाँव से स्टेशन लगभग 12 किलोमीटर था। एक दिन पंडित मोतीराम कहीं से कार्यक्रम करके गाँव लौटे। चूँकि स्टेशन और गाँव के बीच दूरी बहुत थीतो ऊँट पर सवार होकर आये थे। साफ़-सुथरे सफ़ेद कपड़े पहने हुए थे। मैदान में छोटे-छोटे बहुत सारे बच्चे खेल रहे थे। एक बच्चे की तरफ़ इशारा करके पंडित मोतीराम ने किसी से पूछा कि भैया ये किसका बच्चा हैतो उन्हें उत्तर मिला कि ये आप ही का बच्चा है। फौरन ऊँट से उतर पड़े और धूल में नहाये जसराज को गोदी में उठा लिया। न अपने सफ़ेद कपड़ों की परवाह की और न ही दो-ढाई वर्ष के जसराज की धूल में सनी पोशाक की ओर देखा। गोदी में उन्हें उठाकर पैदल-पैदल घर आ गये। उसके बाद क्या हुआ,

इसकी स्मृति किसी को नहीं है। पंडित जसराज अपने माता-पिता की नौवीं सन्तान हैं।

दरस देत क्यूँ नी
राग जयजयवन्तीताल तीन ताल
पंडित जसराज के आध्यात्मिक गुरु महाराज जयवन्त सिंह जी वाघेलाजिन्हें सब बापू साहब कह कर पुकारते थेको राग जयजयवन्ती बहुत पसन्द था। वे अक्सर पंडित जसराज से पूछते तुम जयजयवन्ती राग को क्यों कभी नहीं सुनातेमैंने यह बन्दिश विशेष रूप से तुम्हारे लिए लिखी है।

बापू साहब रचित बन्दिश एक विलम्बित रचना थीजिसमें बन्दिश के चारों तत्त्वकृस्थायी अन्तरा,  अभोग और संचारी को बहुत ख़ूबसूरती से सँजोया गया था। बापू साहब के देहान्त के पश्चात् पंडित जसराज को इस बात का विशेष कष्ट रहा कि वे अपने आध्यात्मिक गुरु की इच्छा को पूरा नहीं कर पाये। और उन्होंने माताजी (काली माँ) की स्तुति में राग जयजयवन्ती में एक अन्य बन्दिश की रचना की जिसे वे अनेकशः अपने गायन में सम्मिलित करते हैं।

स्थायी
दरस देत क्यूँ नी माँ मोरी।
मनमन्दिर में तू ही बिराजत।
परख लेत क्यूँ नी (माँ मोरी)

अन्तरा
बिपदा है मोपे अति भारी।
हरत लेत क्यूँ नी माँ मोरी।
कहनी थी सों कहली माता।
समझ लेत क्यूँ नी (माँ मोरी)


सुबह उठकर बिना कुछ लिखे हुए सुनीता बुद्धिराजा के दिन की शुरुआत नहीं होती और रात को बिना कुछ पढ़े हुए नींद नहीं आती। किताबों से घिरे हुए कमरे में उठना-बैठना सुनीता को अच्छा लगता है। ज़िन्दगी की किताब का हर पन्ना उन्हें बहुत कुछ सिखाता है लेकिन सीख कर भी सभी कुछ पर भरोसा करनाविश्वास करनासुनीता की आदत है। जीवन के हर आन्दोलन को महसूस करना भी उनकी आदत है। उनका सारा लेखन इसी भरोसेविश्वास और महसूसने की नींव पर टिका हुआ है। दिल्ली में जन्मी सुनीता बुद्धिराजा की कविताएँलेखसंगीत-चर्चा सभी कुछ इसी आदत का परिणाम हैं।

आधी धूप’, ‘अनुत्तर’ और ‘प्रश्न-पांचाली’, सभी ने पाठकों के मन को छुआ है। ‘प्रश्न-पांचाली’ महाभारतीय पात्र द्रौपदी को केन्द्र में रखकर उसी विश्वास की पतली-डोर को पकड़कर लिखा गया कविता-खंड है जिसने नाटककार दिनेश ठाकुर को मंच पर उतारने के लिए बाध्य कर दिया।

टीस का सफ़र’ जानी-मानी महिलाओं की निजता के अकेलेपन से उभरी टीस का परिणाम है तो ‘सात सुरों के बीच’ उस्ताद बिस्मिल्लाह खाँपं. किशन महाराजपं. जसराजमंगलमपल्ली बालमुरली कृष्णपं. शिवकुमार शर्मापं. बिरजू महाराज तथा पं. हरिप्रसाद चौरसिया के साथ वर्षों की गयी चर्चाओं पर आधारित सुरीली रचना है।

पेशे से जनसम्पर्क से जुड़ी सुनीता बुद्धिराजा ‘किंडलवुड कम्युनिकेशंस’ चला रही हैं।

प्रस्तुत है उनकी नयी पुस्तक रसराज: पंडित जसराज जो संगीत मार्तंड पंडित जसराज की जीवनगाथा पर आधारित है।



 कार्यक्रम की कुछ झलकियाँ  





- मीडिया कवरेज -

19 जुलाई 2018 



3 अगस्त 2018 








CLASSICAL CLAPS
























Nerve.in





















आप इस पुस्तक को ई-बुक के रूप में भी पढ़ सकते हैं

प्रख्यात साहित्यकार व बहुमुखी प्रतिभा भीष्म साहनी के जन्मदिवस पर पढ़िये | भीष्म साहनी

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(1915-2003)

प्रख्यात साहित्यकार व बहुमुखी प्रतिभा के भीष्म साहनी के जन्मदिवसपर पढ़िये...

उन पर बेजोड़ किताब लिखने वाले 
नयी आलोचना के विद्वान आलोचक श्याम कश्यप की बेहरीन किताब 

'भीष्म साहनी'

भीष्म साहनी: व्यक्ति और संगठनकर्ता
दरअसल, हमारे भीष्म जी थे ही इतने शालीन और सौम्य: अतिशय सादगीऔर अत्यन्त विनम्रता की विलक्षण प्रतिमूर्ति! हर किसी पर मिलते ही उनका सबसेपहला इम्प्रेशनयही पड़ता था; और निस्सन्देह, यह छवि ता-उम्र ऐसी बरकरार भीरही आती थी! दूसरी मुलाकात भी बन्ने भाई के सौजन्य से ही हुई थी। कई सालबाद, 1973में, मेरे जनयुगका सहायक सम्पादक बनकर स्थायी रूप से दिल्लीआ जाने के बाद। बन्ने भाई भारतीय प्रतिनिधि मंडल के नेता केरूप में फ़्रोएशियन राइटर्स ऑर्गेनाइजेशनकेसम्मेलन में भाग लेने अल्मा अता (सोवितयसंघ) जा रहे थे। मैं दैनिक जनयुगके फ़ोटोग्राफर केसाथ बन्ने भाई को विदाकरने हवाई अड्डे पर गया था। यह भी, बस देखा-देखी ही थी। भीष्म जी कोपिछली मुलाकात याद ही नहीं थी। हाथ मिलाते हुए शरारतन मैं इतना झुका थाकि इतने वर्षों बाद भी जापानी हैंकी याद आने से बन्ने भाई मुँह फिराकर हँसीरोकने की कड़ी मशक्कत करते दिखे! मैं अपनी आदत से मजबूर था। गम्भीर औरजिम्मेदार बनकर रहने की और हरेक से टकराने से, भरसक बचने की बड़े मामा (श्री हरिशंकर परसाई, जिन्हें मैं अपने अभिन्न मित्रा राजकुमार दुबे की तरह बड़ेमामाही कहता था) की सारी नसीहतें जबलपुर में ही, चलने से पहले, खूँटी परटाँगकर दिल्ली आया था।

यहाँ भी बुजुर्गों की दाढ़ी खींचने (जो क्लीनशेव थे, उनकी टाँग खींचने) औरछेड़छाड़ से मैं बाज़ नहीं आता था! बाद में खुद दाढ़ी रखने और अच्छा भला गम्भीरदिखते रहने के बावजूद! इसीलिए, भीष्मजी से मेरे सम्बन्ध अनजाने में ऐसे ही लगभगकामदीय’ (कॉमेडी वाले-हँसी मज़ाक के) बन गये थे; और सारी उमर ऐसे ही बनेभी रहे। लेकिन अब इस विडम्बना को आप क्या कहेंगे कि उनसे दोस्ती की शुरुआतबड़े ही दुखद और त्रासदीय (ट्रैजिक) माहौल में हुई थी। दूसरी देखा-देखी के,बसचन्द ही रोज़ बाद। मेरा अनुमान है कि इस दोस्ती की नींव जाते हुए बन्ने भाई औरसुभाष दा (मशहूर बाँग्ला कवि सुभाष मुखोपाध्याय जिनसे मैं पहले से परिचित थाऔर कलकत्ता में कई बार मिल चुका था) ने रखी होगी-भीष्मजी को इस शरारतीबच्चेकेबारे में खूब अच्छी-अच्छी बातें बताकर। कोई आश्चर्य नहीं कि बन्ने भाईने अपने साथियों केसाथ जापानी हैंवाला लतीफ़ा भी शायद साँझा किया हो।

भीष्मजी आल्मा अता से फ़ौज़ और एक सोवियत लेखक (मुझे ठीक से यादनहीं, शायद कवि सुलेमानोव) के साथ बन्ने भाई का पार्थिव शरीर लेकर लौटे थे।हीं सम्मेलन केदौरान दो दिन पूर्व, 13सितम्बर को बन्ने भाई को दिल का दौरापड़ने से, अचानक उनका निधन हो गया था। हम लोगों को पता दूसरे दिन लगाथा। एक और विडम्बना देखिए कि 13सितम्बर को ही दैनिक जनयुगके पहले अंक का अजय भवन में, एक भव्य समारोह में लोकार्पण किया गया था; जिसकीपिछले तकरीबन एक माह से हम डमीनिकालकर, पिछले 13दिन से प्रचारितकरते हुए, देश-भर में भेजकर फ्रीवितरित करवा रहे थे। डमीके ही पिछले एकरविवारीय संस्करण में अल्मा-अता सम्मेलनके बारे में बन्ने भाई का लेख तथा एकनये फेडरलरूप वाले संगठन केरूप में प्रगतिशील लेखक संघ (प्रलेस) के पुनर्गठनकी ज़रूरत पर भीष्मजी का और मेरा, दो लेख छपे थे। बन्ने भाई (जो कम्युनिस्टपार्टी की राष्ट्रीय परिषद केसदस्य और पार्टी केकलचरल फ्रंटके इंचार्जथे) केनेतृत्व में ही पिछले लम्बे अर्से से प्रलेस के पुनर्गठन की तैयारियाँ चल रही थीं, औरजो इधर 2-3माह से अन्तिम सोपान पर थीं। मेरा अनुमान है कि इस पुनर्गठितभावी संगठन केमहासचिव (जनरल सेक्रेटरी) केरूप में भीष्म साहनी का नाम पार्टीकी सीईसीकी कल्चरल सब-कमेटीद्वारा तय हो चुका था और इस अत्यन्तमहत्वपूर्ण ज़िम्मेदारी केएहसास ने (जिसकी सम्भवतः बन्ने भाई की देख-रेख मेंट्रेनिंग चल रही थी) हमारे जापानीको और भी ज़्यादा विनम्र बना दिया था।
बहरहाल, बन्ने भाई का पार्थिव शरीर लाने के बाद, या शायद उन्हें सुपुर्दे-ख़ाककरने के बाद (मुझे ठीक याद नहीं) लौटते हुए, रास्ते में मुझे पीपीएच (जहाँ जनयुगका दफ़्तर था और जहाँ मैं ऊपर गेस्ट रूममें तब रहता था) छोड़ने तक, पंजाबीमें ढेर सारी गुटरगूँ बातें करते-करते मैं और भीष्म जी पक्केदोस्त बन चुके थे।

हालाँकि वे लगभग मेरे पिता (जन्म 1912) की उम्र के थे (दिखते तो थे देवानन्दकी तरह युवा और फ़िल्मी हीरो की तरह ही! बाद में तो मैं उन्हें और राजीवसक्सेना को प्रलेस के देवानन्द और अशोक कुमार कहने लगा था; पर भला होनामवर जी का जो राजीव भाई को ययातिकहते थे) और वे मुझसे यार-यारकरके बातें कर रहे थे। भीष्मजी की यह भी एक बड़ी खूबी थी कि वे एकदम हमउम्रयारबाश दोस्तों की तरह घुलमिल जाते थे। बशर्ते कि आपसे खुल जाएँ और आपउनके एकदम अन्तरंग बन जाएँ! अन्यथा, भीष्मजी अत्यन्त विनम्र और सौम्य हीनहीं, बड़े संकोची, मितभाषी और बेहद शर्मीले इनसान थे। हरेक के आगे जनाबमैं किस काबिलतथा मैं तो ख़ाकसार, बन्दापरवर, आप महान तथा दानिशमन्दवाला उनका व्यवहार कभी-कभी तो बड़ी कोफ़्तऔर हददर्ज़ा खीझ भी पैदा करताथा। बाज़ मौकों पर (और ऐसे मौके कई बार आते भी थे) जब कोई सामने वालाअक्ल का मारा इन बातों को सच मानकर नाजायज फ़ायदा उठाने लगता और फूल कर कुप्पा हो रहा होता तो उस गुब्बारे में पिन चुभोने तथा फिर भी ज़रूरत पड़ेतो ऐसे दानिशवरों की सर्जरीकरने का नेक काम मुझे ही अंजाम देना पड़ता था!

भीष्मजी को नये संगठन का जनरल सेक्रेटरी बनाने केबारे में पार्टी का फैसलाबिल्कुल सही था, क्योंकि वही अकेले ऐसे व्यक्ति थे जो पुराने प्रगतिवादीदौरके प्रलेस केटकरावों और व्यक्तियों की पुरानी आपसी रंजिश बचाते हुए, अपनेशालीन, विनम्र और सुलह-सफ़ाई वाले स्वभाव से हर तरह के मतभेदों के बीचसे रास्ता निकाल सकते थे। उन्होंने ऐसा किया भी। हम मज़ाक में कहा करते थेकि लेखकों को किसी संगठन में एकजुट करना तराजू में मेंढ़क तौलने जैसा हीहै। लेकिन भीष्मजी ने यह करिश्मा भी कर दिखाया! एच.के. व्यास ने पार्टी कीकाम-काज की और सांस्कृतिक भाषाअंग्रेज़ीमें ड्राफ्ट मेनिफ़ेस्टो’ (घोषणापत्रका मसौदा) बनाया जिसे पहले शायद बन्ने भाई और भीष्मजी ने मिलकर बनानाथा। एच के व्यास साहित्यकार नहीं थे, पर दुर्भाग्य से साहित्यानुरागी भी नहीं थे;जैसे कि पुराने नेताओं में डांगे, नम्बूदिरिपाद, पी. सी. जोशी थे; या मौजूदा नेतृत्वमें मोहित सेन और योगीजी थे। राजबहादुर गौड़ तो खुद भी उर्दू केअच्छे लेखकथे। अच्छा होता कि इस सांस्कृतिक मोर्चेकी ज़िम्मेदारी पार्टी सीईसी के ही एकअन्य सदस्य मोहित सेन को दी जाती और ड्राफ्ट मेनिफ़ेस्टोमोहित, भीष्म औरका. राज बनाते! बहरहाल, पार्टियों और उनकेनेतृत्व की अपनी समझ होती है!कम्युनिस्ट पार्टियाँ भी अपवाद नहीं हैं।

भीष्मजी और मैं जब इस मेनिफ़ेस्टोका हिन्दी में अनुवाद करने बैठे तो मेरातो दिमाग ही भन्ना गया! मैं कुछ कहता कि भीष्मजी ने मुस्कुराकर धीरे से कहा,श्यामजी, मेनिफ़ेस्टोतो व्यासजी ने बड़ा अच्छा बनाया है, पर यह कुछ ज़्यादा हीपॉलिटिकल नहीं हो गया! लेखकों, कलाकारों केसंगठनों...!मैंने बीच ही में बातकाटकर कहा, ‘बहुत खराब बना है। बहुत बड़ा भी है। एडिट करके इसे चौथाईकिया जा सकता है। इसकी भाषा भी बड़ी ठस है। हमें इस बारे में व्यासजी से बातकरनी चाहिए। मेनिफ़ेस्टो का ड्राफ्ट आप बनाइए। ज़रूरी समझें तो चाहे व्यास जीके इस ड्राफ़्ट में से राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय परिस्थिति के दो या तीन पैरे संक्षिप्तकरके ले लीजिए। इस तरह उनका योगदान भी शामिल रहेगा।लेकिन भीष्म जीने कानों को छूकर मना कर दिया। वे बोले कि वे ठीक नहीं समझेंगे। उन्हें बुरालग सकता है।वे इस पर भी आना-कानी करने लगे कि कम-से-कम हम अपनीराय तो व्यासजी को बता ही सकते हैं। जब मैंने  ज़ोर दिया तो मेरी राय से पूरीतरह से सहमति जताते हुए भी, कहने लगे कि मैं कह नहीं सकूँगा, चाहें तो आपकहएि।भन्नाकर मैंने असहयोग कर दिया और अनुवाद अकेले बुजुर्गवार बेचारेहमारे भीष्मजी ने किया। मुझे नहीं मालूम कि उर्दू अनुवाद ताबाँ साहिब ने किया थाया अजमल ने? क्या पता कि शायद वह भी भीष्मजी ने ही किया हो! जब कमेटी मेंउस पर विचार किया गया तो लगभग सभी ने ड्राफ्टकी आलोचना की। भीष्मजीको इसे नये सिरे से तैयार करने को कहा गया तो वे आना-कानी करने लगे किउनकी समझ व्यासजी से बेहतर नहीं हो सकती। बहरहाल, कॉमरेड राजबहादुर गौड़,व्यासजी, ताबाँ साहिब, राजीव सक्सेना और भीष्मजी की एक ड्राफ्ट सब-कमेटीबनाकर यह समस्या भी हल कर ली गयी। मैंने डॉ. नामवर सिंह का नाम सुझायाजो राजीव भाई और व्यासजी ने फटाक् से दरकिनार कर दिया!

नया संक्षिप्त ड्राफ्ट मेनिफ़ेस्टोमंजूर होने के बाद, उसे पहले 51फिर 21,अन्ततः भारी बहस-मुबाहिसों के बाद, 31लेखकों केनाम प्रस्तावकोंके रूप मेंअन्तिम रूप से तय हो जाने के बाद, हिन्दी उर्दू और अंग्रेज़ीमें तत्काल जारी करनेका फैसला किया गया। इन 31लेखकों केड्राफ्ट मेनिफ़ेस्टोपर हस्ताक्षर करानेकी ज़िम्मेदारी के निर्वाह के लिए इन पंक्तियों के लेखक को भी शामिल कियागया। डॉ. रामविलास शर्मा और अमृत राय ने इनकार कर दिया। एच.के. (व्यास)को लिखे उनके पत्रों में कई आपत्तियाँ उर्ठा गयी थीं। अमृत राय ने भीष्मजी कोअलग से भी ख़ासा लंबा पत्र लिखा था जिसमें पुराने मतभेदों, आरोपों और झगड़ोंके ढेरों सन्दर्भ थे।

बहरहाल कमेटी के फैसले के अनुसार दोनों को मनाकर हस्ताक्षर लेने के लिएमैं और भीष्मजी पहले आगरा, फिर इलाहाबाद गये; पर दोनों मिशन इम्पॉसिबलनाकाम ही रहे! लेकिन इन दोनों यात्राओं में भीष्मजी से निकटता और अन्तरंगता तोबढ़ी ही, उनका एक भिन्न रूप भी देखने को मिला, एक बेहद ज़िन्दादिल और हँसीज़ाक करने वाले इन्सान, विलक्षण व्यंग्यकार और अत्यन्त विटी’! उन्हें ऐसे-ऐसेलतीफ़े याद थे कि दोनों सफ़र हँसते-हँसते कटे।

आगरा तो हम सुबह चलकर रात वापस आ गये, पर इलाहाबाद अमृत राय के  पास एक दिन रुककर दूसरे दिन लौटे। रामविलासजी से मैं कुछ अरसा पहले भीगीताजी और प्रमोद-दम्पति केसाथ मिल चुका था। उन्होंने बड़े प्यार से समझायाकि अपने अध्ययन और योजनाबद्ध लेखन-कार्य केकारण वे कहीं नहीं आते-जातेऔर किसी भी संस्था या संगठन से नहीं जुड़ सकते। उन्होंने अपनी पत्नी की गम्भीरबीमारी का भी हवाला दिया। मैं तो ज़्यादतर चुप ही रहा, पर भीष्मजी जैसी विनम्रता,आदर और हर तरह के तर्कों से उन्हें मनाने की कोशिशें करते रहे, यह अपने-आपमेंबड़ा ही दिलचस्प और अद्भुत था। यहाँ तक कि रामविलासजी भी उनके ऐसेविनम्र, शालीन और अतिशय सौम्य व्यवहार से बड़े प्रभावित दिखे। हम लोगों कोविदा करते हुए उन्होंने मेरी ओर मुड़कर कहा, ‘अगर तुम लोग भीष्मजी को जेनरलसेक्रेटरी बनाओगे तो तुम्हारा संगठन पहले की तरह सभी भाषाओं के साहित्यकारोंको जोड़ सकेगा और सम्पूर्ण भारतीय साहित्य का नेतृत्व करेगा।लगभग ऐसा हीकुछ, सम्भव है जोड़ सकेगाकी जगह संगठित कर सकेगाजैसा कुछ कहा हो!जो भी हो, रामविलासजी की भविष्यवाणी शत-प्रतिशत सही साबित हुई! अमृतराय को पहली बार देखा था। भीष्मजी की तो पुरानी पहचान थी। मुझे लगा जैसेप्रेमचन्द को देख रहा हूँ! छपे-हुए चित्रों में देखे प्रेमचन्द के जैसा ही चेहरा-मोहराऔर पतली सी आवाज़ जो बीच-बीच में उत्तेज़नावश और भी तीखी और पतली होजाती थी। गुस्से में भी बड़ी प्यारी और सुरीली। गुलाबीपन लिए हुए झक्क सफ़े,गोरा चेहरा! ऐसा कि उँगली से गाल छू लूँगा तो खून की बूँदें टपकने लगेंगी! वेतमाम शिकायतें करते रहे, पर अन्त में यह कह कर विदा किया कि संगठन कीगतिविधियाँ देख-परख कर, भविष्य में सहयोग की सोच सकते हैं। और सहयोगकिया भी; परसाईजी और भीष्मजी केअनुरोध पर 1980में जबलपुर महासम्मेलनमें आये भी; और एक सत्र के अध्यक्ष मंडल में भी रहे। हँसी-मज़ाक में शमशेर कोडाँटते भी रहे और केदारनाथ अग्रवाल-नागार्जुन से छेड़छाड़ भी करते रहे।

दरअसल, दिल्ली में बुजुर्ग साहित्यकारों में मेरी सर्वाधिक निकटता और गहनअन्तरंगता शमशेरजी और भीष्मजी से ही पनपी। लगभग हमउम्र या ख़ास दोस्तोंकी तरह। मजे़ की बात यह कि दोनों ही निहायत संकोची, अत्यन्त शालीन औरबेहद विनम्र! मैं प्रायः दोनों से शरारतन छेड़छाड़ करता रहता था। शमशेरजी सेकुछ ज़्यादा (भई, दोनों कवि हुए न!) बख्शता भीष्मजी को भी नहीं था। वे भरपूरमजा लेते; और कभी-कभी अपने विटसे खुद भी छक्काउड़ाकर बाउंड्री पारकरा देते! उनमें हास्य-व्यंग्य की विलक्षण प्रतिभा थी। बड़ी मासूमियत के साथ कभीवे ऐसा महीन व्यंग्य करते कि सामने वाले को लाजवाब कर देते और खुद चेहरागम्भीर और भोलाभाला बनाए रखते कि साहिबो, मैंने तो कुछ किया ही नहीं, कुछ कहा ही नहीं! उनके साथ प्रलेस के सम्मेलनों-सेमिनारों के सन्दर्भ में दूर-दूर की बड़ीयात्राएँ कीं। वे अपने लिए कुछ भी नहीं करने देते थे, जबकि साथ जाने वाले कीहर छोटी-बड़ी सुविधा का ख्याल रखते थे। आप कुछ करना भी चाहें, तो तनकरखड़े हो जाते और सामने की लटें हाथ से पीछे फेंकते हुए कहते यार, मुझे बूढ़ासमझते हो!फिर एकदम बड़ी अदा से तिरछे झुककर हफीजालंधरी की पंक्तिदोहरा देते अभी तो मैं जवान हूँ, अभी तो मैं जवान हूँ...

