प्रख्यात साहित्यकार व स्त्रीवाद से सम्बन्धित विषयों पर अपने प्रगतिशील विचारों के लिए चर्चित लेखिका तसलीमा नसरीन के जन्मदिवस पर पढ़िये...
निर्वासन पुस्तक का अंश
अचानक एक दिन
हार्वर्ड की जिन्दगी खत्म होने के बाद, सोचना शुरू करती हूँ कि अब कहाँ! कौन-सा देश! कौन सा शहर! कहीं खड़ी होना चाहती हूँ। पैरों के नीचे जमीं चाहिए। यायावरी की जिन्दगी को अलविदा कहने की कोशिश बार-बार नाकाम हो जाती है, अब और नहीं होनी चाहिए। बंगाल की लड़की बंगाल ही लौटेगी। बहुत दिनों का यह सपना मेरे पीछे लगा रहता है, मेरे साथ-साथ चलता रहता है, मेरे बदन से लिपटा रहता है। कितना कुछ घट गया बंगाल में! किताब निषिद्ध हुई, बेवजह की बदनामी और निन्दा, इसके बाद भी बंगाल लौटने की इच्छा। विदेश का विशुद्ध हवा-पानी, झिलमिलाता शहर, सुरक्षित जीवन, सब छोड़कर, वहीं से ही ट्रायंगुलर पार्क में एक फर्निश्ड घर, एक महीने के लिए किराये पर लेने की बात पक्की करके कलकत्ता लौट आती हूँ। अब और होटल में रहने की बिल्कुल भी इच्छा नहीं है। इच्छा क्या कभी भी थी! कुछ और उपाय नहीं था इसलिए रहना पड़ता था। ट्रायंगुलर पार्क में, लोग, कोलाहल, दोस्त, व्यस्तता, विस्मय और कौतूहल के बीच पूरा एक माह बिताती हूँ। ढूँढ़ती रहती हूँ एक ऐसा घर, जहाँ अस्थायी नहीं बल्कि अब स्थायी रूप से रहूँगी, जब तक जिन्दा हूँ, तब तक। स्वप्न पंख फैलाते रहे, उन सब अनजान देश के, अनजान पक्षियों के, अनजान पंखों के। वे सारे विराट पंख मुझे अदृश्य कर देते हैं।
स्वीडन के भारतीय दूतावास में, मेरा लेखन पसन्द करने वाले एक सहृदय सज्जन थे, क्यूँ थे, कौन जाने! वीजा लेने जाने पर, मजे से उन्होंने मुझे ‘एक्स वीजा’ दे दिया, जिसके बारे में बाद में पता चला कि हर छह महीने के बाद मियाद बढ़वा लेने से, अनन्त काल तक भारत में रहा जा सकता है। अब से मैं पर्यटक नहीं, यथावत स्थायी निवासी हूँ। कितने सपने मन की दहलीज पर खेलते हैं कि शायद कोई घर खरीद लूँ, न जाने कौन-सा कोई और सपना पूरा हो जाए अचानक, अनजाने ही!
एक सुबह कलकत्ता हवाई अड्डे पर उतरते ही एक नम्बर पर फोन करके कहती हूँ, ‘‘घर किराये पर लेना है, अभी इसी समय।’’ दूसरी तरफ से, एक अनजाना आश्चर्य से भरा स्वर सुनाई पड़ता है। इस तरह बिना देखे ही, कभी किसी ने घर किराये पर ले लिया हो, ऐसे किसी के बारे में उसे नहीं पता था। धूलधूसरित, खाली मकान में चली आती हूँ और उसी दिन, हाँ उसी सुबह जाकर खरीद लाती हूँ-पलँग,गद्दा, तकिया, सोफा, बर्तन। कहाँ घर किराये पर मिलेगा, कहाँ घर का सामान वगैरह मिलेगा, कहाँ मिलेगा दाल-चावल, कोई भी बताने वाला नहीं था। अगर पूछो उन सबसे, जो मुझे घेरे रहते हैं, क्योंकि मेरा नाम है या मैं-मैं हूँ इसलिए-सब दुविधा में पड़ जाते हैं, क्यूँकि उनके पास कोई जवाब नहीं, अगर है भी तो गलत जवाब। मेरा संसार उसी भूल से शुरू होता है। मेरे कलकत्ते का संसार।
दो दिन में ही घर को रहने लायक बना लेती हूँ। चार दिन लगते हैं सजाने में और सात दिनों के भीतर मेरा घर चमचमा उठता है। छह महीनों में लगता है जैसे तीस साल की गृहस्थी हो। बरामदे में बचपन के सब फूल लगा रखे हैं। अलग-अलग रंगों के फूल खिलकर, सारे घर में खुशबू बिखेरते रहते हैं। रात में घर भर जाता है रात की रानी की सुगन्ध से। अक्सर ही एक रात की रानी का गमला सिर के पास रख लेती हूँ। खुशबू सूँघते-सूँघते, जैसे बचपन में सो आया करती थी, वैसे ही सो जाती हूँ। शहर के बीच में एक बहुत सुन्दर व सुरक्षित घर, ठीक सड़क पर नहीं, दो-दो लोहे के फाटक और दरबान को पार करके फिर घर में जाया जा सकता है। खुला बरामदा, रसोई से मसालों की सुगन्ध तैरती आती है, बरामदे में सूखने को डाले कपड़े, हलके-हलके उड़ते रहते हैं। कितना मनोरम है, यह दृश्य! एक अर्से से मैंने अपने बचपन-किशोरावस्था को इतने करीब से महसूस नहीं किया था। हवा और रोशनी से घर सचमुच का घर हो उठता है, मेरे सात नम्बर राऊडन स्ट्रीट का घर।
शहर पहले जैसा ही है, पर बरसों पुराने वह दोस्त नहीं हैं, शहर में। वे मित्र जो सुख और दुख दोनों ही समय में, समान रूप से खड़े रहते थे मेरे पास, जिसके साथ किसी भी विषय पर, किसी भी समय बात कर सकती थी, वह निखिल सरकार, नहीं हैं। वह गहरा समन्दर, वह निमग्न साधक, वह ज्ञान का भंडार नहीं है। आभास हो जाता है कि, मेरे कुछ समझने से पहले ही, मेरी दुनिया कुछ खाली सी हो गयी है। माँ नहीं हैं, बाबा नहीं हैं और निखिल सरकार भी नहीं हैं। रिश्तेदार तो होकर भी नहीं हैं, जान-पहचान वाले, परिचित लोगों को दोस्त कहती हूँ। रोज-रोज आने वाले अपने मुरीदों को भी दोस्त कहती हूँ। क्या मैंने हड़बड़ी में, ताश के पत्तों के घर जैसा कुछ खड़ा कर लिया है! कभी-कभी सब कुछ एक अद्भुत रहस्यमय, मायावी जाल सा लगता है, या फिर जिन्दगी एक मजाक-सी लगती है।