गया सम्मेलन के लिए जाते समय हम दिल्ली, पंजाब, हरियाणा, हिमाचल प्रदेशऔर जम्मू-कश्मीर केहिन्दी, उर्दू, पंजाबी और कश्मीरी भाषाओं के सभी तकरीबन30-32लेखक, स्लीपर क्लास में एक ही डिब्बे में, एक-साथ चल रहे थे। हमें बाहरके लेखकों ने किराए केपैसे पहले ही भिजवा दिए थे, जो सभी तब हमारे निरन्तरसम्पर्क में थे। राजस्थान से भी छह-सात लेखक जानेवाले थे, पर किसी के भी पैसेनिर्धारित तिथि तक नहीं पहुँचे थे। इनमें तीन मेरे प्रिय मित्र  मोहन श्रोत्री, स्वयंप्रकाश (दोनों सम्पादक क्यों’) और कवि विजेन्द्र भी थे। वे हर हालत में जाने के  दिन तक पहुँचने का वायदा कर चुकेथे। अतः मैंने जनयुग से एडवाँसलेकर उनकेभी अपने साथ ही टिकट रिजर्व करवा लिए थे। राजीव भाई ने मुझे बाकी तीन,विजयदान देथा (बिज्जी), डॉ. विशम्भर नाथ उपाध्याय और वेदव्यास के भी टिकटकराने को कहा कि इनकेलिए मैं पैसे दे दूँगा। उन्होंने समय पर न पैसे दिए, मैंने इनकेटिकट कराए। दुर्भाग्य से ट्रेन छूटने तक भी न विजेन्द्र पहुँचे, न मोहनश्रोत्रीय और न ही कथाकार स्वयं प्रकाश! तीनों केटिकट भी वापिस नहीं हो पाएऔर ट्रेन चल पड़ी! गया से लौटने पर जब मुझे एक जून को मई की तनखा मिली।

तो लिफ़ाफ़े में चन्द रुपये ओर कुछ चेंज मात्रा देखकर मैं भड़क गया। कैशियर जैनसाहेब ने निहायत प्यार से समझाया कि कामरेड! आपने गया के तीन टिकटों के  लिए जो एडवांस लिया था, वह काटकर इतने ही बचते हैं!लगभग पूरा वेतन हीकट गया था! मैं लिफ़ाफ़ा वहीं पटककर चला आया। बाद में व्यासजी की कृपासे पूरा वेतन मिला और अगले माह से पाँच बराबर किश्तों में कटौती करने काएकाऊँट्स डिपाट्मेंटको आदेश। तीनों मित्रों से एक धेला भी नहीं! जब गयेही नहीं, टिकट इस्तेमाल ही नहीं किया, तो पैसे काहे के ! इस तरह यह साहित्यऔर प्रगतिशील लेखक संघ केलिए मेरी पहली कुर्बानीथी। तब मुझे बिल्कुलअन्दाजा नहीं था कि आगे-आगे और क्या-क्या होने वाला है? यह किस्सा इसलिएकि जब भीष्मजी को पता चला तो उन्होंने अकेले में अपनी जेब से मुझे पैसे देनेकी पेशकश की। सख़्ती से मना करने पर भी जबरदस्ती नोट मेरी जेब में ठूँसने कीविफल कोशिशें करते रहे। बाद में भी मिलते ही, कई दिनों तक अफसोस जताते रहे। ऐसे ही थे हमारे भीष्मजी!

यह अविस्मरणीय और ऐतिहासिक यात्रा थी। रास्ते भर जगह-जगह से लेखकइस ट्रेन में सवार होते गये थे। जिनके रिजर्वेशन कन्फर्मनहीं हो पाए थे, उन्हेंभी हमने अपने डिब्बे में चढ़ाकर ऐडजस्टकिया। पहली छह बर्थों में नीचे भीष्मजीऔर ताबाँ साहिब थे और मिडिल में कमर रईस और अजमल तथा सर्वोच्च शिखरपर मैं और योगेश कुमार। सामने साइड लोअर और अपर पर दीनानाथ नादिम (कश्मीर) और प्रो. जगन्नाथ आज़ाद (जम्मू) थे। इलाहाबाद में अजमल अजमली केभाई-भतीजे कई टोकरों में भरकर रूमाली रोटियाँ और स्वादिष्ट कबाब की टिक्कियाँ,शीरमाल और जाने क्या-क्या खाने-पीने की ढेरों चीज़ें लाए। दोपहर को और रातको सभी के जी-भरकर लंचऔर डिनरलेने केबाद भी, रूमाली रोटी औरकबाब बच रहे। इलाहाबाद से ही कामतानाथ (कानपुर), अजित पुष्कल और सतीशजमाली आदि 8-10और लेखकों को भी यहीं ऐडजस्ट किया गया जिनकी सीटें नहींथीं। गया तक प्रायः यही आलम रहा। शाम गहरी होते ही ताबाँ साहिब की सदारतमें रसरंग के साथ जो कविताओं और शेरो-शायरी का समाँ बँधा कि लगभग पूरीरात मुशायराचलता रहा-भोर में, गया पहुँचने तक; जहाँ सुरेन्द्र चौधरी, खगेन्द्रठाकुर और नईम साहिब के नेतृत्व में बिहार के लेखकों और दर्जनों कार्यकर्ताओं काभारी हुजूम फूल-मालाओं, बैनरों और नारों तथा इप्टाके क्रांतिकारी जनगीतोंके साथ स्वागत-सत्कार केलिए मौजूद था। प्रगतिशील लेखक संघ के पुनर्गठन के इस ऐतिहासिक मौकेपर, गया स्टेशन पर, शायद ही कोई होगा जिसकी आँखों कीकोर न भींगी हों! ऐसा ही भावभीना और भावुकतापूर्ण माहौल रात को उद्घाटनके समय भी था। मैं, मास्टर साहब (मोहन श्रीवास्तव) और धड़कनजी (सुरेश शर्मा)तीनों घूम-घूमकर ज़ारा ले रहे थे। कई बड़े-बूढ़े और बुजुर्ग लेखकों की आँखों सेभावावेश में आँसुओं की धार बह रही थी। विश्वनाथ त्रिपाठी की अश्रुपूरित आँखेंदेखकर, आदतवश उन्हें छेड़ने बढ़ा तो मुँह से बोल नहीं फूटा और दृष्टि धुँधलीहोती देख एहसास हुआ कि अरे! यह तो मैं भी रो रहा हूँ! तभी भरी-आँखें लिएकामतानाथ आ गये और हाथ मिलाने लगे तो देर तक हाथ झुलाते रहे और रोतेरहे! भरी-आखों से सतीश कालसेकर और दीपेन-दा (परिचय-सम्पादक) आये तोदेर तक गले मिले। मंच पर भीष्मजी और ताबाँ साहिब की आँखें देख नहीं पा रहाथा, पर बोलते हुए भावावेग से रुँधे कंठ यही चुगली खा रहे थे कि आँखें उनकीभी सूखी नहीं होंगी! यह ऐसा ही महान और ऐतिहासिक अवसर था। पचास के  दशक में तत्कालीन महासचिव डॉ. रामविलास शर्मा के हटने पर, सन’ 53के बादसे बिखराव केउपरान्त बाईस साल बाद, एक बार फिर यह वेगवती लहर उठी थी!इस क्षण की आप कल्पना नहीं कर सकते! इसे वही समझ और महसूस कर सकतेहैं जो उस ऐतिहासिक मौके पर वहाँ साक्षात् मौजूद थे।

दूसरे दिन की विचार गोष्ठी और रात (व्यासजी की अध्यक्षता में) पार्टी लेखकोंको मीटिंगदो बातों केलिए याद की जाती रहेंगी: पहली यह कि व्यासजीअध्यक्ष मंडल में हिन्दी से शिवमंगल सिंह सुमनके नाम पर अड़ गये। और हमलोग, ख़ासकर राजीव सक्सेना, विश्वनाथ त्रिपाठी, मास्टर साहब (मोहन श्रीवास्तव),कामतानाथ और मैं, कवि केदारनाथ अग्रवाल केनाम पर! बहस इतनी उग्र होगयी कि भीष्मजी की अपीलों के बावजूद मैं उठकर गुस्से में लगातार बोलता रहा,जब तक कि त्रिपाठी जी और दीपेन-दा ने दोनों हाथ खींचकर मुझे नीचे नहीं बिठादिया। अन्ततः भीष्मजी की तज़बीज पर मतदानहुआ और हमने व्यास ऐंड कं.को बुरी तरह से हरा दिया। जब व्यासजी ने दोनों के नाम जुड़वा दिये, तो कमररईस और अजमल ने आज़ादी से पहले की मुस्लिम लीगकी तरह बैलेंस करनेके नाम पर उर्दू से भी अध्यक्ष मंडल में दो नाम रखने की अपील करते हुए ताबाँसाहिब का नाम जुड़वा दिया। अन्य भाषाओं में कोई विवाद नहीं हुआ। भीष्मजी तोमहासचिव-पद पर सभी की सर्वसम्मत और एकमात्र पसन्द थे ही! राष्ट्रीय समितिके लिए भी नामों की फ़ेहरिस्त, देश-भर से, सभी भाषाओं के लगभग सभी पीढ़ियों के प्रमुख लेखकों के नामों केसाथ तय की गयी।

दूसरे दिन, विचार गोष्ठी में सभी भाषाओं में साहित्यिक परिदृश्य पर पर्चे पढ़ेगये। प्रायः सभी भाषाओं में सम्पूर्ण परिदृश्य पर एक-एक और बाँग्ला में (कवितातथा कथा-साहित्य और आलोचना) दो, क्रमशः शायद सौरी घटक और दीपेन-दा,जिन्होंने आलोचना पर पर्चा न होने के कारण अन्तिम क्षणों में कथा साहित्य के  साथ आलोचना जोड़ी थी। यह भी सम्भव है कि विषय उलटरहे हों। हिन्दी-उर्दूमें तीन-तीन पर्चे पढ़ेगये। उर्दू में कमर रईस, अजमल अजमली और जगन्नाथज़ाने तथा हिन्दी में सुरेन्द्र चौधरी (कथा-साहित्य), मोहन श्रीवास्तव (कविता)और राजीव सक्सेना (आलोचना) ने पर्चे पढ़े। एक ख़ास बात यह थी कि लिखितपर्चा मात्र एक ही था, जो सचमुच पढ़ा गया, हमारे राजीव भाई का! बाकी सबपढ़े गयेकेनाम पर नोट्सया मौखिक व्याख्यानकी परम्परा का निर्वाह कियागया था। संगठन सत्र में भीष्मजी केलिखित (शायद) तवील-लेख के अलावा।राजीव भाई केपर्चे पर जबर्दस्त हंगामा हो गया। ओपनर बैट्समैन की जोड़ी रहीनन्दकिशोर नवल और श्याम कश्यप! राजीव भाई ने हर ऐसे ऐरे-गैरे नत्थूखैरे के  नामों की लम्बी-चौड़ी आलोचकों की फ़ेहरिस्त गिना डाली थी; यहाँ तक कि जिनके मुँह से अभी दूध की गँध भी नहीं मिटी थी, (‘मुख दधि लेप किए’) और जो अभीकलम पकड़ना ही सीख रहे थे, उन सभी के नाम थे, पर नहीं नाम था कहीं भीतो डॉ. रामविलास शर्मा का! नवलजी ने तो बड़ी शालीनता से इस चूककी ओरइशारा किया, पर माबदौलत तो अपने तीखे व्यंग्य-बाणों के साथ राजीव भाई परपूरे फ़ौज-फाटे और लाव-लश्कर के साथ चढ़ धाए! बाद में, भीष्मजी ने कहा भीकि यार ऐसी बड़ी गलती कैसे हो गयी!राजीव भाई की सफ़ाई थी कि एक तोपर्चा संक्षिप्त है (सभी को मात्रा ढाई से तीन पेज के पर्चे का ही अनुरोध किया गयाथा), दूसरे, मैंने तो समकालीन आलोचना पर ही तो लिखना था, कोई इतिहास तोनहीं बखानना था!मैं फिर फट पड़ा था कि निराला की साहित्य-साधना का लेखकसमकालीन नहीं है! आप खुद क्या है? इधर लिखा क्या है आपने? पिछले दस सालका ही बता दें!आदि-इत्यादि। भीष्मजी ने बीच-बचाव किया। राजीव भाई से तोपिण्ड छुड़ाकर भागते ही बना। आख़िरकार, भीष्मजी ने कहा, ‘यार, गलती तो की हीराजीव ने, बहुत बड़ी गलती, पर तुम्हें भी उसकी उमर का तो ख़्याल रखना चाहिएथा। नवलजी ने देखो कितने सलीकेसे अपनी बात रखी।नवलजी से यही पहलीदेखा-देखीथी जो कालान्तर में घनिष्ठ मित्रता में विकसित हुई। शायद तभी सेनवलजी भी भीष्मजी की निगाहों में चढ़ गये, जिनकी वे बराबर प्रशंसा करते नहींथकते थे। दरअसल, वे ऐसे ही शिक्षक और गहरे पारखी थे! लोगों की गलतियोंऔर कमियों को नजरअन्दाज करना, ज़रूरी लगे तो अकेले में ऐसे समझाना कि नउसे ठेस लगे और न ही उसकेअहंपर चोट पड़े! इसी तरह किसी केभी गुणोंऔर किस काम केलिए कौनसर्वाधिक उपयुक्त है, इसकी भी उन्हें बड़ी सटीकऔर सूक्ष्म पहचान थी।

एक बार लोगों की ज़ोरदार फ़रमाइश पर ठीक ऐसी ही मिमिकरीकी गुस्ताख़ीमुझसे शीलाजी के सामने भी हो गयी! शायद सुदर्शन सोबतीजी केइसकसदफ़्तर में नियमित मासिक रचना-गोष्ठी खत्म होने के बाद गप्पशप और चाय-पानके दौरान। मैंने भीष्मजी के कैरीकेचरकी ऐसी प्रामाणिकप्रस्तुति पेश की किशीलाजी ने पूरी संजीदगी से कहा: भीषम! इतनी विनम्रता भी किस काम की किज़ाक बन जाए!भीष्मजी बगलें झाँकने लगे। फिर तो लोग शीलाजी-भीष्मजी के संवादों की नकल करने केपीछे ही पड़ गये। मुझे क्या फर्क पड़ता, मैं तो चिकनाघड़ा था; बल्कि कुछ ज़्यादाबल-खम और घुमावों वाली नक्काशीदार सुराही’, वहभी टेढ़े मुँह वाली! शनिवार की रचना गोष्ठियों के बाद हमारे इसरार पर कई बारभीष्मजी और शीलाजी मोहनसिंह प्लेस (कॉफ़ीहाउस) भी साथ चल देते थे। परउस दिन शीलाजी का मुँह इतना गम्भीर और फूला हुआ था कि वे उन्हें सीधेकार में बिठाकर ईस्ट पटेल नगर (घर) ले गयीं! मैं इतना ढीठ हूँ कि घर पहुँचनेपर घटित होने वाले संवादों और भीष्मजी की मिमियाहट की भी तीसरी प्रस्तुति पेशलग गया। हाय! योगेश होते तो इनाम में कम-से-कम तीन प्याले कॉफ़ीजरूरपिलाते! वे उस दिन आये ही नहीं थे! अगर डॉ. रामविलास शर्मा की पत्नी-भक्तिऔर अम्माजीका अत्यन्त ख्याल रखने को कीर्तिमान माना जा सकता है तो हमारेभीष्मजी भी उनसे इस मामले में कोई कम नहीं थे।

भीष्मजी सचमुच ऐसे ही थे! और यह तो सभी जानते हैं कि शीला जी कीसार्वजनिक डाँट-फटकार से बड़ा सहमे-सहमे भी रहते थे! कई बार दूतावासों या(राजकमल प्रकाशन की मालिक) शीला संधु की पार्टियों में नया गिलास उठाने परशीलाजी (श्रीमती साहनी) के टोकते ही (भीषम, बस्स करो हुण; तुसीं गड्डी, बीचलाणी ए) झट गिलास मुझे थमाकर डिनर की प्लेट थाम लेते! गड्डी चलाणेके प्रसंग में एक और किस्सा याद आया। एक बार बड़ा भीषण एक्सीडेंट हो गयाथा। ज़ाहिर है, ड्राइव तो भीष्मजी ही कर रहे थे। हुआ कुछ ऐसा कि भीष्मजी तोलगभग बच गये पर शीलाजी गम्भीर रूप से घायल हो गयीं। शायद जबड़ा टूट गयाथा। ठीक होकर घर आने केबाद जब मैं, राजकुमार सैनी और केवल मिजाजपुर्सीके लिए पहुँचे तो केवल ने अपनी आदत के अनुसार बैठते ही बोफोर्स का गोलादाग दिया: गड्डी कोण चला रया सी?’ दो दोस्तों में झगड़ा कराने में प्रलेस के  हमारे नारदावतारकेवल गोस्वामी को ख़ासी महारत हासिल है और पति-पत्नी कोभिड़ाने में विशेषज्ञता! वह ऐसे ही सींकलगाकर बड़ी मासूमियत से शान्तचित्त हाथसेंकता रहता है। सुनते ही शीलाजी फट पड़ीं: गड्डी कोण चला र्यासी....भीषम,हौर कोण? देखो, आप तो साबुत सही-सलामत, मेरा जबड़ा तोड़ दिया।उन्हें अभीभी बोलने तक में बड़ी तकलीफ़ हो रही थी। भीष्मजी बेचारे जैसे-तैसे सफाई देनेमें लगे थे: शीला, मेरी गलती नईंसी। गड्डी चलाण वाले नूँ कदी बी टोका-टोकीनीं करणी चाइदी। दायें से लो, बाएँ से लो, इधर से काटो; सुन-सुनकर ड्राइव करनेवाला कन्यूहो जाता है। जिसके हाथ में स्टीयरिंग, फैसला उसी को करने देनाचाहिए।हम लोग सारा मारा समझ गये। स्टीयरिंग भीष्मजी के हाथ में रहते हुएभी, आख़िरकार दिशा-निर्देश और मार्गदर्शन तो शीलाजी केही चलते थे! यारो, उनदोनों की अद्भुत और बड़ी प्यारी-सी गृहस्थी की चार-चक्का-गाड़ी में भी! यह बातदीगर है कि वक्तन-फवक़्तन शीलाजी यहाँ स्टीयरिंग भी प्रायः छीन ही लेती थीं।इस सुखद और प्यारी गृहस्थी की सफलता का यही राज था।

साहिबो! मैंने अनेक दम्पति देखे हैं। लेकिन भीष्मजी और शीलाजी-जैसा प्यार,अपनापा और आपसी दोस्ती और कहीं नहीं देखी। एक-दूसरे के प्रति ऐसा विलक्षणसमर्पण भी कहीं नहीं देखा। दोनों बिना कहे एक-दूसरे की इच्छा या मन की बातफ़ौरनजान लेते थे और वैसा ही करते भी थे। दोनों एक-दूसरे का इतना और ऐसाख़्याल रखते थे कि आज भी यह लगभग अकल्पनीय ही लगता है! उन दिनों मैं बड़ेगुस्सैल स्वभाव का था (अब नहीं हूँ! कसम से!!)। भीष्मजी मुझसे कहा करते थे,यार तूँ बड़ा गरम मिजाज हाँ, वोह्टी (पत्नी) नाल बड़ा लड़दा होएँगा!फिर लतीफ़ासुनाते: दुनिया केआधे मर्द अपनी जनानियों (पत्नियों) केजोरू के गुलामहोतेहैं...बाकी आधे झूठे! मैं तो भई सच मान लेता हूँ। सुखी-दाम्पत्य का यही राजहै। कुछ सीखो, यार, कुछ सीखो!हम अपने जनरल सेक्रेटरी से और बहुत सारीबातों के अलावा यह भी सीख रहे थे। डॉ. रामविलास शर्मा की तरह भीष्मजी भीअपनी पत्नी की सेवा करने और उनका बेहद ख्याल रखने के मामले में, मेरी दृष्टिमें, एकदम मेरिंग रॉड’ (सर्वोच्च पैमाना) थे! इतने कि मैं उनके और शीलाजी के  सामने ही उन्हें कई बार दुनिया का सबसे बड़ा पत्निभक्तऔर पत्निव्रती’ (पतिव्रताका विलोम) तक कह दिया करता था। (ज़ाहिर है कि रामविलासजी के आगे ऐसीगुस्ताख़ी की कल्पना तक से मेरी जुबान तालू से चिपक जाती थी, वह भी फ़ेवीकोलसे)। ऐसी गुस्ताख़ियों पर भीष्मजी तो धीमे-धीमे शरमाते रहते पर शीलाजी बड़ीखुश हो जातीं। मैं इस ची का बड़ा फ़ायदा भी उठाता! शुद्ध संगठन के हित में।