राऊडन स्ट्रीट के घर के दरवाजे सबके लिए खुले हुए हैं। सबके लिए, यहाँ तक कि अनजान व्यक्ति की खातिरदारी में भी कोई कमी नहीं है। अतिथि सत्कार मेरे हृदय में है। कितने ही अच्छे और कितने ही बेकार, गलत और धूर्त लोगों ने मेरे इस घर की चौखट को पार किया है। मेरी किसी को भी गलत या खराब समझने की इच्छा नहीं थी। आज भी नहीं है। मैं ऐसी ही हूँ। ऐसी ही सीधी-सादी और निरीह। घर के कपड़ों में, हवाई चप्पल पहन मजे से पूरा शहर घूमती रहती हूँ। फुटपाथ सेसस्ती चीजें खरीदती हूँ। गड़ियाहाट के बाजार से एक बिल्ली के बच्चे को उठाकर ले आती हूँ, उसे लाड़-प्यार से बड़ा करती हूँ। सीधा-सादा धूल-मिट्टी का जीवन, जो दूसरे ही पल चकाचौंध से भरा भी हो जाता है। पुस्तक मेले के स्टॉल के दरवाजे बन्द रखने पड़ते हैं, भीड़ को रोकने के लिए। पुलिस को लाठीचार्ज करना पड़ता है चाहने वालों के उन्माद को सँभालने के लिए। इसके बावजूद भी पाठकों के साथ एक रिश्ता बना रहता है। मेरा साहित्य जगत के दिग्गजों के साथ बिल्कुल भी उठना-बैठना नहीं है। किसी को गुरु मानना या किसी को दक्षिणा देना मेरा स्वभाव नहीं है। सुना है, सच्ची बात, बिना किसी लाग-लपेट के कह देना, महारथियों को एकदम पसन्द नहीं। मैं अकेले ही अपनी तरह रहती हूँ। इस देशी जीवन के बाहर भी एक और जीवन है। जल्दी-जल्दी ही विदेश जाना पड़ता है। कार्यक्रमों में कविता-पाठ करने या भाषण देने या फिर पुरस्कार लेने, कोई न कोई आमन्त्रण रहता ही है। सिर्फ पश्चिमी देशों में अच्छी घटनाएँ घट रही थीं, ऐसा नहीं कहूँगी। अच्छा कुछ कलकत्ता में भी घट रहा था। बैग फिल्मस द्वारा मेरी किताब ‘फ्रांसीसी प्रेमी’ की कहानी पर आधारित फिल्म बनाने के लिए, मेरे से अनुबन्ध पर हस्ताक्षर करा कर ले जाया गया, कॉपीराइट का पैसा भी मिला। मेरी लिखी भूमिका सहित, पिछले सालों की रविवारीय संख्यायों में छपी, चुनी हुई कहानियों का संकलन प्रकाशित होता है ‘आनन्द पब्लिशर्स’ से। ‘आनन्द’ मेरी लिखी किताबों का समग्र लाने की अनुमति लेते हैं। मेरी कहानी ‘शोध’ पर एक माह का एक सीरियल, टेलीविजन पर दिखाया जाता है। सारे सीरियलों में से सबसे ज़्यादा यह सीरियल लोकप्रिय होता है। मेगा सीरियल के लिए कहानी लिखने का आमन्त्राण मिलता है। लिखती रहती हूँ, एक मेगा सीरियल। कहानी का नाम देती हूँ ‘दुःसहवास’। उधर शूटिंग भी शुरू हो जाती है। इधर मेरी कहानी ‘फेरा’ पर बहुत दिनों से, विभिन्न मंचों पर नाटक का मंचन भी हो रहा है। गिरीश मंच, मधुसूदन मंच, रवीन्द्र सदन में उस नाटक का मंचन देखती हूँ। इसके अलावा विभिन्न ग्रुप थियेटर्स के असाधारण सारे नाटक भी देखती हूँ। एक बार ‘नान्दीकार’ ने नाट्य-सप्ताह का आयोजन किया, नाटक खत्म होने पर, रुद्रप्रसाद सेनगुप्त ने मुझे मंच पर बुलाकर, विजयी कलाकारों को माल्यार्पण करवाया। मुझे महसूस होने लगा कि मैं कलकत्ता के साहित्यिक-सांस्कृतिक जगत में से ही एक हूँ। कभी भी नहीं लगा कि मैं कलकत्ता की नहीं हूँ या मैं किसी और देश से आयी हूँ। किशोरावस्था के समय से कलकत्ते से मेरा दोस्ताना है। उस समय ‘सेंजूती-शाम की रोशनी’ पत्रिका में जिनकी कविताएँ मैं छपवाती थी, या जिनकी लिटिल मैगजीन में मेरी कविताएँ छपती थीं, एक दिन उनमें से, जितनों का पता चल पाया, सबको रात के खाने पर और अड्डा जमाने के लिए घर पर बुलाती हूँ। कोई अभी भी लिख रहा है, पर जहाँ था अब भी वहीं है। कोई तांत्रिक बन गया, तो कोई व्यवसायी, फिर भी मुझे एहसास हुआ कि पुराने दिनों को वापस पाने की व्याकुलता मेरे अन्दरअब भी है। बंग्लादेश से मेरे बड़े भाई आते हैं, झूनू ख़ाला आती हैं। बड़े भाई का बेटा शुभो भी घूमने आता है। सबको प्यार से सराबोर कर देती हूँ और कलकत्ता भी मुझे देता रहता है, दोनों हाथ भर-भर के। सुबह बांग्ला अखबार पढ़ने का मौका दुनिया में और कहाँ मिल सकता था! दोपहर में कोई भी बांग्ला मैगजीन या किताब हाथ में लिए लेटे रहना, शाम को अड्डा जमाना और रात में एक झुंड बंगाली मिलकर, हल्ला-गुल्ला करके बंगाली खाना खाना। इसके अलावा टेलीविजन पर तो हैं ही, तरह-तरह के कार्यक्रम, विभिन्न विषयों पर अपनी बात रखने का आमन्त्रण और विभिन्न चित्र प्रदर्शनियों का उद्घाटन करना वगैरह। बहुत से लेखक और कवियों की किताबों का रिबन काटना। विभिन्न मंचों पर काव्य पाठ करना, और ‘धर्म मुक्त मानववादी मंच’ को लेकर सपने देखना। जन्म हुआ बंगाली-मुसलमान परिवार में, पर धर्ममुक्त लोगों को इकट्ठा कर एक मानववादी संगठन तैयार करती हूँ, खुद को जानबूझ कर नेपथ्य में रखती हूँ। संगठन का उद्देश्य है सचमुच के धर्ममुक्त राष्ट्र, समाज, शिक्षा एवं कानून की स्थापना करना, लड़कियों को शिक्षित व स्वाधीन करना, मस्जिद और मदरसों के उत्पात को बन्द करना। पश्चिम बंगाल के कोने-कोने से उत्सुक लोग जुड़ने लगे। अँधेरे में पड़े रहने वाले मुसलमान समाज को रोशनी से भरने का प्रयास करती हूँ, यूँ तो दल काफी छोटा है, पर सपना छोटा नहीं। लौ तो बहुत तेज है, पर हर अँधेरे घर में, सारी अँधेरी गलियों में रोशनी पहुँचाने का लोकबल नहीं है। न रहे, कलकत्ते के विभिन्न मंचों पर कार्यक्रम, लीफलेट्स बाँटना, मीटिंग्स और जुलूस निकालना तो चलता रहता है।
दैनिक स्टेट्समैन में नियमित लेख लिखती रहती हूँ। हर लेख हजारों सालों के संस्कारों को तोड़, नये वक्त की ओर, नारी-पुरुष की समता की ओर, एक स्वस्थ, सुन्दर समाज का सपना दिखाते हुए, हाथ पकड़कर आगे लिए चलता है। निखिल सरकार नहीं हैं, पर शिवनारायन राय, अम्लान दत्त और प्रशान्त राय के साथ होती हैं साहित्यिक, सांस्कृतिक और बौद्धिक आलोचनाएँ। एक दिन मरणोपरान्त देहदान करने का प्रण ले लेती हूँ। मरने के बाद कलकता मेडिकल कॉलेज के छात्रा-छात्राएँ पढ़ेंगे मेरी देह को। दोनों आँखें, और किडनियाँ चली जाएँगी, उनके पास, जिनको इनकी जरूरत है। देश के दूसरे राज्यों से बुलावा आने पर घूम आती हूँ, किताबों का लोकार्पण करके, या फिर भाषण देकर। जहाँ भी जाती हूँ एक तरफ प्रशंसकोंकी भीड़, और दूसरी ओर मौलवादियों की उत्तेजना। केरल, मध्यप्रदेश, बिहार, उड़ीसा, असम, महाराष्ट्र, दिल्ली। बाकी का जीवन कलकत्ता में रहूँगी, इसमें कोई दुविधा नहीं इसलिए, एक दिन के नोटिस में एक गाड़ी खरीद लेती हूँ। बहुत खूबसूरत दुमंजिला एक घर भी खरीद लेती हूँ, पर किन्हीं कारणों से रहती किराये के घर पर ही हूँ।