दरअसल, भीष्मजी ही नहीं, शीलाजी भी उनका बहुत ख़्याल रखती थीं। वे नकेवल उनकी सेहत, बल्कि उनकेलेखन-कार्य का भी बेहद ख़्याल रखती थीं। उनकीहर सुख-सुविधा का। विशेष रूप से उनके लिखने के समय का कि उसमें किसीभी तरह का व्यवधान न आने पाए। भीष्मजी की शाम को लिखने की आदत थी।लेकिन गया सम्मेलन की तैयारियों के सिलसिले में उनकी शामें अक्सर सूनीजातीं।भीष्मजी ने कभी कुछ नहीं कहा। मैं देर शाम भीष्मजी के साथ लौटता; और रो उनके यहाँ, ईस्ट पटेल नगर, चाय-स्वल्पाहार के बाद ही ईएसआई कॉलोनी (रमेशनगर) जाता; जहाँ मैं गीताजी के आने के बाद किराये पर रहने लगा था। हर बारचाय भीष्मजी ही बनाते। शीलाजी कहती भी थीं, तो उन्हें उठने नहीं देते और मेरीमदद की तजबीब भी ठुकरा देते। उनकेयहाँ पाश्चात्य और पंजाबी ढंग के दोनोंतरह के रेडीमेड स्वल्पाहार मौजूद रहते। कई बार की सूनी शामोंकेबाद एक बारशीलाजी ने कहा कि आप लोग तो रो ही दोपहर से देर शाम तक जनयुगमेंउलझे रहते हैं। भीषम कुछ लिख ही नहीं पाते। भीषम को तो शाम को ही लिखनेकी आदत है, और कोई टाइम इन्हें सूट नहीं करता। भीष्मजी ने कहा: ‘‘श्यामजीइसमें क्या कर सकते हैं! ये तो सुबह से शाम तक जनयुगमें ही रहते हैं। दोपहरको मेरे कालिज से वहाँ पहुँचने केबाद व्यासजी के साथ मिलकर घोषणा पत्रपरहस्ताक्षर लेने, लोगों की जिज्ञासाओं को शान्त करने, उनके कई तरह के ऐतराज कोदूर करने और उनकेसुझावों पर प्रतिक्रिया देने, फिर सम्मेलन में उन्हें ज़रूर पहुँचनेकी बार-बार ताकीद करने, सम्मेलन से सम्बंधित ढेरों दीगर बातों और तैयारियों के  सिलसिले में हमें हिन्दुस्तान भर के सभी भाषाओं के लेखकों से सम्पर्क रखना पड़ताहै। रोज़ दर्जनों चिट्ठियाँ लिखनी पड़ती हैं, सैकड़ों चिट्ठियों केजवाब देने पड़तेहैं, टेलीफोन पर बातें करनी पड़ती हैं। सुबह मेरा कॉलिज है, श्यामजी का जनयुगका काम है, फिर व्यासजी भी दोपहर को ही पहुँचते हैं।’’

मैंने बताया कि सुबह का निकला, अब मैं घर जाऊँगा, कुछ देर बाद खानाखाकर और देर रात कुछ खाने केलिए लेकर फिर रात केदो-ढाई बजे तक के  लिए चला जाऊँगा। ठीक आठ बजे रात जनयुगकी स्टाफ़ कार लेने पहुँच जातीहै। शीलाजी बहुत नाराज हुईं: हद है, भीषम, आप व्यासजी से कुछ कहते क्योंनहीं। आप या श्यामजी नहीं कह सकते तो मैं कहूँगी। ऐसे तो मुण्डा बेचारा(लड़का) बीमार पड़ जाएगा। फिर मुझसे: तेरी वोह्टी कुँज नयी कैंदी, ऐदाईं रेहाताँ तैनूँ छड्ड के माप्पेयाँ (अपने माँ-बाप) कौल तुर जाऊ।भीष्मजी हँसने लगे:शीला, गीताजी भी कम्युनिस्ट हैं।शीलाजी को जब लाड़-प्यार आता तो वे मुझेतुसीं (आप) या श्यामजी कहने से तैंनूँ’ (तुझे) या बेचारा मुंडापर उतर आतीं।मुझे भी बड़ा सुखद और अच्छा लगता। ऐसे ही एक बार उन्होंने सेहत के लिएदेसी घी की पिन्नियों का डब्बा दिया जो शायद कोई उन लोगों केलिए लाया था।शीलाजी इस बात को सहन नहीं कर पातीं थीं कि कोई भीष्मजी के अपने लिखनेके टाइम में व्यवधान डाले। इस मामले में वे न किसी का लिहाज रखती थीं औरन ही किसी की भी ऐसी गुस्ताख़ी को कभी क्षमा करती थीं। गया सम्मेलन के बाद,यह रोज-रोज़ की भारी गहमागहमी और थका डालने वाली मशक्कत तो बन्द होगयी, पर फिर भी पुनर्गठित प्रलेस के नये-नये बने संगठन और उसके मुख्यालय कोचलाने की ज़िम्मेदारी और उसकेढ़ेरों काम तथा व्यस्तताएँ तो थी हीं। भीष्मजी कीशामें तो उन्हें लिखने केलिए (हमेशा नहीं पर प्रायः) मिलने लगी थीं। लेकिन फिरभी, धीरे-धीरे प्रलेस के विस्तार और मुख्यालय केकामों में लगातार होती बढ़ोतरीतथा संगठन के काम से अक्सर बाहर आने-जाने से भीष्मजी का शामों का नियमितलेखन तो अनियमित हो ही गया था। शीलाजी इससे क्षुब्ध रहती थीं। ऐसे कितनेसौभाग्यशाली लेखक होंगे जिनकी शरीक-ए-हयातउनके लेखन-कार्य को लेकरशीलाजी की तरह अत्यन्त गम्भीर और सम्वेदनशील होंगी! भीष्म जी थे।भीष्मजी उस उम्र में भी (वे साठ पार कर चुके थे और सत्तर के करीब पहुँचरहे थे) हम नौजवानों से कहीं ज़्यादापरिश्रम करते थे। कॉलिज से रिटायर होनेके बाद तो वे चौबीसों घंटे प्रलेस के लिए खटते थे। अपना लिखना-पढ़ना औरखाना-पीना भूलकर, अपनी सेहत की कीमत पर भी। उन्हें देशभर के लेखकों सेनियमित पत्र-व्यवहार करना पड़ता था, उनकी विभिन्न संगठनात्मक समस्याओं कोसुलझाना पड़ता था। संगठन केविस्तार केसाथ-साथ देशभर में जगह-जगह राज्यसम्मेलन, सेमीनारों, समारोहों का ताँता लगा रहता। हर कोई चाहता था कि उसमेंभीष्मजी अवश्य आएँ। ज़्यादतर जगह मैं उनके साथ जाता। सबसे ज़्यादा उत्तरीभारत, ख़ासकर हिन्दी-भाषी राज्यों में।

अत्यधिक परिश्रम और यात्राओं (कई बार शहडोल सम्मेलन या भोपाल औरकलकत्ता-गुवाहाटी जैसी बड़ी असुविधाजनक तथा दुर्घटनापूर्ण यात्राएँ भी) के  फलस्वरूप भीष्मजी केबीमार पड़ जाने केकारण, अन्ततः शीलाजी ने यात्राओंपर अंकुश लगा दिया था। लेकिन कई ऐसे महत्वपूर्ण मौके होते थे कि भीष्मजीका जाना ज़रूरी होता था। तब मैं पूर्वोल्लिखित टैक्टिक्ससे शीलाजी को खुशकरके संगठन केहित में, अपने महासचिव का हरणकर लिया करता था! मेरीइस हरण क्षमताको लेकर प्रलेस के साथियों ने, विशेषकर मास्टर साहबऔरप्रमोद पाण्डेय ने कई तरह केजोक्सभी गढ़ लिए थे। यहाँ तक कि देश के  (हिन्दी साहित्य केतो निश्चित रूप से) सबसे नाजुक और अत्यधिक कोमलकांतसाहित्यकार नन्दकिशोर नवल को भी मैं भारतीय रेल केस्लीपर क्लास में हिन्दीप्रदेश में यहाँ से वहाँ तक न जाने कहाँ-कहाँ नहीं घसीट ले गया, जो शायद हिन्दीसाहित्य के सर्वाधिक यात्रा-भीरू लेखक हैं। लेकिन दो भले मानुस हमेशा मेरे औरभीष्मजी केअनुरोध पर सदा तत्पर’-जैसे फौजी (या स्काउट्सभी कह सकतेहैं।) अनुशासन से तैयार हो जाते थे। एक त्रिलोचन शास्त्री और दूसरे हमारे प्यारेशमशेर! त्रिलोचन अपने कपड़े केमैले झोले (जिसे सेवाराम त्रिपाठी अपने दादूलैंडके ख़ास बघेली उच्चारण में मुँह सिंकोड़कर झव्वालाकहा करता था) में एक खादीका गमछानुमा तौलिया और दो बिना प्रेस किए धुले कुर्ते-पायजामे डालकर तथाशमशेरजी अपने विख्यात फटे-पुराने काले बैग में नये सिरे से टाँकेलगवाकर तैयारमिलते थे। सर्दियाँ होतीं तो दोनों बुजुर्गवार बन्द गले केकोट (शमरेजी रंग-बिरंगी,स्वेटर भी) तथा बन्दर-टोपी’ (मंकी कैप) और मफ़लरों में सजे-धजे! हमारे हिन्दीसाहित्य का, ख़ासकर प्रगतिशील लेखक आंदोलन का, वह एक नया स्वर्णकालथा! ऐसी यात्राओं, उनकी हँसी-दिल्लगी और ज़िन्दादिली केदुर्लभ आनन्द की आजआप कल्पना तक नहीं कर सकते। ख़ासकर, आजकल के पाखंडपूर्ण, ईर्ष्याजनित,दम्भी और अवसरवादी मौहाल में!

लेकिन शहडोल सम्मेलन केबाद भीष्मजी, त्रिलोचन शास्त्री से और बाद मेंहमारे प्रिय साथी और प्यारे दोस्त खगेन्द्र ठाकुर के मामले में भी थोड़ी सावधानी औरसतर्कता बरतने लगे थे। यदि त्रिलोचन साथ होते तो वे यह चालाकी ज़रूर बरतनेलगे थे कि वे मेरे साथ ही कमरा शेयरकरें, उनकेसाथ नहीं, भले ही अन्य कोईभी साथी लेखक हो वह चल जाता! अब आने-जाने की ट्रेन यात्राओं में तो उनकाकोई बस चल नहीं सकता था! शास्त्री भगवान के अलावा वे खगेन्द्र ठाकुर के साथकमरा शेयरकरने केलिए किसी भी कीमत पर तैयार नहीं होते थे (बन्दापरवर,यह तो मैं भी करता हूँ। अभी भी!), अगर किसी बड़े हाल में फर्श पर सोना हो तोइस सामूहिक शयनकक्ष में उनका सदा यह सद्-प्रयास रहता कि उनका गद्दा खगेन्द्रठाकुर के गद्दे से, उनके भरसक ज़्यादा-से-ज़्यादादूर बिछा हो! इसमें कोई रहस्यभी नहीं है। जब एक बार मैं, नवलजी, कमला पांडे (कमला प्रसाद तब पांडे भीहुआ करते थे!) और खगेन्द्र जी रात को मुरली बाबू (श्री मुरली मनोहर प्रसाद सिंह)के यहाँ रुके थे, तो इस रहस्यके पर्दाफाश से मैं भी स्तम्भित और आतंकित होगया था (मुरली बाबू आतिथेय थे, अतः क्षम्य हैं; पर अब इसे तो नन्दकिशोर नवलकी हद दर्जे की बेईमानी ही कहेंगे न कि उन्होंने जरा भी मित्राता का निर्वाह नहींकिया जो पहले से सतर्क नहीं किया!)। पर अब यह रहस्यकोई रहस्य भी नहीं रहगया है। प्रलेस केप्रायः सभी साथी जानते हैं कि खगेन्द्र ठाकुर केगड़गज्ज गर्जनमें गूँजते’ (यह ग-ग-गबतर्ज भगवान, भारत वर्ष में गूँजे हमारी भारतीयानीभ-भ-भ’) ‘आर्टिलरीमार्का खर्राटों के चलते उनके आसपास दूर-दूर तक कोई नहींसो सकता। खर्राटों की धुन के साथ ठाकुरजी के मध्यप्रदेश का तना हुआ विशालतम्बू जिस स्वर-ताल-लय पर उठता-गिरता, इस मनोहर (मुरलीबाबू नहीं!) मनभावनमनमोहक मनोहारी दृश्य का वर्णन तो मेरे-जैसा अतुकान्त-छन्दमुक्त नया कवि नहीं,कोई हिन्दी के द्ददाया एक भारतीय आत्मा-जैसा सिद्ध कवि ही कर सकताहै! फिर कोढ़ में खाज यह कि अपानवायु की नियमित फुसकारियों को तो कोईप्राणायामी सिद्ध योगी ही शायद झेल पाने में समर्थ हो तो हो, मेरे-जैसे आलस्यावतारके बस की तो यह बिल्कुल नहीं! ऐसी हालात में फँस जाने पर मेरे-जैसे कायर तोऊपरी मंजिल से कूदकर जान ही दे देंगे; या धरती का धरातल मिला तो आसपासकुँआ तलाशने लगेंगे।

बहरहाल, भीष्मजी केइस संस्मरण में यह मधुर-मनोहर-मर्यादाहीन वर्णन मेरीविवशता है। एक तो मेरा सच्चाई का नितान्त पक्षधर होना, फिर यथार्थवादका आग्रह; भले ही इसकेलिए मुझे प्रिय दोस्त ठाकुरजी फाँसी दे दें (पर उनकेबोफोर्स’ के गोले कदापि नहीं! शान्तम् पापं!!)। इसके अतिरिक्त, यदि यह पृष्ठभूमि (कुछविस्तार के लिए क्षमा करें) न होती तो मैं आपको उन वैज्ञानिक उपायों के बारेमें कैसे समझा पाता जो एक बार भीष्मजी ने हमारी मंडली में सुझाए थे। शायदराष्ट्रीय कमेटी की भोपाल बैठक में। नींद न आने पर देर रात शाकिर भवनके  नीचे चाय की गुमटी पर कड़चाय-धूम्रपान के दौरान। जब हँसते-हँसते हमारे पेटमें दर्द होने लगा था और पास के पेड़ों पर सोए पक्षी जागकर फड़फड़ाते और चीखतेडरकर उड़ने लगे थे। आपने बच्चों की गुब्बारेवाली पीपनी तो देखी ही होगी; अपनेबचपन में बजा-बजाकर बुजुर्गों की नींद हराम भी की होगी। मैंने तो खूब की थी।भीष्मजी की तजवीज़ थी कि ऐसी ही पीपनी लाकर मुँह में तथा बोफोर्समें (तबबोफोर्सनाम कोई नहीं जानता था, भीष्मजी उवाच सही शब्दों से अश्लीलताकाआरोप लग सकता है, क्योंकि वे असंसदीय हैं) लगा देनी चाहिए। तब यह भयानकऔर डरावनी आवाजेंकुछ तो मधुर या संगीतमय हो सकेंगी। मेरे यह कहते ही किचलो कल सुबह ही ठाकुरजी को महासचिव का सुझाव बताता हूँ, भीष्मजी चिल्लापड़े: ओए यार, जूते पड़वाओगे!मैंने दिलासा दिया: ठाकुरजी चप्पल पहिनते हैं।वह भी ख़ासी घिस चुकी है। ज़्यादा तकलीफ नहीं होगी! साहिबान, भीष्मजी जितनेसंकोची, गम्भीर और विनम्र थे, उतने ही ज़िन्दादिल, हँसी-मज़ाक और हास्य-व्यंग्यके उस्ताद भी थे। लेखन ही नहीं, जीवन में भी।


वर्ष 2016 के विश्व पुस्तक मेला में भीष्म साहनी की सुपुत्री कल्पना साहनी जी और लेखक श्याम जी के सान्निध्य में वाणी प्रकाशन द्वारा प्रकाशित पुस्तक 'भीष्म साहनी'का लोकार्पण किया गया। इस अवसर की एक तस्वीर आपसे साझा की जा रही है। 







महानगरी के नायक | मनोहर श्याम जोशी

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(1933-2006)

भारतीय सोप ओपेरा के जनकमनोहर श्याम जोशी 
 के जन्मदिवस पर पढ़िये...
'महानगरी के नायक'
का अंश 
ओ महानगरी, ओ महामाया!



महानगरी के नायकमें मनोहर श्याम जोशी जी के पात्र कोई प्रसिद्धि प्राप्त, आसमान को छूती हुईबुलन्दियों वाले केवल नायक ही नहीं बल्कि गन्दी हाफ पैण्ट-कमीज पहने, त्यौरियों पर आक्रोश औरआँतों में अलसर धारण किए हुए, दर्जनों ट्रे एक साथ उठाये कैण्टीन से दफ़्तर और दफ़्तर से कैण्टीन जाता हुआ रंजन है। रेसकोर्स में घोड़ों की रेस खेलता ओमप्रकाश है, बाल काटने वाला नाई है, रेस्तराँवाला शमशेर इत्यादि पात्र हैं, लेकिन उनके चेहरे पे चेहरा है। दिन में इतनी मेहनत करने वाला रंजन साँझ के रचे हुए होंठ, चिकन का कुर्ता, बढ़िया लट्ठे का पाजामा, जयपुरी पगड़ी में नज़र आयेगा, जोकि संगीत का विद्यार्थी व पारखी है।

संस्कृति और भारतीयता के नाम पर भी दो प्रकार के नायक हैं। एक वे, जो विदेशों की चमक-दमकसे प्रभावित होकर देश छोड़ने के पक्षधर हैं, दूसरे अध्यात्म रूप में समृद्ध भारत तथा शिक्षा के क्षेत्र मेंभी कुछ अंग्रेज़ी के कायल और कुछ हिन्दी के पाद पखारने में विश्वास रखने वाले। या यूँ कहिएजवानी को आधुनिकता प्यारी है और बुढ़ापा अपनी प्राचीन धरोहर को लेकर रोता है।


पिछले इण्टरव्यू में हम धन्धों की बात कर रहे थे। बम्बई सचमुच धन्धों की नगरी है। यह बात और है कि कुछ को ये धन्धे ख़ासे गोरखधन्धे नज़र आते हैं। यहाँ ब्रीच कैण्डी में, जहाँ बैठकर मैं यह प्रस्तावना सोच रहा हूँ, इन धन्धों या गोरखधन्धों का कोई आभास नहीं है। सप्तमी का चाँद क्षितिज से काफ़ीऊपर चढ़ आया है। भोर नीले सागर के एक छोटे-से टुकड़े पर चाँदनी बरसा रही है। सागर तट लगभग सूना है। यहाँ-वहाँ चट्टानों पर कुछ दुकेले जन प्यार कर रहे हैं और कुछ अकेले जन पगुरा रहे हैं। दूर की यह वासना मुझे कितनी सुहानी लग रही है! मेरी जेब में एक चिट्ठी है और मेरे मन में एक उदास-उदास-सी ख़ुशी है। मैं एक धुन गुनगुना रहा हूँ जो मुझे बहुत आते-आते याद आती है। मैं मन्त्रमुग्ध हूँ। शिला-सा शान्त हूँ। मेरी यही कामना है, लहरें आयें और मुझे तोड़ती रहें-धीरे-धीरे, बहुत धीरे-धीरे। लेकिन मैं जानता हूँ कि मुँह मोड़ते ही यह मन्त्र टूट जायेगा। वार्डन रोड की चहल-पहल मुझे चकाचौंध कर देगी। धन्धों की नगरी मन को अन्धा बना देगी। सागर के समीप चट्टानोंपर उगा हर प्रेमपुष्प अधखिला ही मुरझा जायेगा। महानगरी का यह सकल सुख-स्नेह कल किसी कूड़ागाड़ी में इस्तेमालशुदा उपकरण-सा पड़ा पाया जायेगा। निर्मम है यह नगरी और इसका सिद्धान्त यही है, छह दिन बेतहाशा कमाओ और सातवें दिन उड़ाओ- गटर में छिपी हुई शराब और कोई वेश्या सड़क-छाप। जो आपका दिलबहलाव, वही दूसरे का रोज़गार। धन्धे से कोई पार नहीं अदला-बदली और व्यापार की इस नगरी में। निर्मम है यह नगरी, फिर भी हर कोई इसकी ओर खिंचा चला आता है। और जो आता है, वह फिर लाख चाहे, और कहीं न जाताहै, न जा पाता है। क्या है रहस्य इस महामाया का? भेद सुनिये, सिने-लेखक और पत्रकार उमेश माथुरसे-

बम्बई नगर एक जुआघर है। इस जुआघर में ब्लाइण्ड चाल ही चलती और फलती है। मेरी तरह अकसर लोग यहाँ सुख, सेहत, सुकून-सब कुछ हारते ही जाते हैं, मगर बाजी छोड़ नहीं पाते। मैं चार बार बम्बई से अलविदा कह चुका हूँ और चारों बार झूठा साबित हुआ हूँ। समझे भाई, यहीं सब कुछ हारे हैं, उसे वापस पायेंगे तो यहीं। कभी तो साला पत्ता पलटेगा। क्या? बस यही चक्कर है बम्बई का, और कुछ नहीं।यह कहकर उमेश अपना गुरुत्वाकर्षण केन्द्र कभी दायें, कभी बायें झुकाते हुए, मरी-मरी-सी चुटकियाँ बजाते हुए, कमरे में तेजी से चक्कर काटने लगे। चक्कर काटना उमेश का चहेता शगल है और चक्करउसका तकियाकलाम है। जब हम पहले बार बम्बई आये न, तो यही कैमरामैन बनने का चक्कर था अपना। साइन आफ द क्रासकी फोटोग्राफी देखी, मस्त हो गये। कोई बात है न! आर.डी. माथुर साहब एक दिन दिल्ली में किसी रिश्तेदार के यहाँ मिल गये। मैं उन्हें बोर करने लगा। वह बोले- अभी बच्चे हो, पढ़-लिख लो, तब बम्बई आना।मुझे बड़ा गुस्सा आया। यह आर.डी. माथुर साहब लाख नामी कैमरामैन हों, अपने को समझते क्या हैं? और मुझे समझते कहाँ हैं? तो इस चक्कर में हम मैट्रिक की फीस के पैसों से टिकट कटाकर बम्बई आ गये। घर से भागने का चक्कर अपना चलता ही रहता था, समझे हालात ही कुछ ऐसे थे। खै़र, तो बम्बई पहुँचे साहब, मुबारक से मिले। उसने रणजीत में एल.एन. वर्मा का एपरेण्टिस करवा दिया। न तनखाह, न चैन, नाम कैमरामैन। बैठे-बैठे कैमरा रिपोर्ट भरते थे। एक दिन उसमें खुरशीद ने नाम के आगे मिस लिख दिया, तो बगल में खड़े किसी मसखरे ने कहा-म्यां, नये आये मालूम होते हो, एक्ट्रेस भी कभी मिस हुई है?’ हीराबाग धर्मशाला में रहना और रोज़ रणजीत तक पैदल जाना-आना। दैनिक बजट महज चवन्नी का। इस चक्कर में बीमार-से रहने लगे। बम्बई से विदा ली। घर लौटे। फिर लाहौर गये। दो-तीन महीने पंचोली में रहे। मिस्टर मल्होत्रा के साथ असिस्टेण्टी का चक्कर चलाया। मगर बात कुछ बनी नहीं। प्रेम-पत्र लिखने का अकसर अभ्यास करते रहे थे। तो यह तय पाया कि कैमरे-वैमरेका चक्कर छोड़कर कलम के सिपाही बनें। हमारे नाम से एक संगीत-रूपक किसी मसखरे ने लिख दिया था। तो हमें मुफ्त की बधाइयाँ मिलने लगी थीं। खै़र साहब, इस चक्कर में हमने बधाइयों के लायक बनने की कोशिश की। दिल्ली आ गये। रेडियो-वेडियो के लिए लिखने लगे। शादी का भी चक्कर चलाया-प्रेमपूर्वक। घरबारी, संसारी हुए। ज़िन्दगी कुछ बनती नज़र आयी, लेकिन हमारी तो क़िस्मत ही साली उससे लिखी हुई है, समझे न! एक दुर्घटना से पत्नी का देहान्त हो गया। टूट गये भीतर से। दिल्ली छोड़ दिया। लखनऊ गये। वहाँ सरकारी फ़िल्म विभाग में नौकरी का चक्कर चलाया। बस-बस, वही आइडियल स्टूडियोज। वहीं थे हम साब। एक फिल्म लिखी, डायरेक्ट भी की। लेकिन वह चक्कर ही ख़त्म हो गया। हम रेडियो आर्टिस्ट सुशीला वैद्या की चिट्ठी लेकर बम्बई पहुँचे। ठाठ से दतिया पैलेस में ठहरे। ठाठ बड़े हमारे साहब। रहने के लिए आठ कमरे का महल, खाने के लिए पाव-उस्सल भी नहीं! दोस्तों की मेहरबानियों पर जिये। कुछ अपनी कारस्तानियों पर जिये। जब भूख का चक्कर बहुत परेशान करता, करीने से कपड़े-वपड़े पहनकर किसी बढ़िया होटल में जा बैठते। प्रेमपूर्वक खाना खाते। बिल देने के मौकेपर जेब टटोलते हुए पाये जाते। पता लिखवा देते थे और फिर पता नहीं देते थे। तारा हरीश ने के.बी. लाल के यहाँ असिस्टेण्ट रखा दिया था। मजनू-मजनूकहा करता था अपने को। अगली पहली तारीख आयी कि उसने रुपये अस्सी देकर हमें रवाना कर दिया। तो हमने जूते ख़रीदे और लखनऊ तक के लिए टिकट। वहाँ चक्कर नहीं चला, तो घर पहुँच गये-वृन्दावन। घरवालों से हमारी यह खस्ता हालत देखी न गयी। आठ-नौ महीने जमकर हमारी सेवा हुई। हेल्थ- वेल्थ का चक्कर चला, समझे! तभी एम.ए. लतीफ साहब ने बुला लिया बम्बई। डार्लिंग फ़िल्म में पिचहत्तर रुपये माहवार पर असिस्टेण्टी की। पिचहत्तर रुपये से बम्बई में क्या बनता है! अँधेरी से एथ्रीलिमिटेड में बैठते और कहते-भई, वरली का टिकट दो।कण्डक्टर कहता कि वरली नहीं जाती, तो हम कहते हैं उतार दो।पार्ले में उतरे। ओटूपकड़ ली। कहा कि भिण्डी बाज़ार का टिकट दे दो। अगला कहता कि भिण्डी बाज़ारनहीं जाती। हम कहते कि उतार दो। इस चक्कर में जहाँ तक पहुँच गये, ठीक है। फिर विनोबा जी के चेले। बहुतबोर हुए। नये सिरे से कलम की नोक दुरस्त की। पहली फ़िल्म लिखी। राजपूत। ढाई सौ रुपये माहवार मिले। तबसे लेखक हैं, दूसरे लफ्जों में कड़के हैं। लाजवन्तीऔर शराबीजैसी फ़िल्में लिखते रहे और बीच-बीच में कंगाली का आलम लिखते रहे। ऐसे ही एक आलम में हम किसी के बालम बन बैठे। मलाड में हमारे मकान-मालिक की जो लड़की थी, उसे हम देखते थे और अकसर देखते ही रहते थे। प्रेम का चक्कर था साहब। और प्रेम में अपने सिफर हैं। फरुखाबादी खेल के कायल हैं। यानी हाथ पकड़ो और पूछो, क्या चक्कर है। चट मँगनी, पट ब्याह। सान्ताक्रुज स्टेशन की घड़ी के तले मिलते रहे और एक ऐसी घड़ी भी आयी कि कोर्ट में जा पहुँचे। कुबूल? कुबूल। बेकारी और बीवी, दोनों चीजें एक साथ निभाना, ख़ासा चक्कर था, साहब। लेकिन चलाया वह चक्कर। पिछले साल तो हम बोरिया-बिस्तर बाँधकर फिर वृन्दावन की कुंज गली में जा पहुँचे थे। फिर आ गये। हम तो बम्बई छोड़ दें, लेकिन बम्बई साली हमें नहीं छोड़ती!