एक उभरते कवि के साथ बहुत गहरी दोस्ती भी हो जाती है। एक डॉक्टर के साथ भी एक अद्भुत, अनबूझ-सा रिश्ता बनने लगता है। इसी समय वह दिन आ जाता है, वह अँधेरे से भरा दिन।
घर से बहुत दिनों से निकली नहीं थी। लम्बे समय से घर में बैठे-बैठे अच्छा भी नहीं लग रहा था। डॉक्टर ईनाईया ने बताया कि हैदराबाद में मेरी किताब ‘शोध’ आ रही है। उनकी पत्नी ने तेलुगु में उसका अनुवाद किया है। किताब के लोकार्पण समारोह में मैं जरूर जाऊँ। इससे पहले भी उन्होंने मुझे स्वागत भाषण देने व मेरे अभिभाषण और संवाद आदि के कार्यक्रमों का आयोजन किया था, पर मैं जाने के लिए राजी नहीं हुई थी। इस बार तैयार हो गयी। राजी होने का यह भी कारण था कि, थोड़ा हवा-पानी में बदलाव होगा और कलकत्ते की एकरसता भी कट जाएगी। सुबह जाकर शाम को लौटना, किसी सूटकेस, टूथब्रश, कपड़े वगैरह ले जाने का प्रश्न ही नहीं उठता। नीले शिफ़ान की एक साड़ी पहन ली, प्रेस भी नहीं हो रखी थी। थोड़ा बहुत मुचड़ा होने पर भी पता नहीं चलता है, और होने से भी क्या। कपड़ों-लत्तों को लेकर मैं ज़्यादा सर नहीं खपाती। सजने-सँवरने को लेकर भी नहीं। एक समय तो लिपस्टिक लगाना भी छोड़ दिया था। आजकल बाल बिगड़ने पर थोड़ा ठीक कर लेती हूँ और होठों पे हलकी लिपस्टिक लगा लेती हूँ, जिससे होठों को सूखकर फटने से बचाया जा सके।
हैदराबाद हवाई अड्डे पर उतरकर डॉक्टर ईनाईया को अकेला खड़ा देख थोड़ा चौंक पड़ती हूँ। सुरक्षा-पुलिस कहाँ है! सोचा पुलिस कार्यक्रम में होगी, यहाँ नहीं आयी। चमचमाती एक गाड़ी में मुझे होटल ले गये डॉक्टर ईनाईया। उन्होंने पाँच सितारा होटल में एक कमरा बुक किया हुआ था, कार्यक्रम से पहले मेरे आराम करने के लिए। कमरा बहुत सुन्दर था। बिस्तर पर लेटकर थोड़ी देर टेलीविजन देखती हूँ। फिर उठकर अपने लिए चाय बनाकर पीती हूँ, इतने में ही फोन आता है कि नीचे उतर आऊँ, कार्यक्रम में जाने का समय हो गया है। कार्यक्रम कहाँ है, व किस तरह का है, मुझे इसके बारे में कुछ भी नहीं पता। ईनाईया को पूछने पर, वह जैसे आंध्रा लहजे में बताते हैं, मुझे लगभग कुछ भी समझ में नहीं आता है। पूछा, ‘‘पुलिस प्रोटेक्शन है कि नहीं।’’ जवाब में उन्होंने जो भी कहा, मेरे लिए समझना सम्भव नहीं हो पाया।
‘‘जिस राज्य में भी जाती हूँ, मेरे लिए सुरक्षा की व्यवस्था की जाती है। आपने की है या नहीं?’’
इस बार उन्होंने जो कुछ भी कहा, कान खोलकर सावधानी से सुनने की कोशिश की, और जितना भी समझ पायी, वह था-‘‘नहीं किया...हें...हें। छोटा-सा तो कार्यक्रम है। उतना प्रचार भी नहीं किया गया है। ख़ामख़्वाह पुलिस के झमेले में पड़ने की क्या जरूरत है।’’
‘‘ओ! असल में पुलिस प्रोटेक्शन झमेला करने के लिए नहीं, झमेले से बचने के लिए लिया जाता है।’’
‘‘हें...हें’’
पता नहीं क्यूँ मैंने ईनाईया को याद नहीं दिलाया था कि हैदराबाद में आने के पिछले दोनों आमन्त्राणों को ठुकराने का एकमात्र कारण यह था कि मुझे यह शहर सुरक्षित नहीं लगा। क्यूँकि मुसलमानों ने इस शहर में मेरे खिलाफ, इससे पहले भी, कुछ हंगामा किया था। अखबार में पढ़ा था कि एक किताब की दुकान को तोड़-फोड़ दिया गया था, क्यूँकि वह मेरी किताब ‘लज्जा’ बेच रहा था। मैं भुलक्कड़ हूँ। भूल ही गयी थी कि दूसरे शहरों की तुलना में इस शहर में मुसलमानों की संख्या ज़्यादा है। मुसलमानों की संख्या ज़्यादाहोने से, मुसलमान कट्टरपंथियों की संख्या भी ज़्यादाहोने की सम्भावना है। मौलवादी मुझे बहुत सालों से ‘इस्लाम विरोधी’ का खिताब दिए बैठे हैं। सब मिटाया जा सकता है, पर इस खिताब को नहीं मिटाया जा सकता। मेरी नास्तिकता, मेरा मानववाद, मेरी वैज्ञानिक मानसिकता, मेरी मानवीयता भी कुछ लोगों के मस्तिष्क में गहरे में गड़े एक विश्वास के काँटे को-‘मैं इस्लाम विरोधी हूँ’ उखाड़ कर नहीं फेंक पायी है।
कार्यक्रम हैदराबाद के प्रेस क्लब में था। मेरे ‘शोध’ उपन्यास के तेलुगु अनुवाद का लोकार्पण हुआ। एक तेलुगु लेखक और एक अनुवादक ने अपने लेखन और अपने अनुवाद करने के अनुभवों के बारे में कहा। मैंने मानवाधिकार के विषय पर कहा, ‘शोध’ नारीवादी किताब है। ‘शोध’ की प्रधान चरित्र झुमुर खुद को ‘पुरुष की सम्पत्ति’ होने नहीं देती, प्रतिवाद करती है। नारी, पुरुष या समाज की सम्पत्ति नहीं है, इस बात की ही कोमल आवाज में मैंने चर्चा की। मेरी आवाज कतई भी जुलूस में नारे लगाती ‘तोड़ दो, ध्वस्त कर दो’ कहने वाली औरतों की तरह नहीं थी। जितनी भी कड़ी बात कहूँ, जितना भी क्रुद्ध हो जाऊँ, फिर भी विनम्र, शिष्ट, शान्त और नरम ही रहती हूँ।
कार्यक्रम खत्म होने के बाद, दिन का खाना खाने के लिए निकलने ही वाले थे, जब यह हादसा हुआ। प्रेस क्लब के सामने के दरवाजे से कुछ लोग घुसकर, तेलुगु भाषा में चीखते हुए मेरी तरफ बढ़ने लगे। वे चिल्ला-चिल्ला कर क्या कह रहे थे, वह समझना मेरे बूते से बाहर था। मेरी ही तरफ क्यूँ बढ़े आ रहे हैं, वह भी समझ में नहीं आ रहा था। अचानक देखती हूँ हाथ में जो भी आ रहा था, फूलों का गुच्छा, किताब, बैग, कुर्सी-सब मुझ ही को निशाना बनाकर फेंक रहे थे। रोकने के लिए आगे आये कुछ लोग जख़्मी हो गये। पत्राकार व्यस्त हो गये फोटो खींचने में। मैं उनके पीछे छुपने की व्यर्थ कोशिश करने लगी। मेरे बदन पर क्या आकर लग रहा था, मुझे इसकी परवाह नहीं थी। सोच रही थी, लगातार आगे बढ़ती आ रही मृत्यु से कैसे बचूँगी मैं? कोई मुझे खींच कर पीछे के दरवाजे के पास ले गया, क्लब घर से मुझे निकाल कर गाड़ी में बिठाने के लिए। आक्रमणकारी तब तक पीछे के दरवाजे की ओर दौड़ कर आने लगे। समझ गयी, गाड़ी में चढ़ पाना मेरे लिए सम्भव नहीं होगा। पिछले दरवाजे को मैंने जल्दी से बन्द कर दिया। संग-संग ही उन लोगों ने जोर से लात मार दरवाजे के काँच को तोड़ दिया। किस तरह बच पाऊँगी, इसके अलावा कोई भी और दूसरा ख़याल नहीं था दिमाग में। दौड़ के पहुँचती हूँ सामने