मोटर ड्राइवर इनास लोबोबम्बई छोड़ना चाहते भी नहीं। आप बम्बई के हुस्न पर कुरबान हैं। कहते हैं-“हम डैली, कलकैटा और दूसरा बहुत शहर देकेला है मगर ऐसा माफिक, समझो, लड़की लोग किदर नई है। लड़की नई होने से जिनगी साला बेकार है। इधर हम दर मइना किसी को पकड़ता है। बयालिस रुपया का ख़र्च है, क्या? कैसा? कोई जाता दिके तो यह समझना पैला कि यह माल आता है कि नई? समझो सूरत में से मालूम होता कैसा? सीटी मारा, वह हँसा, क्या? माने दिल है उसका भी। दो दिन ऐसी किया, तीसरे दिन साथ-साथ चला, दोस्ती बनाया, क्या? पूछने का रजा किस दिन? उस दिन का दो बाक्स का टिकट निकालने का। कैसा? तीन तीन रुपये वाला। टैक्सी से ले जाने का। पाँच रुपया समझो टैक्सी और खाने-पीने का, फिर सेकेण्ड सो से सीधा ओटल। दिन भर काम करेगा तो आराम-मौज बी करेगा। क्या हुआ जो इक्कीस रुपये का ख़र्च, मौज की मज़ा। नई शादी बनायेला है मैं। समझो घर पर मदर है तीन ब्रदर हैं। फादर तो नहीं है। अच्छा सिस्टर भी समझो-एक। पन्द्रह साल तक मैं गाँव में था। ज़िला? मंगलूर। बीड़ी बनाता था, मजूरी करता था, समझो। बाई हमारा रुआबकिया, तो गाँव से बाग गया। नेई लड़की लोग का कोई लफड़ा था नई। वह क्या था? जुआ-कुआ खेला कुछ ऐसा ही।

बाग के आया विदाउट। गाँव वाला इदर मिला नई बम्बई में। किसी को जानता भी नई था। पैसा भी नहीं था, क्या? कैसा? समझो भूखा मरके रहा। तो ओटल में काम किया। एक साल में कम से कम दस ओटल में नौकरी किया। अमको काम करना आता नेई। प्लेट-उलेट सब थोड़ता मैं। इसलिए हटाता था वह। उसका बाद मेकेनिक काम किया गाड़ी का, समझो छह महीना। मालिक ने ऐसे मुझे कपड़ा तोने को कहा, तो जकड़ा हुआ चोड़ दिया। मैरीन ड्राइव में समझो एक कम्पाउण्ड में सोता। वहाँ से भी दो मइन में अगाल दिया। अच्छा, फिर मैं सीधा गया दिल्ली। आठ-नौ आना था। एक घण्टा समझो, दो घण्टा ठैरा। ओटल में नौकरी देखा नई मिला। वापस बम्बई आया। कैसा? पूरा सात दिन में। टी.टी. आता, अगाल देता। सात दिन में भूखा रहा, क्या? बम्बई आके किसी कम्पाउण्ड में गया। गाड़ी तोने का धन्धा पकड़ लिया। ड्राइविंग सीख गया तो लाइसेंस निकाला। एक साल करके मंगलूर गया। उदर शादी किया। बीवी उदर ही चोड़ आया। रख दिया समझो रिजरवेशन करके। नरकिस का बाई था समझो अनवर उसेन। उसके पास ड्राइवरी किया। तभी समझो पहला लड़की मिला। गोवा का था। कैसा? अटरा साल का। उसको पता लगा मैं शादी किया, तो जकड़ा कर छोड़ दिया। फिर छोकड़ी मिला कारवार का। उसको कमसे कम दो मइना थी मेरे साथ। उसका बैन उठाकर ले गयी। तलाश किया, मिला नई। हाँ, शादी के बाद ही लड़की लोग पकड़ा। पहले समझेगा कैसा? कई जगह ड्राइवरी किया। फिर एक साहब मिला, उसका फिक्सेड काम नक्की बोला था। पगार अच्छा था, क्या? पच्चीस दिन के बाद समझो उसका हारट फेल हो गया। हमारा बुरा दिन आया। एक्सीडेण्ट हुआ, जुर्माना लग गया। चालू नौकरी अच्छा अपना। थोड़ा-बहुत पैसा जमा हो गयेला है, हमें दुकान निकालने का आइडिया है। फरुट का दुकान। बच्चा? एक नग निकाला है। तीन साल का लड़का है। बीवी? साथ में है। लफड़ेबाजी? समझो चलता है। कैसा? मइना में दो बार। बीवी नाराज़ कैसा होगा? उसको इन्दी पड़ेगा कैसा? कोई पड़ देगा तो हम कह देगा कहानीवाला ऐसा ही लिख देता है।

चार दिन जकड़ा होगा, समझो इसके लिए तुमको जूट क्यों बोलेगा हम। जो सच्ची बात होयेगा, वैसा कहेगा। अपना कमाता है, अपना उड़ाता है, किसी के बाप का नहीं।

पाप कैसा? जो करता नहीं ओ अन्सान दिखाओ। क्या? करता सब है, समझो, चुपाता है दूसरे से। हम चुपाता नई। कैसा? नरक में, अबी समझो, सबी तो जायेगा। हम भी चला जायेगा। अबी इदर तो मज़ाकरो। कैसा?

रफूगर गुलाम हसन कश्मीरीभावुक प्राणी है। आपको बम्बई मार्का महीने की दो मोहब्बत में कोई आस्था नहीं। यहाँ तक कि मोहब्बत में भी आपकी आस्था डगमगा उठी है। बम्बई शहर में आप अपने को भुलाने के लिए, कहीं खो जाने के लिए, गरज यह कि गम गलत करने के इरादे से आये हैं। कहते हैं-मेरी सोला बरस की उमिर थी जब मैं गर से निकला। जिकर यह बारा साल पहले का। डाकूमिण्ट्री फ़िल्म शिरिनगर कश्मीर में दिकाता था सरकारी गाड़ी। मेरी बहेन का लरका साथ में लेकर में देकता था उसको। लरका बहुत कुबसूर्त था। बगल में एक नाजनीन उसको प्यार किया, बात किया। फिर न वो पिक्चर देकती है, न मैं देकता हूँ। ऐसा दिलचस्प बात हुए आँकों-आँकों में कि हम एक दूसरे के हो गये। वह बहुत बड़ा आदमी का लरकी। उससे फिर मुलाकात नहीं हुआ। दिन-ब-दिन में बिमार होता जाता हूँ। न कोई हिकीम इलाज कर पाता है, न डाक्टर। दरगाओं में जाकर सिजदे में रोया में। कबी बताया नहीं किसी को कुछ। मोलवी अता साब मुझसे पूछते हैं, बचा, क्या हुआ तुमको? मेरी आँकों से आँसू गिरने लगा। वह बोले, तुम छुप रहो, तुमारे दिल का हाल हम पर जाहिर है। ये दो दवा हैं, एक अबी लो, दूसरा कल। दवा लेने से कुछ फारगी हुआ मुजे। शिरिनगर की हर मंजर मेरे को काटने धौड़ता था। मैं अमरतसर चला गया। एक मीने उदर रहा। बुखार में पड़ा रहा। झीझा हमारा उदर आता था वापिस बुलाने, इस वजह से दिल्ली भाग गया। सात मीना उदर रहा। उदर चाचा आया, यानि के अंकल मेरा। मेरे से सब पूछा, क्या तकलीफ बचा तुमें? में बोल सका नहीं। रेवाज दूसरा है मेरे मुलुक का। ऐसे लव के बात उदर कहते नहीं। आतवार शाम को हमें शिरिनगर निकलना था, आतवार सुबह मेंबम्बई का टिकिट निकाला। शुरू में बहुत तकलीफ उठाये। में अपने मुलुक के रेवाज में रहता था। हिन्दुस्तानी जूबान भी साफ़ नहीं था। एक वाकिफ के साथ काम किया रफू का। आठ-नौ सौ रुपया जमा किया। फिर वार्डन रोड, पार्टनरशिप में दोकान निकाला। पार्टनर बदमास, जुआ खेलता, दारू पीता। वो मेरे पर कर्जा डाल के चला गया मुलुक। मैंने मिहनत से नयी दोकान चलाया। सात-आठ कारीगर भी कड़े कर दिये। एक रानी मेरे को कारपीट रफू का काम देने लगे पेडर रोड में। आडर यह निकालती है कि कश्मीरी पोंचें तो कोई रोको नहीं, सीधा मेरा कमरा में आने दो इसे। जब में जाते हैं तो सिंगार करते होते हैं। हाल पूचते हैं प्यार से। पसीने चूटते हैं उनका हुस्न देककर। लेकिन जभी वह पीठ पर हाथ रखकर कहते हैं, बचा, तुम गबराओ मत, हम तुमें अमदाबाद ले जायेगा, ज़ारों का काम दिलायेगा, इंसान बनायेगा, तो मैं समझता हूँ, ये माँ हैं मेरी। मैं मुलुक जाता हूँ। एक मीने में लौटने का वादा करके। लेकिन मुझसे देरी होता है। रानी साबा चला जाता है। कम्मर टूट गया मेरा। में सीदा सिनेमा जाता हूँ। एक के बाद एक तीनों शू देकता हूँ फ़िल्म बरसातका। मेरा आदत, सोबत बिगड़ता है। लोक कहता है तुम हीरो है, दलीप कुमार। में फिलिम लाइन वालों के पास जाता हूँ, वह हँसते हैं मेरा जुबान सुनकर। तो इदर इप्टा कोम्पनी जाइन कर लिया मैंने। ड्रामा में काम किये, जुबान सुधरा। फिलिम में एक्स्ट्रा रहे। एक बड़ा रोल मिला, स्टण्ट फिलिम में, लेकिन बेमार हो गया। हफ्ते के अन्दर तीन दिन बेमार, एक हज़ार कर्जा चढ़ा। बाड़ा नहीं दे सका। बदन पर सूट, पेट में काना नहीं। एक दिन एक अँगूठी मिली चाँदी की। मैं भूका था। अँगूठी बेची तो चार आना मिला कुल। एक आने की माचिस लिया, एक आने की बीड़ी। दो बन्द पाव लिए, समुन्दर किनारे बैठा। सूके पाव काये, आँसू से हलक तले उतारे। सोचता हूँ, यहीं मर जाओगे, अपनी मीट्टी में दफन नहीं मिलेगा। मैं मुलुक गया, बेन की मँगनी में। मुझे देखकर कुशी मातम में बदल गया। मेरे बाप ने कहा, यहीं रहो, कसीदाकारी का कारखाना है अपना, उसे देखो। में शायद रह जाता लेकिन हमशेरे की बात लेकर हमारा बाई ताना मारा। तुम परदेसी गर की बातों में क्यों बोलता? मेंने सोचा यहाँ मेरा कोई हक नहीं। छुपछाप दिल्ली गया में। कश्मीर केलोकों के साथ रहा। वहाँ सामने एक लरकी रहती थी, मुसलमान की। रोज़ चिलमन उठाकर देकती। में उसको लेटर लिखता हूँ रोजीना, दे नहीं पाता। बात भी होता नहीं। बस देकता है दोनू। फिर एक दिन देकता बी नहीं। आवाज़ सुनता हूँ, बस रोने का। और फिर चिलमन से एक हाथ निकलता है, मेंदी रंगा हाथ। अँकूठी देकता हूँ अँगुली में। फिर भी इस बात को आगे बढ़ाना चाती है वह लरकी। में कहता हूँ, बेफुजूल है। बर्तन ठोंस फेंक देती है, कहती है, एक बार आ जाओ पर। में ख़ुदा का नाम लेकर जाता हूँ। सारे लव लेटर दे आता हूँ। पढ़ती है वह, झरोखे में बैठकर, और रोती ही जाती है। मेरा आँसू भी थमता नहीं। कुछ लिखती है वह लरकी कहती है, उदर आओ गुस्लकाने की तरफ। वहाँ वह रखती है एक डिब्बे में एक कत, एक रोमाल, कुछ निशानियां मोहब्बत के। में जब तक आइस्ता आइस्ता उदर पोंचू, लरकी का बेन उठा लेती है, डिब्बे को। माँ-बाप को पता चलता है। में नमाज में बैठ जाता हूँ। बाप कालियाँ देकर चला जाता है। में लरकी से कहता हूँ इशारे से, चलो कोरट में जाएँ, निकाह कर लें। लेकिन लरकी पर पहरा है। मुजे कश्मीरियों ने गर से निकाल दिया है। मेरा कोई नहीं अपना, दिल का दर्द ही साती है। तो में फिर बम्बइ आता हूँ। मिहनत की रोटी कमाता और खाता हूँ। अपने आथ से काम करके। अच्छा-बुरा जो भी होगा, यही होगाμइसी परदेस में, शिरिनगर से बहुत बहुत दूर। यही मर्जी है मालिक की। मोहब्बत के लिए जिया हूँ में, उसी को तरसता एक दीन मर जाऊँगा। शायद वहाँ, दूसरी दुनिया में सची मोहब्बत हो।

गुलाम हसन का बयान रुँधे कण्ठ और डबडबायी आँखों में कहीं खो गया। मुझे अजहद चिढ़ हुई अपनी भावुकताहीन आधुनिकता से जिसके पास संकोच ही संकोच है, सहज सहानुभूति नहीं। चन्द्रकान्त मयेकर न गुलाम हसन की तरह भावुक है, न मिस्टर लोबो की तरह चालू है। मैं जिस गेस्ट हाउस में रहता हूँ, उसमें चन्द्रकान्त जनता की सेवा में नियुक्त हैं। चन्द्रकान्त का चेहरा-मोहरा और बातचीत कुछ ऐसी है कि वह निम्न मध्यवर्ग की बजाय मध्यवर्ग का प्रतिनिधि मालूम होता है। गेस्ट हाउस के अन्य नौकरों के बीच वह साफ़ अलग नज़र आता है। इस इण्टरव्यू के लिखित बयान देना ज़्यादाउचित समझा। आप भी पढ़िये-1957साल में मैं स्कूल से निकला, क्योंकि गरीबी के कारण मुझे स्कूल छोड़ना पड़ा और 1960में मैं बम्बई आया। नौकरी के लिए बम्बई में 15दिन बिगाड़ा। और उसके बाद मेरा एक दोस्त तुकाराम सोनकर मुझे जे.जे. अस्पताल में जाते समय मिला। मैंने उसको परिस्थिति क्या थी-यह बताया। उसने हम को नौकरी के लिए कुमकुम ले गया। मुझ को उसके जगह में लगाया। मैं वहाँ दो महीने रहा। मेरा एक लड़की से प्रेम था। उसकी वजह से मैं कुमकुम से निकला। लड़की के साथ पूना चला गया। मैं और वह दो-तीन साल साथ में रहे। उधर रोगार अच्छा नहीं था, इसलिए फिर बम्बई आ गया। गेस्ट हाउस में नौकरी फिर शुरू किया। मैं हिन्दी परिक्षा में बैठा और पहिला आया। मेरे पास पैसा जमा होने के बाद में मैंने दादर में एक खोली लेकर मेरे प्रेमिली को उधर रखा। मैं गेस्ट हाउस में ऐसा छोटा नौकरी करता हूँ, यह उसको मालूम नहीं। थोड़ा और पैसा होने से मैंने प्रेमिली को एक साड़ी भी ली। मेरा उसका प्रेम कभी हुआ कि जब मैं स्कूल में था, तब हम दोनों एक दूसरे को देखे थे। पहले देखकर हँसने लगी। बाद में बोलना शुरू हुआ। फिर एक दिन वह मुझे बोले कि चन्दू, तेरा प्रेम मेरे पास है। मगर मेरी इच्छा है कि हम दोनों बाहरगाम जायेंगे। तो हम पूना रहा, ख़ूब मज़ाकी। लेकिन जब पैसा भी नहीं रहा तो लौटना ही पड़ा। नौकरी लगते ही मैंने मेरे दोस्त सोनू से बीस रुपया उधार लेकर मेरी प्रेमिली के लिए रासन भर दिया। जो कुछ हो सकता है, होता है, उसके लिए करता हूँ। हम दोनों का यह प्रेम-प्रकरण मेरे माता-पिता को अब तक मालूम नहीं है। एक बार मैं सैनिक में जाने का विचार था। लेकिन वजन कम होने से हुआ नहीं। मिल में मजदूरी भी मैं किया। लेकिन इज्ज़त, पैसा, शान्तता कहीं देखा नहीं। नोकरी मैं अच्छा ढूँढता हूँ लेकिन नौकरी कहाँ भी मिलती नहीं वैसी। मेरा अब नाइलाज है। जो सहारा है, बस प्रेमिली की है। उसका फोटू अपने बटुए में हमेशा रखता हूँ। वही हिम्मत बँधाता है।

हिम्मत बँधानेवाली की तलाश में हैं हमारे एक उत्तर भारतीय मित्र। कपड़े की फेरी करते हैं, लेकिन रहते किसी और ही फेर में हैं। अब तक उनकी