के दरवाजे की ओर। नहीं, वहाँ से भी निकलने का कोई उपाय नहीं। प्रेस क्लब को घेर लिया है आक्रमणकारियों ने। सामने के दरवाजे को भीतर से बन्द कर लिया गया। क्लब घर के अन्दर मैं और कुछ निरीह औरतें, सम्भवतः दो-एक पुरुष भी थे। वे लोग टूटे दरवाजे के आगे कुर्सियाँ रखकर एक ऊँची दीवार-सी बनाकर खड़े हो गये। मुझसे कहा खम्बे के पीछे छुपने को, तो किसी ने कहा टेबिल के नीचे छुपने को। पर खाली कमरे में जहाँ भी छुपूँ, उस दीवार को तोड़कर कमरे में घुसने पर मुझे दबोच ही लेंगे वे लोग। बाहर विकट आवाज में, न जाने कितने लोग, नारे लगा रहे हैं, ‘‘तसलीमा नसरीन मुर्दाबाद।’’ इसके अलावा भी बहुत चीखने-चिल्लाने की आवाजें आ रही हैं। इसी समय मंच के नीले पर्दे के पीछे एक गुप्त दरवाजा था, सुना उसे भी बाहर से खोलने की कोशिश चल रही थी। उस दरवाजे को तोड़ कर घुसने पर, खम्बे के पीछे छुपी मैं, उनके नजर के सामने आ जाऊँगी और अगर खम्बे की दूसरी तरफ खड़ी होती हूँ तो, टूटे दरवाजे के आगे कुर्सियों व लोगों
द्वारा बनाई दीवार को तोड़कर झट से पकड़ लेंगे मुझे। पर उस दरवाजे को तोड़ने से बाहर से पत्रकार रोक रहे थे। खुद जख़्मी होकर भी रोकने की कोशिश कर रहे थे, मारने को तैयार लोगों को। बहुतों ने तब फोटो खींचना छोड़कर मुझे बचाने की कोशिश की। मौत किसी भी क्षण मेरे बहुत पास आकर खड़ी हो जाएगी। वह क्षण मेरे सीने के अन्दर टन-टन कर बज रहा था। किसी भी समय अंतिम क्षण का घंटा बज जाएगा। असहाय सी मैं, एक ओट से दूसरी ओट छिपती फिर रही थी। शौक से पहना गले का मंगलसूत्र कब टूट कर गिर गया, पता ही नहीं चला। किसी को नहीं पता किस तरह बचाया जाए मुझे। टूटे दरवाजे को रोक कर खड़े लोग, बाहर से आती भयानक आवाजों की ओर डर से देख रहे थे। किसी भी पल धक्का खाकर उलट कर गिर पड़ेंगे। बाहर चीखने-चिल्लाने और स्लोगनों की तीव्रता बढ़ती ही जा रही थी। सीने के अन्दर घंटे की टन-टन आवाज भी बढ़ती ही जा रही थी। बार-बार अनुरोध कर रही थी कि कोई पुलिस को खबर कर दे। पर करेगा कौन, सभी तो पगलाये हुए हैं। ऐसी घटना उन लोगों ने कभी अपनी आँखों के आगे घटते नहीं देखी। भागा-दौड़ी, किसी के चीखने की भयावह आवाज। जब मुझे मारा जाएगा, कुछ बुलेट छिटक कर या फिर चाकू की नोक गलती से किसी के पेट या पीठ पर लग जाने से वे जख़्मी हो जाएँगे, क्या इस सोच में वे चिंतित हैं। कौन जाने! पहले-पहले भौचक होकर इन सब दृश्यों को देखते रहने के बाद, कुछ धमाका होने की आशंका से, आयोजक एवं दर्शकों में से बहुत से भागने लगे। मैं अकेली पड़ जाती हूँ। दीवार की तरफ बढ़ने लगती हूँ, क्यूँकि कोई और ओट नहीं है सामने। मुझेलग रहा था जैसे, दाहिने तरफ का दरवाजा लगभग टूट ही गया है और बायीं ओर के टूटे दरवाजे के बिल्कुल करीब आ गये हैं, हत्यारे। मैं एक-एक कदम कर आगे बढ़ती आ रही मौत के कदमों की आहट सुन पा रही थी, और बेचैनी से इन्तजार कर रही थी, पुलिस के आने का। नहीं, पुलिस इस त्रिभुवन में नहीं है। कोई नहीं