कोशिश कामयाब नहीं हुई है। नाकामयाबी का इतिहास उन्हीं से सुनिये-

नाँव हमार हय सुन्दर सिंह। गाँव अकौनी, डाकखाना बरनापुर, ज़िला गोंडा क रहयवाला हई हम। बम्बई हम आयेन पइसा कमाये, रोजिगार करे वास्ते। खेती? जमीन त काफ़ीहय बाकी त खेती अकेले के बस क नाहीं। यह से जमीन दै दिहिन अधिया पर, बँटाई पर। घर में केहू नाहीं हय। महतारी-बाप के मरे 4-5साल होइ गवा। शादी? शादी नाहीं भवा। पइसा क तंगी रहा, यह से केहू आपन बिटिया देबय बदे तैयार नाहीं भवा। हाँ, कबौं-कबौं कोरियात जरूर रहेन। एक दाई मन बिगड़ा त आम देइके एक ठे मेहरारू फँसावत रहेन, तब तक हमार एक ठे दोस्त आय पहुँचा। ऊ पहिलै से ताड़े रहा, पेड़े के आड़े छिपा बैठा रहा। जैसैं हमार सब काम फिट भवा तैसैं ऊ मौहरायेस-हे हमहूँ हई। सब खेलि बिगड़ि गवा। बना काहे नाहीं। गाँव में भी बना अउर बहरे भी। घर क याद? हमेस आवत रह ला। ई फागुन महिन्ना में बिसेस। होली क याद, तीज-त्यौहार क याद, सगी-दोस्तन क याद, बाग-बगिया क याद, झुन्नू के महतारी क याद। अब का बताईं केकर-केकर याद आवत हय! रोजिन्ना क काजकरम? घंटा-दुइ घंटा घरे-दुआरे बइठना, फिर खेती-बारी क काम देखना, संझा बेर फिर अपने दुआरे पर बइठना। दम-वम? हुश, नाहीं। पढ़ाई? पहिली किताब पढ़े रहेन-दर्जा अलिफ। गाँव में प्राइमरी स्कूल रहल। बम्बई आये 4साल होइ गवा। आय रहेन पइसा कमाये, बियाह करै बदे। पइसा क ज़रूरत? बियाह करै ख़ातिर पइसा क बहुत रूरत पड़त हय। पइसा रहल होत त कतौं सौ, दुइ सौ देइ के बियाह कइ लिहे होइत। बम्बई पहुँचे त अपने गाँव के तिवारीजी के इहाँ गये। कुछ दिन ओनही के इहाँ रहेन। कुछ पइसा क जोग कइके हम आपन धन्धा शुरू कइ दिहेन। कपड़ा क फेरी करै लागेन। गमछा, लुंगी, चदरा। व्यापार? व्यापार अच्छा चलत हय। आमदनी इहै 5-7रुपिया रोज़ क। खर्चा डेढ़-दुइ रुपिया रोहोइ जाला। 90पैसा होटल वाले के देई थ। खाई थ एकै जून, यह से ख़ूब डटि के भोजन करित हय। होटलवाला भी याद करत होई कि केहू मिलल बा। जमा? कुछ पइसा जमा ज़रूर कइ लिहेन। शादी ख़ातिर खोली? पहिले बियाह होइ जाय, तब खोली क कतौं इन्तिजाम करी कि पहिले खोलिए पर आपन कुल पइसा खरचि देईं। कोसिस? कोसिस काहे नाहीं करित। अपने जान-पहिचान क जेही मिल जात हय ओही से कहित हय कि रुपिया-पइसा जवन लगि जाय, हम देवै बदे तैयार हई। बियाहे ख़ातिर सबेरे-संझा रोनजर दौड़ावत रही ला। बाकी त जब कवनों मिलै तब न। अबहीं तक त कवनों नाहीं टकराइल। औरत क सूरत त बहुत देखे, मगर अपने अरथे कोई नाहीं आवा। एक ठे मराठिन क बिटिया एक दिन मिलल। ऊ हंसि के हमसे कहलेसि कि भइयाजी, ब्लाउज क कपड़ा लेइके आवा। वहका देखि के हमरो मन ललका। दुसरे दिन हम नीक-नीक छींट क कपड़ा लेइके गयेन ओकरे खोली पर। सोचली कपड़ा बेचै के बहाने कुछ बात बनि जाई। बाकी त ऊ उधार माँगत रहल अउर हम दिहे नाहीं। यहसे मामला कुछ बढ़ल नाहीं आगे। बम्बई में अच्छा लगे क जिन पूछा। इहाँ क हर चिजियै बहुत अच्छा हउवै। अच्छी-अच्छी बस्ती, बिल्डिंग। धन्धा-व्यापार ख़ूब होला इहाँ। बम्बई के अन्दर लच्छिमीजी क निवास हय। नीक-नीक मरद, मेहरारू अउर लड़िकी देखइ के मिलत हय। गाँव से त बम्बई बहुत अच्छी हय। इहाँ भले कबहूँ चांस नाहीं लागत, बाकी पइसा त मिलत हय। उत्तर प्रदेश क भी बहुत हइन इहाँ, बाकी त जोग नाहीं घटत हय। अरे हमरे साथे जे बियाह करी, ओकर हम जिनिगी सुधारि देब-कमाई के रस्ते से, सुख-सिंगार से, सब तरह ओका छकाछक रक्खब। कवनो किसिम क तकलीफ ओके न होये पाई। एक हमार दोस्त पूछिस कि कमर में ताकत भी हउवै कि बियाहै करल चाहत है। हमरे रिसि लागि गै, हम कहेन जौ नौ महिन्न में लड़िका न खेलवाय दिहिन त आपन मोंछ गदहा के पेसाब से बनवाय डारीं। बियाह कइके कुछ दिन बम्बई में रहब। फिर कुछ दिन देस में। इहाँ क धन्धा भी सँभारब अउर घरे क खेती भी। उमिर? इहै 39-40 साल। अरे जोशीजी, नेकी अउर पूछि-पूछि। शादी करवाइ द त जना धरमशाला बनवाइ दिहय। लड़की अच्छी होय चाहे कवनो जाति होय। चिजिया त एकै रही। उमिर न बहुत ज्यास्तिये होय, न ढेर कमै। आस दियाइ के निरास मत कइ दिह्या। अब आपय क भरोस बाय। बहुत पुन्न होई आपके।
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“राजनीति में मर्यादा होनी चाहिए” - अटल बिहारी वाजपेयी

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  विनम्र श्रद्धांजलि  




भारत के भूतपुर्व प्रधान मंत्री, युग पुरुष श्री अटल बिहारी वाजपेयी जी का इन्द्रधनुषी व्यक्तित्व इस किताब में साफ़ झलकता है। वे मन से कवि, विचारों से लेखक, कर्म से राजनेता रहें हैं। बहुआयामी प्रतिभा के धनी अटल जी ने कविताएँ भी लिखीं, पत्रकारिता भी की, भाषण भी दिये, विपक्ष में रहकर सियासत भी ख़ूब की, सत्ता का सुख भी भोगा। इस सबके बावजूद वे मन से हमेशा कवि और साहित्य-प्रेमी रहे।



पढ़िये  उनके  व्यक्तित्त्व पर आधारित कृति राष्ट्रवादी पत्रकारिता के शिखर पुरुष : अटल बिहारी वाजपेयी पुस्तक  के  मुख्य अंश...

राजनीति में मर्यादा होनी चाहिए

महाराष्ट्र की पुणे नगरपालिका द्वारा 23जनवरी, 1982को आयोजित गौरव सम्मान समारोह में श्री अटल बिहारी वाजपेयी को सम्मानित किया गया। इस अवसर पर समारोह को सम्बोधित करते हुए उन्होंने कहा-किन शब्दों में मैं अपने भावों को व्यक्त करूँ। व्यक्त न करने का कारण या न कर पाने का कारण ये नहीं है कि मैं भावों से गद्गद हो गया हूँ। कारण ये है कि मैं समझ नहीं पा रहा हूँ कि मेरा यह सम्मान किसलिए किया जा रहा है। मैं साठ वर्ष का हो गया हूँ-क्या इसीलिए सम्मान हो रहा है? साठी बुद्धि नाठी। ये मराठी की म्हण (कहावत) है। हिन्दी में इसका दूसरा चरण है साठा सो पाठा। लेकिन अगर मैं जीवित हूँ, तो साठ साल का होने वाला हूँ। और जीवन तो किसी के हाथ में नहीं है। पता नहीं, उमर बढ़ती है या घटती है। नाना साहब यहाँ बैठे हैं-वे अस्सी साल के हो गये हैं, उन्होंने स्वयं आपको बताया है। वे सम्मान के अधिकारी हैं। खरात साहब लेखनी के धनी हैं। उनका अभिनन्दन किया जाये, तो स्वाभाविक है। मोरे साहब से तो मेरी मुलाकात हाल में ही हुई है। वे लोकसभा में हैं और मैं परलोक सभा में हूँ। राज्यसभा को लोग पार्लियामेंट नहीं मानते। मुझसे मिलने आते हैं-कहते हैं हमें पार्लियामेंट देखनी है। मैं कहता हूँ, मैं राज्यसभा देखने का प्रबन्ध कर सकता हूँ। तो राज्यसभा नहीं, लोकसभा देखनी है। तो मैं उन्हें पूछता हूँ कि मैं यहाँ क्या कर रहा हूँ? लेकिन यहाँ सबका भाषण सुनकर मुझे आनन्द हुआ। सब दलों के प्रतिनिधियों ने भिन्न-भिन्न विचारधाराओं के प्रवक्ताओं ने मुझे अपने स्नेह का पात्र समझा, ये मेरे लिए कुछ नहीं तो जीवन का पाथेय है। मैं इसे स्नेह कहूँगा-क्योंकि जब स्नेह होता, तो दोष छिप जाते हैं और जो गुण नहीं होते हैं, उनका आविष्कार भी किया जाता है। अब नानासाहब मेरी तारीफ में कुछ कहें यह अच्छा नहीं। मुझे अब उनकी जितनी उम्र पाने के लिए बीस साल औरजीना पड़ेगा। और आने वाला कल क्या लेकर आयेगा कोई नहीं जानता। सचमुच में व्यक्ति तब तक सम्मान का अधिकारी नहीं होता, जब तक कि जीवन की कथा का अन्तिम परिच्छेद नहीं लिखा जाता। कब, कहाँ, कौन फिसल जाये? जिन्दगी की सफेद चादर पर कब, कहाँ, कौन सा दाग लग जाये। इसीलिए मैं इसे मानपत्र नहीं मानता। पुणे के नागरिकों को मुझसे आशाएँ हैं, अपेक्षाएँ हैं, मैं इसे उसकी अभिव्यक्ति मानता हूँ। जब कभी मेरे पाँव डगमगाने को होंगे, होंगे तो नहीं, अगर कर्तव्य के पथ पर कभी आकर्षण मुझे बाँधकर कर्तव्य के पथ से हटाने की कोशिश करेगा, तो आपका मानपत्र मुझे ये चेतावनी देता रहेगा। यह चेतावनी देता रहेगा कि पुणे नगर के निवासियों की आशा और अपेक्षाओं पर पानी फेरने का काम कभी मत करना।

मेरे लिए राजनीति सेवा का एक साधन है। परिवर्तन का माध्यम है। सत्ता सत्ता के लिए नहीं है। विरोध विरोध के लिए नहीं है। सत्ता सेवा के लिए है और विरोध सुधार के लिए-परिष्कार के लिए है। लोकशाही एक ऐसी व्यवस्था है, जिसमें बिना हिंसा के परिवर्तन लाया जा सकता है। आज सार्वजनिक जीवन में अस्पृश्यता बढ़ रही है, यह खेद का विषय है। लेकिन आज का समारोह मेरे मन में कुछ आशा जगाता है। मतभेद के बावजूद हम इकट्ठे हो सकते हैं। प्रामाणिक मतभेद रहेंगे। पिण्डे पिण्डे मतिर्भिन्ना। और मतों की टक्कर में ही भविष्य का पथ प्रशस्त होगा, लेकिन मतभेद एक बात है और मनभेद दूसरी बात है। मतभेद होना चाहिए, मनभेद नहीं होना चाहिए। आखिर तो इस देश का हृदय एक होना चाहिए।

उस दिन संसद में खड़ा था भारत के संविधान की चर्चा करने के लिए। We the people of India। संविधान में दलों का उल्लेख नहीं है। वैसे संसदीय लोकतन्त्र में दल आवश्यक है, अनिवार्य है। संविधान के प्रथम पृष्ठ पर अगर किसी का उल्लेख है-We the people of India. We the citizensनहीं है। हम इस देश के लोग, भारत के जन। अलग-अलग प्रदेशों में रहने वाले, अलग-अलग भाषाएँ बोलने वाले, अलग-अलग उपासना पद्धतियों का अवलम्बन करने वाले, मगर देश की मिट्टी के साथ अनन्य रूप से जुड़े हुए लोग। यहाँ की संस्कृति के उत्तराधिकारी और उसके सन्देश वाहक हैं। कोई फॉर्म भर कर नागरिकता प्राप्त कर सकता है, मगर देश का आत्मीय बनने के लिए, देश का जन बनने के लिए संस्कारों की आवश्यकता है-मिट्टी की अनन्य सम्पत्ति आवश्यक है।

मैं अमेरिका जाकर अमेरिका का नागरिक बन सकता हूँ, मगर अमेरिकन नहीं बन सकता। इस राष्ट्रीयता का आधार संकुचित नहीं है, संकीर्ण है। स्मृतियाँ बदलती नहीं हैं। कुछ व्यवस्थाएँ कालबाह्य जरूर हो जाती हैं। वे त्याज्य बन जाती हैं। उन्हें छोड़ देना चाहिए। दिल्ली से हम पुणे आते हैं, तो गरम कपड़े छोड़ आते हैं। समय आने पर काया भी बदली जा सकती है, मगर जीवन मूल्यों की आत्मा परिवर्तित नहीं होनी चाहिए।

हम स्वाधीन हुए, हमने अपना संविधान बनाया। उसमें संशोधन की गुंजाइश है और संशोधन की व्यवस्था संविधान में ही है। उसमें व्यक्ति की स्वाधीनता की धारणा है। धार्मिक स्वतन्त्रता है। व्यक्ति की महत्ता है। हमें लोकशाही चाहिए। लोकशाही को हम अक्षुण्ण रखेंगे। मगर स्वतन्त्रता के साथ हमें संयम भी चाहिए। समता के साथ हमें ममता भी चाहिए। अधिकार के साथ कर्तव्य भी चाहिए। और जैसा कि मैंने पहले कहा कि सत्ता के साथ सेवा भी चाहिए। संविधान में हमारे कर्तव्यों का भी उल्लेख है। वह बाद में किया गया था। जिस पृष्ठभूमि में किया गया था, वह ठीक नहीं था। लेकिन अधिकार के साथ कर्तव्य जुड़ा हुआ है। दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। अगर हमारे कुछ अधिकार हैं, तो इस देश के प्रति कुछ कर्तव्य भी हैं। अभी 26जनवरी का त्योहार आने वाला है। आज 23जनवरी है। नेताजी सुभाषचन्द्र बोस का जन्मदिन है। मैं उनको अपनी श्रद्धांजलि देना चाहता हूँ। स्वतन्त्रता संग्राम के सभी सेनानियों को हम श्रद्धा निवेदन करें। उनमें से जो जीवित हैं, हम उनका सम्मान करें।

महापौर महोदय, मैं आप से और आपके साथियों से कहना चाहूँगा- राजनीतिक नेताओं का ज्यादा सम्मान मत करिए। पहले ही वे जरूरत से ज्यादा रोशनी में रहते हैं। अब देखिए सारी रोशनी यहाँ जुटी हुई है और आप अँधेरे में बैठे हैं। राजनीति जीवन पर हावी हो गयी है। सम्मान होना चाहिए काश्तकारों का, कलाकारों का, वैज्ञानिकों का, रचनात्मक कार्यकर्ताओं का, जो उपेक्षित हैं उनका। कुष्ठ रोगियों के लिए जो आश्रम चला रहे हैं, उनका अभिनन्दन होना चाहिए। उनका वन्दन होना चाहिए। जनरल वैद्य रिटायर होकर आये। मैं नहीं जानता पुणे महानगरपालिका ने उनका अभिनन्दन किया था या नहीं। उनका अभिनन्दन होना चाहिए। कैसा विचित्र संयोग है। घटनाचक्र किस तरह से वक्र हो सकता है। जो सेनापति रणभूमि में शत्रुओं के टैंकों को भेदकर जीवित वापस चला आया, वह अपने देश में, अपने ही घर में, देश के कुछ गद्दारों के हाथों शहीद हुआ। मित्रो, हम परकीयों से परास्त नहीं हुए। हम तो अपनों से ही मार खाते रहे, मार खाते रहे। स्वर्गीय वैद्य का मरणोपरान्त भी सत्कार हो सकता है-समारोह हो सकता है। आज मैंने अपनी सुरक्षा का काफी प्रबन्ध पाया। मगर कहीं यह सुरक्षा पर्याप्त नहीं है। आज ये नौबत क्यों आ गयी? आम आदमी की सुरक्षा कहाँ है? मैं पंजाब जाता हूँ। अनेक दलों के कार्यकर्ता मारे गये। और सचमुच मैंने साठ वर्ष पूरे कर लिए, इसके लिए पंजाब के आतंकवादियों को भी धन्यवाद देता हूँ। जिनकी लिस्ट में मेरा भी नाम है। और वे कहीं भी, किसी पर भी हमला करने में समर्थ हैं। आम आदमी सुरक्षा का अनुभव कैसे करता है?

मित्रो, राजनीति को मूल्यों से नहीं जोड़ना चाहिए। यह मात्र सत्ता का खेल नहीं है। आज सचमुच में स्वस्थ परम्पराएँ डालने का अवसर है, जो दल केन्द्र में सत्तारूढ़ है, वह अनेक प्रदेशों में प्रतिपक्ष में बैठा है। इससे वह प्रतिपक्ष के तकाजे को भी समझ सकता है और सत्ता के दायित्व को भी ठीक तरह से अनुभव कर सकता है। राजनीति में तो प्रतिस्पर्धा चलेगी। लेकिन एक मर्यादा होनी चाहिए, एक लक्ष्मण रेखा होनी चाहिए। इस लक्ष्मण रेखा का अगर उल्लंघन किया जाये, हर प्रश्न को अगर वोट से जोड़ा जायेगा, हर समस्या का विचार अगर चुनाव में हानि या लाभ की दृष्टि से किया जायेगा, तो कहीं ऐसा न हो, सारे पुरखों के बलिदानों पर पानी फिर जाये और एक-दूसरे को मानपत्र देने की बजाय इतिहास कहीं हमारे लिए अपमान का पत्र छोड़कर न चला जाये। सचमुच में हम किसका सम्मान करें, किसे मानपत्र दें, कौन अधिकारी है।

किसी की आलोचना या दोषारोपण पर मैं भावुक होना नहीं चाहता। दो साल पहले सारे राष्ट्र में सन्ताप की लहर जगी थी। हम चुनाव में परास्त हुए थे। हमने अपनी पराजय को स्वीकार किया था। आज निराशा क्यों मन में डेरा डाल रही है? समस्याओं को मिलकर हल करना होगा। एक दूसरे की प्रामाणिकता पर सन्देह नहीं करना चाहिए। मतभेद रहेंगे। लेकिन ऐसी दीवार नहीं खड़ी होनी चाहिए, जो हमारे राष्ट्र जीवन का सारा तानाबाना तोड़ दे। जो सार्वजनिक जीवन में हैं उनके सामने निरन्तर ये द्वन्द्व चलता रहता है, यह श्रेय की साधना करें या प्रेय के पीछे दौड़ें? कभी-कभी जो हितकर है, वह लोकप्रिय नहीं होता। बीमार को कड़वी दवा अच्छी नहीं लगती। लेकिन मरीज का भला चाहने वाला उसको मिठाई नहींखिलाता। अगर हम लोकप्रियता के पीछे दौड़ें और चुनौतियों का विस्मरण करें, तात्कालिक लाभ के लिए दूरगामी लाभ की बलि चढ़ा दें, और व्यक्ति या दल का विचार करते हुए हम राष्ट्र के तकाजों को, आवश्यकताओं को भूल जायें, तो आने वाला समय हमें कभी क्षमा नहीं करेगा।

महानगरपालिका हमारी स्वराज्य संस्थाओं का एक महत्त्वपूर्ण अंग है। हमारा सामाजिक जीवन पाँच स्तम्भों पर खड़ा है। एक है परिवार, दूसरी पाठशाला, तीसरा पूजा गृह, चौथा धर्म और पाँचवां पंचायत। ये पाँच स्तम्भ हैं। पंचदीप हैं, जो व्यक्ति के निर्माण में, व्यक्ति के विकास में, समाज के गठन में, समाज को धारण करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन करते हैं। महानगरपालिका इसी महत्त्वपूर्ण पंचायत का एक महत्त्वपूर्ण स्थान है। अच्छा होता अगर हम कॉर्पोरेशन की जगह नगर पंचायत कहते, महानगर पंचायत कहते। ग्राम पंचायत, तालुका पंचायत, जिला पंचायत, महानगर पंचायत। और असेम्बली को भी प्रदेश पंचायत कहा जा सकता था और पार्लियामेंट को राष्ट्रीय पंचायत।

महापौर महोदय, मुझे क्षमा करें, कॉर्पोरेशन को तो लोग अंग्रेजी में सही-सही कह भी नहीं सकते। वे कभी-कभी कह जाते हैं-करप्शन। एक जगह मैंने देखा वे कॉर्पोरेशन को कह रहे थे चोरपोरेशन-चोर्पोरेशन। मैंने कहा नहीं-नहीं, ये शुद्ध उच्चारण नहीं हैं, क्योंकि उच्चारण तो हम जानते हैं, पर हम कुछ और कहना चाहते हैं। पंचायत नाम अगर होता, तो इस तरह का भ्रम नहीं पैदा होता। हमारे जीवन से ज्यादा जुड़ जाता। हमने अपने संविधान में केन्द्र और प्रदेशों के बीच अधिकारों का, साधनों का बँटवारा नहीं किया। ये काम होना चाहिए-ये काम संविधान में छूट गया है। पंचायत का चलते-चलते उल्लेख काफी है। क्या म्युनिसिपल कॉर्पोरेशन, म्युनिसिपलिटी और अन्य स्थानीय स्वराज्य संस्थाएँ प्रदेश सरकार की दया पर होनी चाहिए? वह जब चाहे चुनाव करें, जब चाहें, चुनाव न करें। जब चाहे भंग कर दें, जब चाहे बहाल कर दें।

चुनाव का समय निश्चित होना चाहिए, अवधि तय होनी चाहिए। अधिकारों की व्याख्या होनी चाहिए, साधनों का ठीक तरह से बँटवारा होना चाहिए। शहर बढ़ रहे हैं, शहर फैल रहे हैं। रोजगार की तलाश में, औद्योगीकरण के परिणामस्वरूप शहरीकरण हो रहा है-शहरों में लोग बड़ी संख्या में आ रहे हैं। नगर की सड़कें छोटी पड़ रही हैं, विद्यालयों में स्थान नहीं है, अस्पतालों में जगह नहीं है। पीने का पानी एक बड़ीसमस्या बनने वाला है। क्या इसका दीर्घकालिक नियोजन आवश्यक नहीं? पंचायत कहाँ से पूँजी लाये?

अभी महापौर महोदय कह रहे थे, हमने कॉर्पोरेशन की तरफ से कुछ इमारतें बनायी हैं, दुकानें बनायी हैं। उनसे रुपया आने वाला है, कुछ किराया आयेगा। तो मैंने उन्हें बधाई दी कि आप और ऐसे काम करिए। तब वे मुझसे कहने लगे कि इस बारे में थोड़ा सरकार से हमारी तरफ से कहिए। मैंने कहा-मेरे कहने की क्या जरूरत है? अब तो आप स्वयं सरकार हैं। मगर एक बात मैं जानता हूँ-सरकार के दरबार में महापौर की बात बड़ी मुश्किल से सुनी जायेगी, क्योंकि व्यवस्था ऐसी है, जो साधनों का ठीक तरह से बँटवारा नहीं करती। मध्य प्रदेश में ऑक्ट्रॉय खत्म हो गया। प्रदेश सरकार ने टैक्स लगा दिया, जो स्वयं इकट्ठा करती है और प्रदेश सरकार की जिम्मेदारी है कि कॉर्पोरेशन को-म्युनिसिपलिटीज को उसमें से उचित हिस्सा दे। मगर नहीं दे रही है। ग्वालियर का हमारा कॉर्पोरेशन मुश्किल में है। इन्दौर में कठिनाई हो रही है। इसलिए माँग हो रही है कि ऑक्ट्रॉय खत्म मत करो। मैंने सुना है कि महाराष्ट्र में तो ऑक्ट्रॉय भी चल रहा है और टर्नओवर टैक्स भी चल रहा है। ऑक्ट्रॉय अगर खत्म कर दिया जाये, तो कॉर्पोरेशन का काम कैसे चलेगा? क्या आमदनी के और साधन बढ़ने नहीं चाहिए? कैसे बढ़ें? सत्ता का विकेन्द्रीकरण कीजिए। शक्तिशाली केन्द्र मगर सत्ता का विकेन्द्रीकरण। सुनने में अन्तर्विरोध दिखाई देता है, मगर अन्तर्विरोध नहीं है। और विकेन्द्रीकरण संविधान सम्मत है। प्रशासन में नागरिकों की भागीदारी जरूरी है। केवल पाँच साल में एक बार वोट देना पर्याप्त नहीं है। हर नागरिक प्रशासन में कैसे भागीदार बनेगा। इस पर विचार किया जा सकता है।

स्थानीय स्वराज्य संस्थाओं में, स्वायत्त संस्थाओं में जो चुनाव की पद्धतिहै, उसमें कुछ परिवर्तन की अपेक्षा है। अभी क्षेत्र के अनुसार प्रतिनिधि चुने जाते हैं। क्या इसमें धन्धा लाया जा सकता है, व्यवसाय लाया जा सकता है? क्या मजदूरों को अलग से प्रतिनिधित्व दिया जा सकता है? क्या किसानों के प्रतिनिधि के रूप में कोई आ सकते हैं? सोशलिज्म के साथ क्या हम गिल्ड सोशलिज्म पर विचार कर सकते हैं? ये विविधता से भरा हुआ समाज-बहुरंगी समाज, इसका कोई वर्ग अपने को उपेक्षित न समझे। शासन में भागीदार बनकर वह परिवर्तन प्रक्रिया में हिस्सा ले। सरकारिया कमीशन के सामने हमने इस तरह के विचार रखे। सारा विवादखत्म हो गया मध्य प्रदेश और केन्द्र के बीच। प्रदेशों को भी अधिक वित्तीय साधन मिलना चाहिए, लेकिन सबसे बड़ी समस्या ये है कि राष्ट्र जीवन के कार्यों में, विकास के कार्यों में, नगर को स्वच्छ रखने के काम में, इसको हरित रखने के काम में, नागरिकों का सक्रिय सहयोग कैसे प्राप्त होगा? नागरिक चेतना कैसे जगाएँ? नगर को स्वच्छ, नगर को सुन्दर बनाने का काम देकर जन अभियान का रूप कैसे दें? हर चीज प्रशासन पर छोड़ दी जाती है। प्रशासन भी पंगु हो रहा है। क्या लोकशक्ति को जगाकर प्रशासन पर नियन्त्रण नहीं रखा जा सकता है? क्या ये सम्भव है कि प्रशासन को सबल भी किया जाये? नागरिक मूक दर्शक न बनें, बल्कि नागरिक इस खम्भे को टिकाने में भागीदार बनें, इस दृष्टि से विचार होना चाहिए।

मित्रो, हमारे राष्ट्र जीवन में उतार-चढ़ाव आते रहते हैं। नाना साहब अभी मुझसे बातचीत कर रहे थे और आपने उनके भाषण में भी सुना होगा, जो उनके मन में एक दर्द है, एक पीड़ा है। एक टीस है। ये दर्द उन सबके दिल में है, जो देश का भला चाहते हैं। स्वतन्त्रता के बाद हमारी उपलब्धियाँ कम नहीं हैं। मैं उन लोगों में से नहीं हूँ, जो आलोचना के लिए आलोचना करूँ। मैं प्रतिपक्ष में हूँ, पहले भी पुणे में कह चुका हूँ, स्वतन्त्रता के बाद हमने कुछ नहीं किया, ये कहना गलत होगा। लेकिन हम जितना कर सकते थे, उतना नहीं कर पाये। जिस तरह से करना चाहिए, उस तरह से नहीं कर पाये। तो क्या हिम्मत हार जायें? निराश हो जायें? हमने सपने देखे थे, आज सपने टूट गये तो क्या हुआ? हमें सपनों को उत्तराधिकार के रूप में नयी पीढ़ी को सौंपकर जाना है। सपने भंग होने के बाद भी साबुत रहते हैं। सपने टूट जाने के बाद भी जुड़ जाते हैं। आने वाली पीढ़ी को हम कौन से सपने उत्तराधिकार के रूप में सौंप कर जायें? आज भी देश में नौजवानों का बहुमत है। उनमें कुछ करने की उमंग है, उत्साह है। वे कुछ करें। हमारा सहयोग उन्हें होगा, हमारा समर्थन उन्हें मिलेगा। हमारा आशीर्वाद उन्हें मिलेगा। लेकिन क्रिया ऐसी होनी चाहिए, जो कल्याणकारी हो। हमारा चिन्तन ऐसा होना चाहिए, जो उदात्त हो। राजकारण ऐसा होना चाहिए, जो हमारे राष्ट्र जीवन के शाश्वत मूल्यों की वृद्धि कर सके। खरात साहब ने ठीक कहा, ‘अभी सामाजिक क्षेत्र में बहुत परिवर्तन की आवश्यकता है।वे अभी सालूपुर का उल्लेख कर कहे थे। शायद आपको मालूम नहीं है कि सालूपुर में जो हत्याकांड हुआ था, उसमें जो अभियुक्त पकड़े गये, उन पर अभी तक मुकदमा नहींचलाया गया है, क्योंकि प्रशासन गवाह ढूँढ़ने में असमर्थ है। किसी को सजा नहीं मिली।

मैं उस दिन दिल्ली पहुँच गया था। हरिजन भाइयों का सामूहिक चिता में स्नान हो रहा था। एक ओर सूरज छुप रहा था, मानो सूरज शर्म से लाल मुँह करके भाग जाना चाहता था और दूसरी ओर सामूहिक चिता जल रही थी। क्या जन्म के कारण व्यक्ति को जीने का अधिकार नहीं होगा? सम्मान का अधिकार नहीं होगा? किस मुँह से हम दक्षिण अफ्रीका में होने वाले रंगभेद के खिलाफ आवाज उठाएँ? फिर भी उठा रहे हैं, उठाना चाहिए। लेकिन यहाँ तो रंग भी एक है, चमड़ी का रंग भी एक है, रक्त का रंग भी एक है। समाज को टुकड़ों में बाँटकर, अलग-अलग खेमों में विभाजित करके, हम सारे संसार को एक परिवार मानते हैं। ऐसी ऊँची-ऊँची बातें नहीं कर सकते। और अगर करेंगे, तो इनका कोई असर नहीं होगा।

भगवान बुद्ध, महावीर, गाँधी ने चाहे अहिंसा को परम धर्म माना हो। मनुष्य के जीवन में हिंसा का कोई मूल्य नहीं। पंजाब लहूलुहान पड़ा है। मैं मानने के लिए तैयार नहीं हूँ कि वे पराये हैं। जो आतंकवादी हैं, उन्हें सजा मिलनी चाहिए। उनको अलग-थलग किया जाना चाहिए। इसीलिए मैंने शब्द प्रयोग किया-समता पर आधारित ममत्व। ममतायुक्त समता। कथनी और करनी में बढ़ता हुआ अन्तर विश्व में भी हमारी विश्वसनीयता को कम कर रहा है। और देश के भीतर कदम-कदम पर कठिनाइयाँ पैदा कर रहा है। आवश्यकता इस बात की है कि हम समय की चुनौतियों को समझें और उन चुनौतियों का सफलतापूर्वक सामना करने के लिए साहस जुटाएँ, विवेक जुटाएँ, शक्ति जुटाएँ और छोटे-छोटे मतभेदों को ताक पर रखकर, ये गणतन्त्र चिरंजीवी हो इस तरह की व्यवस्था का विकास हो, इस तरह का प्रबन्ध करने की तैयारी हो।

आपने मुझे सम्मान का अधिकारी समझा, इसके लिए मैं आपको हृदय से धन्यवाद देना चाहता हूँ। मैंने प्रयत्न किया है कि सारे देश का चित्र अपने सामने रख कर काम करूँ। मैं जनता सरकार में विदेश मन्त्री बना, तब मैंने दो राजदूत प्रधानमन्त्री की सलाह से नियुक्त किये। एक नाना साहब और दूसरे थे नानी पालखीवाला। दोनों किसी पार्टी के नहीं थे। श्री कैलाशचन्द्र हमारे हाई-कमिश्नर होकर मॉरिशस में गये। मैंने ये कभी नहीं सोचा-ये वेगले आहेत, ये वेगले आहेत। आपल्याच पैकी नाही। येआपल्याच पैकी काय?’ और मैं उस दिन कश्मीरियों में बैठा था-तो कहने लगे, ये हमारी जाति वाले नहीं हैं-गैर जाति वाले हैं। अरे सब की एक ही जाति है। मनुष्य की एक ही जाति है। जाति जन्म से है। जन्म लेने की प्रक्रिया से है। सारे मनुष्य एक तरह से पैदा होते हैं और गधे दूसरी तरह से पैदा होते हैं। इसलिए जानवरों की अलग जाति है। और कहाँ मानव जाति का सपना। वसुधैव कुटुम्बकम्और कहाँ दल, और दल में भी गुट। जनता पार्टी टूट गयी-बड़ा दुख हुआ। मैं जानता हूँ, हमारे कुछ मित्र इस दुख में सहभागी नहीं होंगे। वे सोचते हैं-टूट गया, तो अच्छा हुआ। मगर आप अपने को सँभाल कर रखिए। ये टूटना इस देश की नियति हो गयी है। बिखरना हमारा स्वभाव बन गया है। अकारण झगड़ा करना, ऐसा लगता है कि हमारे खून में घुस गया है।

आज भारत अगर चाहे, तो संसार में प्रथम पंक्ति का राष्ट्र बन सकता है। फिर मैं कहना चाहूँगा कि परकीय हमारे पैर नहीं खींच रहे। हम अपने ही पैरों में बेड़ियाँ डाले हैं। इन्हें हम तोड़ने का संकल्प करें। राष्ट्र को मिलन भूमि मानकर व्यक्ति से ऊपर उठकर जरूरत हो तो दल से ऊपर उठकर-तेरा वैभव अमर रहे माँ, हम दिन चार रहें न रहें।व्यक्ति तो नहीं रहेगा। किसी ने मुझसे पूछा था-आपका सपना क्या है? मैंने कहा- एक महान भारत की रचना। कहने लगे कि आपका सपना, क्या आपको भरोसा है कि आपके जीवन में पूरा हो पायेगा? मैंने कहा-नहीं होगा, लेकिन सपना पूरा करने के लिए फिर से इस देश में जन्म लेना पड़ेगा। मैं जन्म-मरण के चक्र से छूटना चाहता हूँ। लेकिन अगर मेरे देश की हालत सुधरती नहीं है, भारत एक महान-दिव्य-भव्य राष्ट्र नहीं बनता है, अगर हर व्यक्ति के लिए हम गरिमा की, स्वतन्त्रता की गारंटी नहीं कर सकते, अगर विविधताओं को बनाये रखते हुए एकता की रक्षा नहीं कर सकते, तो फिर दूसरा जन्म लेकर भी जूझने के लिए तैयार रहना पड़ेगा।

मैं आपको हृदय से धन्यवाद देता हूँ। परमात्मा मुझे शक्ति दे। आपने मुझसे जो आशाएँ प्रकट की हैं, मैं उनको पूरा करने के लिए बल जुटा सकूँ।

लेखक के बारे में...
उत्तर प्रदेश के देवरिया जनपद में जन्मे डॉ. सौरभ मालवीय सामाजिक परिवर्तन और राष्ट्र-निर्माण की तीव्र आकांक्षा के चलते सामाजिक संगठनों से बचपन से ही जुड़े रहे। जगत्गुरु शंकराचार्य एवं डॉ. केशवराव बलिराम हेडगेवार की सांस्कृतिक चेतना और आचार्य चाणक्य की राजनीतिक दृष्टि से प्रभावित डॉ. सौरभ मालवीय का सुस्पष्ट वैचारिक धरातल है। सांस्कृतिक राष्ट्रवाद और मीडियाइस विषय पर आप ने शोध किया है। ज्वलन्त मुद्दों पर आप टीवी चर्चा में प्रायः अपने विचार रखते हैं एवं देश भर की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं एवं अन्तर्जाल पर समसामयिक विषयों में लेखन निरन्तर जारी है।


उत्कृष्ट कार्यों के लिए उन्हें अनेक पुरस्कारों से सम्मानित किया जा चुका है, जिसमें मोतीबीए नया मीडिया सम्मान, विष्णु प्रभाकर पत्रकारिता सम्मान और प्रवक्ता डॉट कॉम सम्मान आदि सम्मिलित हैं।


निर्वासन | तसलीमा नसरीन

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प्रख्यात साहित्यकार व स्त्रीवाद से सम्बन्धित विषयों पर अपने प्रगतिशील विचारों के लिए चर्चित लेखिका तसलीमा नसरीन के जन्मदिवस पर पढ़िये...

निर्वासन पुस्तक का अंश

अचानक एक दिन

हार्वर्ड की जिन्दगी खत्म होने के बाद, सोचना शुरू करती हूँ कि अब कहाँ! कौन-सा देश! कौन सा शहर! कहीं खड़ी होना चाहती हूँ। पैरों के नीचे जमीं चाहिए। यायावरी की जिन्दगी को अलविदा कहने की कोशिश बार-बार नाकाम हो जाती है, अब और नहीं होनी चाहिए। बंगाल की लड़की बंगाल ही लौटेगी। बहुत दिनों का यह सपना मेरे पीछे लगा रहता है, मेरे साथ-साथ चलता रहता है, मेरे बदन से लिपटा रहता है। कितना कुछ घट गया बंगाल में! किताब निषिद्ध हुई, बेवजह की बदनामी और निन्दा, इसके बाद भी बंगाल लौटने की इच्छा। विदेश का विशुद्ध हवा-पानी, झिलमिलाता शहर, सुरक्षित जीवन, सब छोड़कर, वहीं से ही ट्रायंगुलर पार्क में एक फर्निश्ड घर, एक महीने के लिए किराये पर लेने की बात पक्की करके कलकत्ता लौट आती हूँ। अब और होटल में रहने की बिल्कुल भी इच्छा नहीं है। इच्छा क्या कभी भी थी! कुछ और उपाय नहीं था इसलिए रहना पड़ता था। ट्रायंगुलर पार्क में, लोग, कोलाहल, दोस्त, व्यस्तता, विस्मय और कौतूहल के बीच पूरा एक माह बिताती हूँ। ढूँढ़ती रहती हूँ एक ऐसा घर, जहाँ अस्थायी नहीं बल्कि अब स्थायी रूप से रहूँगी, जब तक जिन्दा हूँ, तब तक। स्वप्न पंख फैलाते रहे, उन सब अनजान देश के, अनजान पक्षियों के, अनजान पंखों के। वे सारे विराट पंख मुझे अदृश्य कर देते हैं।

स्वीडन के भारतीय दूतावास में, मेरा लेखन पसन्द करने वाले एक सहृदय सज्जन थे, क्यूँ थे, कौन जाने! वीजा लेने जाने पर, मजे से उन्होंने मुझे एक्स वीजादे दिया, जिसके बारे में बाद में पता चला कि हर छह महीने के बाद मियाद बढ़वा लेने से, अनन्त काल तक भारत में रहा जा सकता है। अब से मैं पर्यटक नहीं, यथावत स्थायी निवासी हूँ। कितने सपने मन की दहलीज पर खेलते हैं कि शायद कोई घर खरीद लूँ, न जाने कौन-सा कोई और सपना पूरा हो जाए अचानक, अनजाने ही!

एक सुबह कलकत्ता हवाई अड्डे पर उतरते ही एक नम्बर पर फोन करके कहती हूँ, ‘‘घर किराये पर लेना है, अभी इसी समय।’’ दूसरी तरफ से, एक अनजाना आश्चर्य से भरा स्वर सुनाई पड़ता है। इस तरह बिना देखे ही, कभी किसी ने घर किराये पर ले लिया हो, ऐसे किसी के बारे में उसे नहीं पता था। धूलधूसरित, खाली मकान में चली आती हूँ और उसी दिन, हाँ उसी सुबह जाकर खरीद लाती हूँ-पलँग,गद्दा, तकिया, सोफा, बर्तन। कहाँ घर किराये पर मिलेगा, कहाँ घर का सामान वगैरह मिलेगा, कहाँ मिलेगा दाल-चावल, कोई भी बताने वाला नहीं था। अगर पूछो उन सबसे, जो मुझे घेरे रहते हैं, क्योंकि मेरा नाम है या मैं-मैं हूँ इसलिए-सब दुविधा में पड़ जाते हैं, क्यूँकि उनके पास कोई जवाब नहीं, अगर है भी तो गलत जवाब। मेरा संसार उसी भूल से शुरू होता है। मेरे कलकत्ते का संसार।

दो दिन में ही घर को रहने लायक बना लेती हूँ। चार दिन लगते हैं सजाने में और सात दिनों के भीतर मेरा घर चमचमा उठता है। छह महीनों में लगता है जैसे तीस साल की गृहस्थी हो। बरामदे में बचपन के सब फूल लगा रखे हैं। अलग-अलग रंगों के फूल खिलकर, सारे घर में खुशबू बिखेरते रहते हैं। रात में घर भर जाता है रात की रानी की सुगन्ध से। अक्सर ही एक रात की रानी का गमला सिर के पास रख लेती हूँ। खुशबू सूँघते-सूँघते, जैसे बचपन में सो आया करती थी, वैसे ही सो जाती हूँ। शहर के बीच में एक बहुत सुन्दर व सुरक्षित घर, ठीक सड़क पर नहीं, दो-दो लोहे के फाटक और दरबान को पार करके फिर घर में जाया जा सकता है। खुला बरामदा, रसोई से मसालों की सुगन्ध तैरती आती है, बरामदे में सूखने को डाले कपड़े, हलके-हलके उड़ते रहते हैं। कितना मनोरम है, यह दृश्य! एक अर्से से मैंने अपने बचपन-किशोरावस्था को इतने करीब से महसूस नहीं किया था। हवा और रोशनी से घर सचमुच का घर हो उठता है, मेरे सात नम्बर राऊडन स्ट्रीट का घर।

शहर पहले जैसा ही है, पर बरसों पुराने वह दोस्त नहीं हैं, शहर में। वे मित्र जो सुख और दुख दोनों ही समय में, समान रूप से खड़े रहते थे मेरे पास, जिसके साथ किसी भी विषय पर, किसी भी समय बात कर सकती थी, वह निखिल सरकार, नहीं हैं। वह गहरा समन्दर, वह निमग्न साधक, वह ज्ञान का भंडार नहीं है। आभास हो जाता है कि, मेरे कुछ समझने से पहले ही, मेरी दुनिया कुछ खाली सी हो गयी है। माँ नहीं हैं, बाबा नहीं हैं और निखिल सरकार भी नहीं हैं। रिश्तेदार तो होकर भी नहीं हैं, जान-पहचान वाले, परिचित लोगों को दोस्त कहती हूँ। रोज-रोज आने वाले अपने मुरीदों को भी दोस्त कहती हूँ। क्या मैंने हड़बड़ी में, ताश के पत्तों के घर जैसा कुछ खड़ा कर लिया है! कभी-कभी सब कुछ एक अद्भुत रहस्यमय, मायावी जाल सा लगता है, या फिर जिन्दगी एक मजाक-सी लगती है।

राऊडन स्ट्रीट के घर के दरवाजे सबके लिए खुले हुए हैं। सबके लिए, यहाँ तक कि अनजान व्यक्ति की खातिरदारी में भी कोई कमी नहीं है। अतिथि सत्कार मेरे हृदय में है। कितने ही अच्छे और कितने ही बेकार, गलत और धूर्त लोगों ने मेरे इस घर की चौखट को पार किया है। मेरी किसी को भी गलत या खराब समझने की इच्छा नहीं थी। आज भी नहीं है। मैं ऐसी ही हूँ। ऐसी ही सीधी-सादी और निरीह। घर के कपड़ों में, हवाई चप्पल पहन मजे से पूरा शहर घूमती रहती हूँ। फुटपाथ सेसस्ती चीजें खरीदती हूँ। गड़ियाहाट के बाजार से एक बिल्ली के बच्चे को उठाकर ले आती हूँ, उसे लाड़-प्यार से बड़ा करती हूँ। सीधा-सादा धूल-मिट्टी का जीवन, जो दूसरे ही पल चकाचौंध से भरा भी हो जाता है। पुस्तक मेले के स्टॉल के दरवाजे बन्द रखने पड़ते हैं, भीड़ को रोकने के लिए। पुलिस को लाठीचार्ज करना पड़ता है चाहने वालों के उन्माद को सँभालने के लिए। इसके बावजूद भी पाठकों के साथ एक रिश्ता बना रहता है। मेरा साहित्य जगत के दिग्गजों के साथ बिल्कुल भी उठना-बैठना नहीं है। किसी को गुरु मानना या किसी को दक्षिणा देना मेरा स्वभाव नहीं है। सुना है, सच्ची बात, बिना किसी लाग-लपेट के कह देना, महारथियों को एकदम पसन्द नहीं। मैं अकेले ही अपनी तरह रहती हूँ। इस देशी जीवन के बाहर भी एक और जीवन है। जल्दी-जल्दी ही विदेश जाना पड़ता है। कार्यक्रमों में कविता-पाठ करने या भाषण देने या फिर पुरस्कार लेने, कोई न कोई आमन्त्रण रहता ही है। सिर्फ पश्चिमी देशों में अच्छी घटनाएँ घट रही थीं, ऐसा नहीं कहूँगी। अच्छा कुछ कलकत्ता में भी घट रहा था। बैग फिल्मस द्वारा मेरी किताब फ्रांसीसी प्रेमीकी कहानी पर आधारित फिल्म बनाने के लिए, मेरे से अनुबन्ध पर हस्ताक्षर करा कर ले जाया गया, कॉपीराइट का पैसा भी मिला। मेरी लिखी भूमिका सहित, पिछले सालों की रविवारीय संख्यायों में छपी, चुनी हुई कहानियों का संकलन प्रकाशित होता है आनन्द पब्लिशर्ससे। आनन्दमेरी लिखी किताबों का समग्र लाने की अनुमति लेते हैं। मेरी कहानी शोधपर एक माह का एक सीरियल, टेलीविजन पर दिखाया जाता है। सारे सीरियलों में से सबसे ज़्यादा यह सीरियल लोकप्रिय होता है। मेगा सीरियल के लिए कहानी लिखने का आमन्त्राण मिलता है। लिखती रहती हूँ, एक मेगा सीरियल। कहानी का नाम देती हूँ दुःसहवास। उधर शूटिंग भी शुरू हो जाती है। इधर मेरी कहानी फेरापर बहुत दिनों से, विभिन्न मंचों पर नाटक का मंचन भी हो रहा है। गिरीश मंच, मधुसूदन मंच, रवीन्द्र सदन में उस नाटक का मंचन देखती हूँ। इसके अलावा विभिन्न ग्रुप थियेटर्स के असाधारण सारे नाटक भी देखती हूँ। एक बार नान्दीकारने नाट्य-सप्ताह का आयोजन किया, नाटक खत्म होने पर, रुद्रप्रसाद सेनगुप्त ने मुझे मंच पर बुलाकर, विजयी कलाकारों को माल्यार्पण करवाया। मुझे महसूस होने लगा कि मैं कलकत्ता के साहित्यिक-सांस्कृतिक जगत में से ही एक हूँ। कभी भी नहीं लगा कि मैं कलकत्ता की नहीं हूँ या मैं किसी और देश से आयी हूँ। किशोरावस्था के समय से कलकत्ते से मेरा दोस्ताना है। उस समय सेंजूती-शाम की रोशनीपत्रिका में जिनकी कविताएँ मैं छपवाती थी, या जिनकी लिटिल मैगजीन में मेरी कविताएँ छपती थीं, एक दिन उनमें से, जितनों का पता चल पाया, सबको रात के खाने पर और अड्डा जमाने के लिए घर पर बुलाती हूँ। कोई अभी भी लिख रहा है, पर जहाँ था अब भी वहीं है। कोई तांत्रिक बन गया, तो कोई व्यवसायी, फिर भी मुझे एहसास हुआ कि पुराने दिनों को वापस पाने की व्याकुलता मेरे अन्दरअब भी है। बंग्लादेश से मेरे बड़े भाई आते हैं, झूनू ख़ाला आती हैं। बड़े भाई का बेटा शुभो भी घूमने आता है। सबको प्यार से सराबोर कर देती हूँ और कलकत्ता भी मुझे देता रहता है, दोनों हाथ भर-भर के। सुबह बांग्ला अखबार पढ़ने का मौका दुनिया में और कहाँ मिल सकता था! दोपहर में कोई भी बांग्ला मैगजीन या किताब हाथ में लिए लेटे रहना, शाम को अड्डा जमाना और रात में एक झुंड बंगाली मिलकर, हल्ला-गुल्ला करके बंगाली खाना खाना। इसके अलावा टेलीविजन पर तो हैं ही, तरह-तरह के कार्यक्रम, विभिन्न विषयों पर अपनी बात रखने का आमन्त्रण और विभिन्न चित्र प्रदर्शनियों का उद्घाटन करना वगैरह। बहुत से लेखक और कवियों की किताबों का रिबन काटना। विभिन्न मंचों पर काव्य पाठ करना, और धर्म मुक्त मानववादी मंचको लेकर सपने देखना। जन्म हुआ बंगाली-मुसलमान परिवार में, पर धर्ममुक्त लोगों को इकट्ठा कर एक मानववादी संगठन तैयार करती हूँ, खुद को जानबूझ कर नेपथ्य में रखती हूँ। संगठन का उद्देश्य है सचमुच के धर्ममुक्त राष्ट्र, समाज, शिक्षा एवं कानून की स्थापना करना, लड़कियों को शिक्षित व स्वाधीन करना, मस्जिद और मदरसों के उत्पात को बन्द करना। पश्चिम बंगाल के कोने-कोने से उत्सुक लोग जुड़ने लगे। अँधेरे में पड़े रहने वाले मुसलमान समाज को रोशनी से भरने का प्रयास करती हूँ, यूँ तो दल काफी छोटा है, पर सपना छोटा नहीं। लौ तो बहुत तेज है, पर हर अँधेरे घर में, सारी अँधेरी गलियों में रोशनी पहुँचाने का लोकबल नहीं है। न रहे, कलकत्ते के विभिन्न मंचों पर कार्यक्रम, लीफलेट्स बाँटना, मीटिंग्स और जुलूस निकालना तो चलता रहता है।

दैनिक स्टेट्समैन में नियमित लेख लिखती रहती हूँ। हर लेख हजारों सालों के संस्कारों को तोड़, नये वक्त की ओर, नारी-पुरुष की समता की ओर, एक स्वस्थ, सुन्दर समाज का सपना दिखाते हुए, हाथ पकड़कर आगे लिए चलता है। निखिल सरकार नहीं हैं, पर शिवनारायन राय, अम्लान दत्त और प्रशान्त राय के साथ होती हैं साहित्यिक, सांस्कृतिक और बौद्धिक आलोचनाएँ। एक दिन मरणोपरान्त देहदान करने का प्रण ले लेती हूँ। मरने के बाद कलकता मेडिकल कॉलेज के छात्रा-छात्राएँ पढ़ेंगे मेरी देह को। दोनों आँखें, और किडनियाँ चली जाएँगी, उनके पास, जिनको इनकी जरूरत है। देश के दूसरे राज्यों से बुलावा आने पर घूम आती हूँ, किताबों का लोकार्पण करके, या फिर भाषण देकर। जहाँ भी जाती हूँ एक तरफ प्रशंसकोंकी भीड़, और दूसरी ओर मौलवादियों की उत्तेजना। केरल, मध्यप्रदेश, बिहार, उड़ीसा, असम, महाराष्ट्र, दिल्ली। बाकी का जीवन कलकत्ता में रहूँगी, इसमें कोई दुविधा नहीं इसलिए, एक दिन के नोटिस में एक गाड़ी खरीद लेती हूँ। बहुत खूबसूरत दुमंजिला एक घर भी खरीद लेती हूँ, पर किन्हीं कारणों से रहती किराये के घर पर ही हूँ।
एक उभरते कवि के साथ बहुत गहरी दोस्ती भी हो जाती है। एक डॉक्टर के साथ भी एक अद्भुत, अनबूझ-सा रिश्ता बनने लगता है। इसी समय वह दिन आ जाता है, वह अँधेरे से भरा दिन।

घर से बहुत दिनों से निकली नहीं थी। लम्बे समय से घर में बैठे-बैठे अच्छा भी नहीं लग रहा था। डॉक्टर ईनाईया ने बताया कि हैदराबाद में मेरी किताब शोधआ रही है। उनकी पत्नी ने तेलुगु में उसका अनुवाद किया है। किताब के लोकार्पण समारोह में मैं जरूर जाऊँ। इससे पहले भी उन्होंने मुझे स्वागत भाषण देने व मेरे अभिभाषण और संवाद आदि के कार्यक्रमों का आयोजन किया था, पर मैं जाने के लिए राजी नहीं हुई थी। इस बार तैयार हो गयी। राजी होने का यह भी कारण था कि, थोड़ा हवा-पानी में बदलाव होगा और कलकत्ते की एकरसता भी कट जाएगी। सुबह जाकर शाम को लौटना, किसी सूटकेस, टूथब्रश, कपड़े वगैरह ले जाने का प्रश्न ही नहीं उठता। नीले शिफ़ान की एक साड़ी पहन ली, प्रेस भी नहीं हो रखी थी। थोड़ा बहुत मुचड़ा होने पर भी पता नहीं चलता है, और होने से भी क्या। कपड़ों-लत्तों को लेकर मैं ज़्यादा सर नहीं खपाती। सजने-सँवरने को लेकर भी नहीं। एक समय तो लिपस्टिक लगाना भी छोड़ दिया था। आजकल बाल बिगड़ने पर थोड़ा ठीक कर लेती हूँ और होठों पे हलकी लिपस्टिक लगा लेती हूँ, जिससे होठों को सूखकर फटने से बचाया जा सके।

हैदराबाद हवाई अड्डे पर उतरकर डॉक्टर ईनाईया को अकेला खड़ा देख थोड़ा चौंक पड़ती हूँ। सुरक्षा-पुलिस कहाँ है! सोचा पुलिस कार्यक्रम में होगी, यहाँ नहीं आयी। चमचमाती एक गाड़ी में मुझे होटल ले गये डॉक्टर ईनाईया। उन्होंने पाँच सितारा होटल में एक कमरा बुक किया हुआ था, कार्यक्रम से पहले मेरे आराम करने के लिए। कमरा बहुत सुन्दर था। बिस्तर पर लेटकर थोड़ी देर टेलीविजन देखती हूँ। फिर उठकर अपने लिए चाय बनाकर पीती हूँ, इतने में ही फोन आता है कि नीचे उतर आऊँ, कार्यक्रम में जाने का समय हो गया है। कार्यक्रम कहाँ है, व किस तरह का है, मुझे इसके बारे में कुछ भी नहीं पता। ईनाईया को पूछने पर, वह जैसे आंध्रा लहजे में बताते हैं, मुझे लगभग कुछ भी समझ में नहीं आता है। पूछा, ‘‘पुलिस प्रोटेक्शन है कि नहीं।’’ जवाब में उन्होंने जो भी कहा, मेरे लिए समझना सम्भव नहीं हो पाया।

‘‘जिस राज्य में भी जाती हूँ, मेरे लिए सुरक्षा की व्यवस्था की जाती है। आपने की है या नहीं?’’

इस बार उन्होंने जो कुछ भी कहा, कान खोलकर सावधानी से सुनने की कोशिश की, और जितना भी समझ पायी, वह था-‘‘नहीं किया...हें...हें। छोटा-सा तो कार्यक्रम है। उतना प्रचार भी नहीं किया गया है। ख़ामख़्वाह पुलिस के झमेले में पड़ने की क्या जरूरत है।’’
‘‘ओ! असल में पुलिस प्रोटेक्शन झमेला करने के लिए नहीं, झमेले से बचने के लिए लिया जाता है।’’

‘‘हें...हें’’
पता नहीं क्यूँ मैंने ईनाईया को याद नहीं दिलाया था कि हैदराबाद में आने के पिछले दोनों आमन्त्राणों को ठुकराने का एकमात्र कारण यह था कि मुझे यह शहर सुरक्षित नहीं लगा। क्यूँकि मुसलमानों ने इस शहर में मेरे खिलाफ, इससे पहले भी, कुछ हंगामा किया था। अखबार में पढ़ा था कि एक किताब की दुकान को तोड़-फोड़ दिया गया था, क्यूँकि वह मेरी किताब लज्जाबेच रहा था। मैं भुलक्कड़ हूँ। भूल ही गयी थी कि दूसरे शहरों की तुलना में इस शहर में मुसलमानों की संख्या ज़्यादा है। मुसलमानों की संख्या ज़्यादाहोने से, मुसलमान कट्टरपंथियों की संख्या भी ज़्यादाहोने की सम्भावना है। मौलवादी मुझे बहुत सालों से इस्लाम विरोधीका खिताब दिए बैठे हैं। सब मिटाया जा सकता है, पर इस खिताब को नहीं मिटाया जा सकता। मेरी नास्तिकता, मेरा मानववाद, मेरी वैज्ञानिक मानसिकता, मेरी मानवीयता भी कुछ लोगों के मस्तिष्क में गहरे में गड़े एक विश्वास के काँटे को-मैं इस्लाम विरोधी हूँउखाड़ कर नहीं फेंक पायी है।

कार्यक्रम हैदराबाद के प्रेस क्लब में था। मेरे शोधउपन्यास के तेलुगु अनुवाद का लोकार्पण हुआ। एक तेलुगु लेखक और एक अनुवादक ने अपने लेखन और अपने अनुवाद करने के अनुभवों के बारे में कहा। मैंने मानवाधिकार के विषय पर कहा, ‘शोधनारीवादी किताब है। शोधकी प्रधान चरित्र झुमुर खुद को पुरुष की सम्पत्तिहोने नहीं देती, प्रतिवाद करती है। नारी, पुरुष या समाज की सम्पत्ति नहीं है, इस बात की ही कोमल आवाज में मैंने चर्चा की। मेरी आवाज कतई भी जुलूस में नारे लगाती तोड़ दो, ध्वस्त कर दोकहने वाली औरतों की तरह नहीं थी। जितनी भी कड़ी बात कहूँ, जितना भी क्रुद्ध हो जाऊँ, फिर भी विनम्र, शिष्ट, शान्त और नरम ही रहती हूँ।

कार्यक्रम खत्म होने के बाद, दिन का खाना खाने के लिए निकलने ही वाले थे, जब यह हादसा हुआ। प्रेस क्लब के सामने के दरवाजे से कुछ लोग घुसकर, तेलुगु भाषा में चीखते हुए मेरी तरफ बढ़ने लगे। वे चिल्ला-चिल्ला कर क्या कह रहे थे, वह समझना मेरे बूते से बाहर था। मेरी ही तरफ क्यूँ बढ़े आ रहे हैं, वह भी समझ में नहीं आ रहा था। अचानक देखती हूँ हाथ में जो भी आ रहा था, फूलों का गुच्छा, किताब, बैग, कुर्सी-सब मुझ ही को निशाना बनाकर फेंक रहे थे। रोकने के लिए आगे आये कुछ लोग जख़्मी हो गये। पत्राकार व्यस्त हो गये फोटो खींचने में। मैं उनके पीछे छुपने की व्यर्थ कोशिश करने लगी। मेरे बदन पर क्या आकर लग रहा था, मुझे इसकी परवाह नहीं थी। सोच रही थी, लगातार आगे बढ़ती आ रही मृत्यु से कैसे बचूँगी मैं? कोई मुझे खींच कर पीछे के दरवाजे के पास ले गया, क्लब घर से मुझे निकाल कर गाड़ी में बिठाने के लिए। आक्रमणकारी तब तक पीछे के दरवाजे की ओर दौड़ कर आने लगे। समझ गयी, गाड़ी में चढ़ पाना मेरे लिए सम्भव नहीं होगा। पिछले दरवाजे को मैंने जल्दी से बन्द कर दिया। संग-संग ही उन लोगों ने जोर से लात मार दरवाजे के काँच को तोड़ दिया। किस तरह बच पाऊँगी, इसके अलावा कोई भी और दूसरा ख़याल नहीं था दिमाग में। दौड़ के पहुँचती हूँ सामने के दरवाजे की ओर। नहीं, वहाँ से भी निकलने का कोई उपाय नहीं। प्रेस क्लब को घेर लिया है आक्रमणकारियों ने। सामने के दरवाजे को भीतर से बन्द कर लिया गया। क्लब घर के अन्दर मैं और कुछ निरीह औरतें, सम्भवतः दो-एक पुरुष भी थे। वे लोग टूटे दरवाजे के आगे कुर्सियाँ रखकर एक ऊँची दीवार-सी बनाकर खड़े हो गये। मुझसे कहा खम्बे के पीछे छुपने को, तो किसी ने कहा टेबिल के नीचे छुपने को। पर खाली कमरे में जहाँ भी छुपूँ, उस दीवार को तोड़कर कमरे में घुसने पर मुझे दबोच ही लेंगे वे लोग। बाहर विकट आवाज में, न जाने कितने लोग, नारे लगा रहे हैं, ‘‘तसलीमा नसरीन मुर्दाबाद।’’ इसके अलावा भी बहुत चीखने-चिल्लाने की आवाजें आ रही हैं। इसी समय मंच के नीले पर्दे के पीछे एक गुप्त दरवाजा था, सुना उसे भी बाहर से खोलने की कोशिश चल रही थी। उस दरवाजे को तोड़ कर घुसने पर, खम्बे के पीछे छुपी मैं, उनके नजर के सामने आ जाऊँगी और अगर खम्बे की दूसरी तरफ खड़ी होती हूँ तो, टूटे दरवाजे के आगे कुर्सियों व लोगों
द्वारा बनाई दीवार को तोड़कर झट से पकड़ लेंगे मुझे। पर उस दरवाजे को तोड़ने से बाहर से पत्रकार रोक रहे थे। खुद जख़्मी होकर भी रोकने की कोशिश कर रहे थे, मारने को तैयार लोगों को। बहुतों ने तब फोटो खींचना छोड़कर मुझे बचाने की कोशिश की। मौत किसी भी क्षण मेरे बहुत पास आकर खड़ी हो जाएगी। वह क्षण मेरे सीने के अन्दर टन-टन कर बज रहा था। किसी भी समय अंतिम क्षण का घंटा बज जाएगा। असहाय सी मैं, एक ओट से दूसरी ओट छिपती फिर रही थी। शौक से पहना गले का मंगलसूत्र कब टूट कर गिर गया, पता ही नहीं चला। किसी को नहीं पता किस तरह बचाया जाए मुझे। टूटे दरवाजे को रोक कर खड़े लोग, बाहर से आती भयानक आवाजों की ओर डर से देख रहे थे। किसी भी पल धक्का खाकर उलट कर गिर पड़ेंगे। बाहर चीखने-चिल्लाने और स्लोगनों की तीव्रता बढ़ती ही जा रही थी। सीने के अन्दर घंटे की टन-टन आवाज भी बढ़ती ही जा रही थी। बार-बार अनुरोध कर रही थी कि कोई पुलिस को खबर कर दे। पर करेगा कौन, सभी तो पगलाये हुए हैं। ऐसी घटना उन लोगों ने कभी अपनी आँखों के आगे घटते नहीं देखी। भागा-दौड़ी, किसी के चीखने की भयावह आवाज। जब मुझे मारा जाएगा, कुछ बुलेट छिटक कर या फिर चाकू की नोक गलती से किसी के पेट या पीठ पर लग जाने से वे जख़्मी हो जाएँगे, क्या इस सोच में वे चिंतित हैं। कौन जाने! पहले-पहले भौचक होकर इन सब दृश्यों को देखते रहने के बाद, कुछ धमाका होने की आशंका से, आयोजक एवं दर्शकों में से बहुत से भागने लगे। मैं अकेली पड़ जाती हूँ। दीवार की तरफ बढ़ने लगती हूँ, क्यूँकि कोई और ओट नहीं है सामने। मुझेलग रहा था जैसे, दाहिने तरफ का दरवाजा लगभग टूट ही गया है और बायीं ओर के टूटे दरवाजे के बिल्कुल करीब आ गये हैं, हत्यारे। मैं एक-एक कदम कर आगे बढ़ती आ रही मौत के कदमों की आहट सुन पा रही थी, और बेचैनी से इन्तजार कर रही थी, पुलिस के आने का। नहीं, पुलिस इस त्रिभुवन में नहीं है। कोई नहीं जानता हैदराबाद के प्रेस क्लब में क्या घट रहा है। मेरी आँखें फट पड़े और पानी बह जाए, वह भी नहीं हो रहा। शरीर अवश होकर, जमीन पर लुढ़क जाए, वह भी नहीं हो रहा था। हत्यारों के पास अगर पिस्तौल हो! तो वे गोली चलाएँगे। अगर छुरा हो तो घोंप कर मारेंगे। और अगर कुछ भी न हो तो लोहे की कुर्सियाँ सर पर मारकर जख़्मी करेंगे। पैरों के नीचे रौंद कर मारेंगे। वे सब तो बहुत सारे हैं और मैं अकेली, और भी अकेली होती जा रही थी। टन-टन की आवाज और भी भयावह हो गयी थी। मुझे तो पता है, यही लोग हैं मेरे खिलाफ फतवा जारी करने वाले। ये ही हैं मेरे सर की कीमत लगाने वाले, ये लोग ही मेरा सर चाहते हैं, मेरी फाँसी की माँग लेकर सड़कों पर उतरने वाले, ये ही थोड़े-थोड़े समय के बाद मेरे पुतले, मेरी किताबें जलाते हैं। इससे पहले इन लोगों ने कभी मुझे अपने हाथ के इतने करीब नहीं पाया है। अब ये, जो मर्जी मेरे साथ कर सकते हैं। किसी भी पल मैं देखूँगी अपने जीवन के अन्तिम पल को। मृत्यु कैसी होती है, क्या बहुत तकलीफ होगी! ये लोग क्या सर पर या सीने पर गोली चलाएँगे, या काट-काट कर, बलात्कार कर, पीस-पीसकर मारेंगे!

तभी अचानक पुलिस आ गयी। उस टूटे दरवाजे पर लगाये रोक को तोड़कर, हत्यारों के आने से पहले ही अन्दर आ गयी। मुझे पूरी तरह से सुरक्षित करने की व्यवस्था उन्होंने ही की। दीवार से चिपका मेरा पत्थर सा शरीर, धीरे-धीरे स्वाभाविक होने लगा, मुट्ठियाँ खुलने लगीं। सुना बाहर मौलवादियों को पुलिस ट्रक में बैठा रही है। उसके बाद मुझे भी सुरक्षा घेरे में लेकर पुलिस की गाड़ी में बिठाया गया, जल्दी से ओट कर दी गयी। हितैषियों ने चैन की साँस ली।

इस बीच मैंने मृत्यु का चेहरा तो देख ही लिया। वे जब हत्या करते हैं तो ऐसे ही करते हैं। सब तहस-नहस कर देते हैं। जताकर-सुनाकर-दिखाकर। पैगम्बर का नाम लेकर, झंडा फहराते हुए। आज मेरा अलौकिक ढंग से बचना हुआ। जीवन और मृत्यु के बीच सिर्फ एक सूत का व्यवधान था। मुझे आशंका है कि इसी तरह मेरी एक दिन मृत्यु होगी। कभी कहीं जब कविता पढ़ रही होऊँगी, कहीं जब मानवता की बात कह रही होऊँगी, अचानक ही कोई मेरे सीने को छेद देगा।

क्या गलती की है मैंने? क्या धर्मान्धता, कुसंस्कार, उत्पीड़न, दमन के खिलाफ बात करना अन्याय है? मानवाधिकार या मानवता के पक्ष में खड़ा होना क्या जुर्म है? घृणा की आग में वे मुझे जैसे भी हो, जला कर मार डालना चाहते हैं। क्यूँ, किसी का क्या बिगाड़ा है मैंने?
लोगों के प्यार ने मुझे जीवन दिया है। सिर्फ भारतवर्ष में ही नहीं, भारतवर्ष के बाहर के लोगों से भी मिलता रहा है-युक्तिवादि, मुक्तबुद्धि, सद्बुद्धि के लोगों का समर्थन। मेरी आँखों में, मौलवादियों का आक्रोश या उन्हें दाँत पीसते हुए देखकर पानी नहीं आया। मैं जब टूट चुकी, जब मुझे मृत्यु की गुफा से बचाकर लाया गया, और तब-जब मैंने किसी की बेचैन आवाज सुनी, ‘तुम ठीक तो हो?’ या हम तुम्हारे साथ हैं।’, मेरी आँखें भर आयीं।

अब मुझे अकेला नहीं लगता। जानती हूँ, हम संख्या, में ज्यादा हैं, हम वो-जो लोकतंत्र और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर विश्वास करते हैं और वे हमेशा ही संख्या में कम रहेंगे, जो बोलने की आजादी के खिलाफ हैं, मानवताविरोधी,असहिष्णु और कट्टरपन्थी मौलवादी हैं। क्या उनका युद्ध मुझ अकेले के साथ है? लड़ाई तो हम सबों के साथ है। एक स्वस्थ समाज गढ़ने के लिए, एक सुन्दर देश गढ़ने के लिए, एक बसने लायक दुनिया बनाने के लिए, हम उस भयंकर पर क्षुद्र शक्ति के विरुद्ध बिना कोई समझौता किये लड़ सकते हैं। हम सब ही। क्यूँ? नहीं कर सकते हैं क्या?

मेरे विचारों को रोककर पुलिस हेडक्वार्टर पर गाड़ी रुकती है। धर्म बहुत भयंकर होता है, प्रकृति से प्रार्थना करना शुरू करती हूँ कि किसी हिन्दू पुलिसवाले से सामना हो, न कि किसी मुसलमान पुलिस अफसर से। दूसरी मंजिल पर ले जाकर बड़े-बड़े अफसरों के साथ मेरा परिचय करवाए जाने पर, तिरछी नजरों से उनके सीने पर लगे उनके नामों को पढ़कर, खुद को निश्चिन्त कर लेती हूँ। पुलिसवाले सभी बहुत मिलनसार थे। सभी आक्रमणकारी मौलवादियों को वे जानते थे। कमरे में टी.वी. पर, प्रेसक्लब में हुए निकृष्ट आक्रमण के हादसे को ही दिखाया जा रहा था, रह-रहके बड़े अफसर अपनी राय दे रहे थे। उन आक्रमणकारियों के विरुद्ध मुझ से दो शिकायत-पत्र लिखवा लेने के बाद मुझसे कहा सबको जेल ले जाया जा रहा है, आप जरा भी चिंता मत करिएगा मुझे और क्या है सोचने को! मैं तो शहर छोड़कर चली ही जा रही हूँ। इस शहर में फिर कभी आना होगा, ऐसा मुझे नहीं लगता है।

शाम को कलकत्ता लौट जाने की बात थी, एयरलाइन्स में फोन करके बड़े साहब ने समय को और पहले करवा लिया, शाम होने से पहले ही पुलिस अफसर मुझे हवाई अड्डे ले गए। किसी भी पत्रकार शाम को मुझे हवाई अड्डे ले गये पुलिस अफसर। किसी भी पत्रकार को भनक नहीं लगने दी कि कब मुझे हवाई अड्डे ले जाया जाएगा, इसके बावजूद वहाँ पत्राकारों की भीड़ थी। शायद उनका उद्देश्य ही सारा दिन वहाँ बैठकर इन्तजार करना था। मैंने स्पष्ट कह दिया कि साक्षात्कार नहीं दूँगी, पर कोई भी हिलने को तैयार नहीं, भीड़ जमी हुई है। कलकत्ता पहुँचकर भी वैसा ही हाल। हवाई अड्डा भरा हुआ है संवाददाताओं से। कौन जाने! कैसे लोगों को पता चला कि मैं किस समय आ रही हूँ? घर पहुँच के देखती हूँ कि टी.वी. कैमरोंऔर पत्रकारों से बरामदा भरा पड़ा है। किसी को घर में आने नहीं दिया। किसी के साथ कोई बात नहीं की, जो घटना घटी है उसका प्रतिवाद दूसरे करें। मुझे क्यूँ करना होगा प्रतिवाद! इसी कलकत्ते से ही लड़ती आ रही हूँ, मत प्रकाश करने की स्वाधीनता के पक्ष में! मेरे मुरझाए चेहरे और मेरी सारी देह को टी.वी. पर दिखाकर ही क्यूँ बोलना पड़ेगा कि मुझे विचार प्रकट करने की आजादी चाहिए। लोग मुँह खोलें। सारे देश ने देखा है, जो कुछ भी हुआ। अपने ऊपर हुए हमले का खुद ही कितना वर्णन करूँ। बहुत नहीं हो चुका! मुझे थकान जैसी कोई चीज नहीं होती है क्या! क्या मुझे गुस्सा नहीं आना चाहिए! मैं एक लेखक बनी हूँ, लिखने के लिए या लिखने के अधिकार को लेकर लड़ने के लिए! और कितने मार खानी होगी मुझे, कितने शिकवे-शिकायतें करने पड़ेंगे, भागना पड़ेगा, रोना पड़ेगा मुझे!

घर में परेशान मित्र, मेरे लौटने की प्रतीक्षा कर रहे थे। अपने अन्दर की असह्य आग या फिर ठंडेपन ने स्तब्ध कर रखा था मुझे। सब मुझसे जानना चाह रहे थे कि क्या हुआ था, क्यूँ हुआ, शुरू से आखिर तक। किसी को भी कुछ बताने की इच्छा नहीं हो रही थी। बस अपनी बिल्ली को ढूँढ़ रही थी। फोन बजे चला जा रहा था। उठाकर बात करने का कतई भी मन नहीं था। बस अपनी बिल्ली को गोद में उठाकर प्यार करने का मन हो रहा था। चाह रही थी कि सब दोस्त घर से चले जाएँ, मुझे अकेला रहने दें। मुझे बहुत नींद आ रही थी। जैसे हजारों साल से सोयी नहीं हूँ, पर क्या सो सकी! बार-बार वही सारे चेहरे मेरी आँखों के आगे तैरने लगते, आतताइयों के भयंकर क्रुद्ध चेहरे, उनके हिंस्र शरीर। हो सकता है मुझे मार देने के उद्देश्य से वे नहीं आये थे, पर उस समय तो मुझे मालूम नहीं था कि वे विधायक हैं, दल की लोकप्रियता कम हो गयी है इसलिए, आ धमके मुझ पर आक्रमण कर, इलाके में अपनी लोकप्रियता बढ़ाने के लिए। मुझे तो लगा कि इतने दिनों के बाद धर्मान्ध, फतवेबाज, चरमपंथियों के एक दल के हाथ लग गयी मैं! बिना किसी सुरक्षा के, मेरी हत्या कर बहिश्त जाने का सुनहरा मौका, वे हाथ से नहीं जाने देंगे। बहुत से छोटे-मोटे मृत्यु के फंदों से बचती आयी हूँ पर इनके पंजों से बचने का अब और कोई उपाय नहीं। मुझे जान से नहीं मारा। नहीं मार सके ऐसा नहीं कहूँगी। चाहते तो मार सकते थे। अगर इच्छा न भी हो, क्रोध इंसान को इतना वहशी बना देता है कि उस वक़्त किसी को मार देना बहुत मुश्किल काम नहीं, बल्कि न मारना मुश्किल हो जाता है।

मृत्यु से बच कर आयी मैं। पुनरुत्थान हुआ मेरा। अपने दूसरे जीवन में, मैं।

हम श्रीकृष्ण जन्मोत्सव मनाते हैं, जन्मदिन नहीं..

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|| जन्माष्टमी की हार्दिक शुभकामनाएँ || 

विद्यानिवास मिश्र 
सम्पादन एवं संचयन  : दयानिधि मिश्र 

हम श्रीकृष्ण जन्मोत्सव मनाते हैंजन्मदिन नहीं...
म श्रीकृष्ण जन्मोत्सव मनाते हैं, जन्मदिन नहीं, क्योंकि श्रीकृष्ण के प्रादुर्भाव का अनुभव करना चाहते हैं। श्रीकृष्ण के जीवनचरित को स्मरण नहीं करते। जो हमारे जीवन में रचा-बसा हो, उन्हें स्मरण करने की क्या आवश्यकता है। हमारे कवि का गान साक्षी के रूप में करते हैं। लीला उनके सामने घटित होती रहती है। हमारी निरक्षर या अर्द्ध-निरक्षर ग्रामीण जनता श्रीकृष्ण का ध्यान कजली या होली में उत्सवों में प्रत्यक्ष उपस्थिति के रूप में करती है, किसी पूर्व पुरुष या किसी जातीय अतीत इतिहास नायक के रूप में नहीं। श्रीकृष्ण से हमारा सीधा सम्बन्ध है, उन्हें उलाहना देने का, उनसे नाराज होने का, उन्हें दुलारने का, उन्हें प्यार से बुलाने का हमें अधिकार है और इस अधिकार पर हम गर्व करते हैं। श्रीकृष्ण हमारे भाव-पुरुष हैं, उनकी लीला हमारे भाव जगत् में घटती ही रहती है, कभी उसका विराम नहीं होता। यही नहीं, जीवन का कोई ऊर्जात्मक पक्ष नहीं है जो श्रीकृष्ण में पूर्ण रूप से अभिव्यक्त न हुआ हो। बाल सुलभ चापल और स्फूर्ति से लेकर प्रौढ़ पुरुष की परिणति स्थितप्रज्ञता और निस्संग करुणा तक जितने भी गुण हो सकते हैं, वे सभी श्रीकृष्ण में मूर्तिमान् हैं। श्रीकृष्ण भारत भूमि की जीवन साधना के प्रतिमान के रूप में हमारे सामने रहते हैं। हम कैसे हर्ष-विषाद दोनों को एक तरह ग्रहण कर सकें, हम कैसे प्यार और निर्ममता दोनों का निर्वाह कर सकें, हम कैसे वीरता और धीरता दोनों को साधे रह सकें, हम कैसे छोटे से छोटे काम में दक्षता प्राप्त करके वह काम करने में गौरव का अनुभव करें, यह सब हम श्रीकृष्ण को सामने देखते हैं तो आसान लगता है, श्रीकृष्ण को नहीं देखते, असम्भव लगता है।

लोग कहते हैं श्रीकृष्ण अलौकिक हैं, हमारी दृष्टि में वे इतने लौकिक हैं जितना लौकिक कोई हो नहीं सकता, जो हर लौकिक सम्बन्ध निभाना भी जानता है और निजी से निजी सम्बन्ध से असंपृक्त रहना भी जानता है। लोक की दृष्टि से जो बड़ा नैतिक साहस हो सकता है, सोलह हजार अपहृत नारियों को स्वीकार करने का साहस अलौकिक शक्ति से नहीं आता, लोकसंग्रही शक्ति से आता है। श्रीकृष्ण महाभारत युद्ध में इतना दांव रखते हैं, दुर्योधन के सामने, मुझ निश्शस्त्र को लो या मेरी शस्त्र सन्नद्ध नारायणी सेना लो, पहले चयन का अधिकार तुम्हें है और दुर्योधन आसुरी सम्पत्ति के मद में उन्मत्त सेना चुनता है, श्रीकृष्ण को नहीं चुन पाता। वह सर्वात्मा वासुदेव को नहीं चुनता, उनका परिग्रह चुनता है। आज भी यह चयन की छूट हम में से प्रत्येक के सामने है, हम श्रीकृष्ण को ग्रहण करें या श्रीकृष्ण के बाहरी स्वरूप को। हम भी अधिकतर श्रीकृष्ण को नहीं ग्रहण करते, हमें लगता है, उसमें बड़ा जोखिम है, श्रीकृष्ण अकेले निश्शस्त्र साथ रहें, हमारी सुरक्षा नहीं है, क्योंकि हम श्रीकृष्ण के अकेलेपन में सब प्राणियों के अकेलेपन को पुंजित नहीं देख पाते। हम नहीं देख पाते कि वह अकेलापन बड़ा विराट है। उस विराट अकेलेपन के साथ रहने पर कहीं कुछ खालीपन नहीं रहता, वह न रहे तभी सब भरा-भरा हो, पर खाली लगता है। घड़ा थोड़े ही रस होता है, घड़े को जो भरता है, वही रस होता है, श्रीकृष्ण ही सबसे अधिक भरने वाले रस हैं।
श्रीकृष्ण 
हाँ, रस को भरने के पहले घड़ा छोटा हो, बड़ा हो, इससे कुछ नहीं होता, बस कच्चा न हो, बड़ी आँच में पका हो और निरा घड़ा हो, उसमें कोई रंगामेजी न हो, उस पर कोई लेबुल न लगा हो, निपट साधारण हो, उसमें कुछ रस पहले से रखा न हो, घड़ा बार-बार धोकर भीतर साफ किया गया हो, औंधा दिया गया हो, एक बूँद उसमें न रह गयी हो, उसे फिर सीधा करके धूप में तपा दिया गया हो, तब श्रीकृष्ण रस भरता है। श्रीकृष्ण चाहते हैं, तुम जो हो, वह हो आओ, तुम अपने सहज धर्म में अधिष्ठित हो जाओ और अपने को निचोड़कर अर्पित कर दो, मेरा जो भी रस था, यह अर्पित है, तुम अपने आप में विरेचित हो जाओ,निष्किंचन हो जाओ, और पुकारो-श्रीकृष्ण आओ, तुम यहाँ प्रकट हो। यह अज्ञान की अन्धी कारा, यह भय की डरावनी रात, यह भयंकर वर्षा, यह शून्य का निरन्तर शराघात, वे जकड़ने वाले बन्धन, यह गहराता भादों, यह दुर्भेद्य दम्भ का प्राचीर, यह अनाचार और अनीति की परिखा, यही तो तुम्हारी प्रादुर्भाव भूमि है, श्रीकृष्ण आज और अभी जन्म लो, और सब अन्धकार तिरोहित हो जाए, डर चला जाए, शृंखलाएँ टूट जाएँ, प्राचीर ढह जाए, अनाचार सूख जाए, शरवर्षा अमृत वर्षा हो जाए।
श्रीकृष्ण के लिए यह पुकार केवल एक चित्त में नहीं, समष्टि चित्त में उठेगी क्योंकि विश्व, केवल भारत ही नहीं, मूल्यः रोड़ा अपना खोखलापन पहचान चुका है, बहुत आजमा चुका है भरने के उपाय, पर कोई तो नहीं भरता, सब और खाली करते हैं। श्रीकृष्ण का भरना ही भरना होता है क्योंकि श्रीकृष्ण स्वयं को निश्शेष करके स्वयं भरे हुए, भरने वाले हुए। उन्होंने जीवन यात्रा को आहुति के रूप में देखा, जन-जन की भूख-प्यास-चाह में ही अनुभव किया कि जीवन यज्ञ की दीक्षा होती है, उन्होंने मृत्यु की प्रतीक्षा की जैसे अज्ञात अवभृथ-स्नान की प्रतीक्षा कर रहे हैं, उन्होंने अपने को निरन्तर दो भागों में चीरा, कितने तुम अपने हो, कितने सबके हो, उन्होंने निरन्तर अपने को तिल-तिल काटा और परखा। क्या है वह जो कटता   नहीं, जो चुकता नहीं। उस श्रीकृष्ण के जन्म की तैयारी करनी है तो श्रीकृष्ण बनें न बनें, बन सकने का संकल्प लें, न लें, श्रीकृष्ण प्रकट होने वाले हैं, इसके लिए अपने शरीर-इन्द्रिय-मन सबके भाजन माँजकर तो रखने होंगे, वह माँजने की तैयारी कहाँ हो रही है?



श्रीकृष्ण जन्म एक उत्सव है, रस का उफान है, उसका उमहाव है, रस का उच्छलन है, उसमें मैं के लिए गुंजाइश नहीं है। श्रीकृष्ण बड़े ही ईर्ष्यालु हैं, किसी दूसरे की गुंजाइश नहीं रहने देते, और जब तक आदमी अपने लिए पराया न हो जाय, तब तक वे अपने नहीं होते। यह उत्सव अपनापन सँजोकर नहीं मनाया जा सकता, विद्यापति के ओ निज भाव सुभाव बिसारल-वाले निजता के विस्मरण माधव के बसने की पहली शर्त है। श्रीकृष्ण जन्म होकर भी जब तक पूरी तरह प्रतीत नहीं होगा अंग-प्रत्यंग में, भाव-अनुभाव में और कण-तरंग में तब तक जन्मोत्सव कैसा? इस जन्मोत्सव के लिए कोई न मुनादी होती है, न कोई पर्चा बँटता है, इसके लिए भीतर से शिराओं में उबाल आता है, नस-नस उत्तप्त हो जाती है, मन उत्तरवाहिनी गंगा बन जाता है, सृष्टि सावधान होकर उत्सुक हो जाती है-श्रीकृष्ण का आविर्भाव होने जा रहा है। वह तैयारी हो रही है या नहीं, यही जाँचने-पड़तालने की जरूरत है, क्योंकि श्रीकृष्ण जन्माष्टमी साधारण अनुष्ठान नहीं है, एक विश्वभावनशील महाजाति के दुर्जर तप की परिणति है, कोटि-कोटि उपवासों का पारण है, असंख्य नक्षत्रों की चन्द्रोदय-प्रतीक्षा की परिसमाप्ति है, निरन्तर धारासार वृष्टि की झनकार है। वही श्रीकृष्ण जन्माष्टमी है।
प्रादुर्भाव, पृष्ठ संख्या - 17 
-जीवन अलभ्य है, जीवन सौभाग्य है (1994)


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किताब समीक्षा: पतनशील पत्नियों के नोट्स

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 किताब समीक्षा: पतनशील पत्नियों के नोट्स  




'बीवी जो जिस्म नहीं रह गई, जुनून नहीं रह गई'






बीबी हूं जी, हॉर्नी हसीना नहीं
हर रात तेल और मसालों की बू से लबालब इस हरारत भरे बदन को बिस्तर तक पहुंचाते हुए अपने दिलो-दिमाग पर जमी औरताना किचकिच को साफ करती चलती हूं. माफी चाहती हूं कि आज भी तुम अपने बिस्तर पर हॉर्नी हसीना की जगह बहस के लिए पिल पड़ती बेस्वाद बीवी ही पाने वाले हो.
बीवी जो जिस्म नहीं रह गई, जुनून नहीं रह गई. बस एक थुलथुले, लिजलिजे गोश्त में तब्दील हो चुकी है. बीवी जिसके बदन में नजाकत और शरारत भरी कामुक शिरकतों को महसूस करने की कवायद में मनहूसियत ही हाथ लगा करती है.
(पतनशील पत्नियों के नोट्स किताब का एक अंश)
बस्टी ब्यूटियों का तिलिस्म
जिस मुल्क में देवियों तक को भरपूर उभारों और गोलाइयों वाले उरोजों के साथ रचा गया हो, वहां बेहाल और ऊलजुलूल अनुपात वाली छातियों की मालकिन होने का जुर्म छोटा नहीं हो सकता है. सच कहूं तो मैं किसी ऐसी औरत से मिलने को बेताब हूं जो अपनी छातियों की दरार में बेशर्म हकीकत बनकर उभरती झुर्रियों की झलक से परेशान न होती हो. जो अपने सीने पर पसरते हुए सफेद धारियों के जंगली जाल से खौफ न खाती हो.
(पतनशील पत्नियों के नोट्स किताब का एक और अंश)

अगर किसी की पत्नी ऐसा बोले तो हिंदुस्तान के समाज में ये कुफ्र ही माना जाएगा. क्योंकि आम तौर पर हमारे समाज में औरतों की चुप्पी ही उनका एक्जिस्टेंस मानी जाती है. अगर बोलें तो सोशल ऑर्डर के टूटने का खतरा मंडराने लगता है. ये तो मानी हुई बात है कि हर किसी को बीवी एक रबर बैंड की तरह चाहिए. जैसे चाहिए, खींच लीजिए. दिन भर काम कराइए, फिर कहीं कोने में डाल दीजिए. पर रात में बीवी हॉर्नी हसीना ही होनी चाहिए. कितने ऐसे केस आते हैं जिसमें थुलथुल पति अपनी पत्नी से एक्रोबैट वाले करतब करने को कहता है. ना करने पर मार-पीट सब हो जाती है. फिर पति अपना अधिकार भी छीन के लेता है. क्योंकि मैरिटल रेप का कॉन्सेप्ट तो है नहीं इंडिया में. कॉन्सेप्ट तो पीरियड का भी नहीं है. औरत के अलावा कोई नहीं जानता कि उसे पीरियड आ रहे हैं.

ये बातें एक लड़की कह रही है

औरतों की इन सारी बातों को नीलिमा चौहान लिखकर लाई हैं अपनी किताब पतनशील पत्नियों के नोट्स में. वाणी प्रकाशन से आई है ये किताब. 200 पेज की किताब में 49 चैप्टर हैं. हॉर्नी हसीना से शुरूआत होती है. ब्रा, लस्ट, तीस घटा पांच यानी पीरियड, सब पे बात होती है. शुक्रिया भी अदा किया गया है अंत में.




नीलिमा चौहान

किताब में दो खूबसूरत चीजें हैं- भाषा और मुद्दे. हिंदी और उर्दू मिक्स कर बड़े ही खूबसूरत अंदाज में बातें कही गई हैं. स्पष्टता से. फिर कोई मुद्दा छोड़ा नहीं गया है. हर चीज पर बात की गई है. एक चीज का खास ख्याल रखा गया है. बिना किसी के दिमाग पर दबाव डाले सारी बातें कह देना. शायद इसी के लिए उर्दू के शब्दों का इस्तेमाल किया गया है.
क्योंकि सिर्फ हिंदी भाषा इस्तेमाल करने से कंटेंट के सीरियस होने का खतरा था. तब ये किताब ‘स्त्री-विमर्श’ के दायरे में आने लगती. पर पतनशील पत्नियां कहां विमर्श करना चाहती हैं. वो तो बस अपनी बात करना चाहती हैं. विमर्श आप करिए. उर्दू के शब्द ह्यूमर को एक एंगल दे देते हैं. एक अदब. एक तंज. मेरे ख्याल से बहुत मजबूती से प्रतिरोध जताने के लिए भाषा का ये इस्तेमाल बड़ा ही खूबसूरत होगा. शायद इसी वजह से शायर बड़ी आसानी से बड़ी-बड़ी बातें कह जाते हैं.

इन बातों की खूबसूरती है कि लड़कियां खुद पर हंस रही हैं

अगर किताब के कुछ चैप्टरों के नाम ही देख लिए जाएं तो पता चल जाता है कि पतनशील पत्नियां कुछ छुपाना नहीं चाहतीं. अगर मजाक के नाम पर मर्द अपनी हर बात कह सकते हैं तो औरतों को भी ये लक्जरी पब्लिकली मिले. बहुत लंबे वक्त से ये बना चला आ रहा है कि किसी भी पार्टी में कोई मर्द बड़े ही आराम से जोक्स क्रैक करने वाले की भूमिका निभाता है और औरतें यू आर सो फनी कह के ताली पीटती हैं. पर पतनशील पत्नियां के पास भी जोक्स हैं. दे आर ऑल्सो फनी. वो किसी पेडेस्टल पर नहीं रहना चाहतीं. ना ही किसी पेडेस्टल के नीचे. तो उनकी बातें भी हैं, कुछ यूं-
1. तश्तरी में मादा लेखन. 2. शरीफजादियां नहीं होतीं शराबखोर. 3. घर वापसी. 4. शादी का मेहनताना. 5. मैं भी काफिर. 6. अय्यार जनानापन. 7. बराबर की छप्पनछुरी. 8. बीवियों के माशूक नहीं होते. 9. चूंकि बोरियत भी एक मर्दाना शै है. 10. बवाल ए जान ब्रा. 11. तीस घटा पांच. 12. जनाना लस्ट के लफड़े.
पर ये पूरी कहानी औरतों के एक खास वर्ग का प्रतिनिधित्व करती है. ना तो ये कमर पर फेंटी बांध ईंट ढोने वाला वर्ग है, ना ही मर्सिडीज से निकल कर सीधा स्विमिंग पूल में छलांग लगाने वाला वर्ग है. ये छोटे शहरों का भी नहीं है. टियर 2 या टियर 1 के शहर के एक-डेढ़ लाख रुपये महीने की कमाई वाला वर्ग लगता है. जो आराम से जिंदगी बिता रहा है. इनके पास लाइफ तो है, कभी-कभी डल हो जाती है.
जो भी है, ये किताब बड़े ही प्यार से लिखी गई है. क्रूर मुद्दों को उठाकर. जिनको फेमिनिज्म का नाम सुन के कन्फ्यूजन हो जाता है, उनके लिए ये किताब प्राइमर का काम करेगी. जिन्हें मुद्दे पता हैं, उनके ज्ञान में इजाफा होगा. पर सबसे बड़ी बात है कि ये किताब औरतों का एक बहुत ही मजबूत पक्ष देती है. ट्रू फेमिनिज्म. कि औरतें मजाक कर सकती हैं. सेल्फ-डिप्रीकेटिंग ह्यूमर भी शामिल हैं उसमें. मतलब खुद पे हंस सकती हैं. उन्हें हर वक्त कॉन्शस रहने की जरूरत नहीं है. उन्हें कल्चर्ड होने का दिखावा नहीं करना है हर वक्त. जैसी हैं, उसमें कम्फर्टेबल हैं. मेरी नजर में ये चीज किसी भी औरत को सबसे ज्यादा मजबूत बना सकती है. विमर्श तो सिर्फ सरकार की पॉलिसी बनाने के काम आता है. पर औरतों का हंसना शुरू करना सबको विस्मय में डाल सकता है. आने वाले वक्त में ऐसी और किताबों की दरकार है.
कोई भी किताब या रचना किसी पॉइंट का द एंड नहीं होती. ये किताब भी उस दायरे से बाहर नहीं है. कहीं-कहीं ऐसा लगता है कि कुछ चीजें जल्दबाजी में लिख दी गई हैं. और अच्छा लिखा जा सकता था. पर लिखने वाले की नजर में शायद इतना पर्याप्त होगा
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 पाखी पत्रिका के मार्च अंक में छपी 

 पतनशील पत्नियों के नोट्स की समीक्षा  



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12 मार्च 2017 

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पुरुषों के भी हैं पतनशील पत्नियों के नोट्स 

 गीताश्री 


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स्त्री के प्रति सामाजिक नजरिये पर व्यंग्य 


2 अप्रैल जुलाई 2017 



हिन्दी महोत्सव'2017 | मीडिया कवरेज

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'हिन्दी महोत्सव'2017

 | मीडिया कवरेज | 


वेब दुनिया/Web Duniya (2 मार्च 2017)

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जनसत्ता/ Janstta ( 2 मार्च 2017, पृष्ठ संख्या - 4 )


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दैनिक जागरण/ Dainik Jagran ( 4 मार्च 2017, पृष्ठ संख्या – 9)


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जनसत्ता/ Janstta ( 4 मार्च 2017, पृष्ठ संख्या - 9 )


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नवोदय टाइम्स/Navodaya Times (4 मार्च 2017, पृष्ठ संख्या - 9)


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नवोदय टाइम्स/Navodaya Times (5 मार्च 2017, पृष्ठ संख्या - 9)


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Daily Tribune/डेली ट्रिब्यून (12 मार्च 2017, पृष्ठ संख्या - 8)
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