जानता हैदराबाद के प्रेस क्लब में क्या घट रहा है। मेरी आँखें फट पड़े और पानी बह जाए, वह भी नहीं हो रहा। शरीर अवश होकर, जमीन पर लुढ़क जाए, वह भी नहीं हो रहा था। हत्यारों के पास अगर पिस्तौल हो! तो वे गोली चलाएँगे। अगर छुरा हो तो घोंप कर मारेंगे। और अगर कुछ भी न हो तो लोहे की कुर्सियाँ सर पर मारकर जख़्मी करेंगे। पैरों के नीचे रौंद कर मारेंगे। वे सब तो बहुत सारे हैं और मैं अकेली, और भी अकेली होती जा रही थी। टन-टन की आवाज और भी भयावह हो गयी थी। मुझे तो पता है, यही लोग हैं मेरे खिलाफ फतवा जारी करने वाले। ये ही हैं मेरे सर की कीमत लगाने वाले, ये लोग ही मेरा सर चाहते हैं, मेरी फाँसी की माँग लेकर सड़कों पर उतरने वाले, ये ही थोड़े-थोड़े समय के बाद मेरे पुतले, मेरी किताबें जलाते हैं। इससे पहले इन लोगों ने कभी मुझे अपने हाथ के इतने करीब नहीं पाया है। अब ये, जो मर्जी मेरे साथ कर सकते हैं। किसी भी पल मैं देखूँगी अपने जीवन के अन्तिम पल को। मृत्यु कैसी होती है, क्या बहुत तकलीफ होगी! ये लोग क्या सर पर या सीने पर गोली चलाएँगे, या काट-काट कर, बलात्कार कर, पीस-पीसकर मारेंगे!
तभी अचानक पुलिस आ गयी। उस टूटे दरवाजे पर लगाये रोक को तोड़कर, हत्यारों के आने से पहले ही अन्दर आ गयी। मुझे पूरी तरह से सुरक्षित करने की व्यवस्था उन्होंने ही की। दीवार से चिपका मेरा पत्थर सा शरीर, धीरे-धीरे स्वाभाविक होने लगा, मुट्ठियाँ खुलने लगीं। सुना बाहर मौलवादियों को पुलिस ट्रक में बैठा रही है। उसके बाद मुझे भी सुरक्षा घेरे में लेकर पुलिस की गाड़ी में बिठाया गया, जल्दी से ओट कर दी गयी। हितैषियों ने चैन की साँस ली।
इस बीच मैंने मृत्यु का चेहरा तो देख ही लिया। वे जब हत्या करते हैं तो ऐसे ही करते हैं। सब तहस-नहस कर देते हैं। जताकर-सुनाकर-दिखाकर। पैगम्बर का नाम लेकर, झंडा फहराते हुए। आज मेरा अलौकिक ढंग से बचना हुआ। जीवन और मृत्यु के बीच सिर्फ एक सूत का व्यवधान था। मुझे आशंका है कि इसी तरह मेरी एक दिन मृत्यु होगी। कभी कहीं जब कविता पढ़ रही होऊँगी, कहीं जब मानवता की बात कह रही होऊँगी, अचानक ही कोई मेरे सीने को छेद देगा।
क्या गलती की है मैंने? क्या धर्मान्धता, कुसंस्कार, उत्पीड़न, दमन के खिलाफ बात करना अन्याय है? मानवाधिकार या मानवता के पक्ष में खड़ा होना क्या जुर्म है? घृणा की आग में वे मुझे जैसे भी हो, जला कर मार डालना चाहते हैं। क्यूँ, किसी का क्या बिगाड़ा है मैंने?
लोगों के प्यार ने मुझे जीवन दिया है। सिर्फ भारतवर्ष में ही नहीं, भारतवर्ष के बाहर के लोगों से भी मिलता रहा है-युक्तिवादि, मुक्तबुद्धि, सद्बुद्धि के लोगों का समर्थन। मेरी आँखों में, मौलवादियों का आक्रोश या उन्हें दाँत पीसते हुए देखकर पानी नहीं आया। मैं जब टूट चुकी, जब मुझे मृत्यु की गुफा से बचाकर लाया गया, और तब-जब मैंने किसी की बेचैन आवाज सुनी, ‘तुम ठीक तो हो?’ या ‘हम तुम्हारे साथ हैं।’, मेरी आँखें भर आयीं।
अब मुझे अकेला नहीं लगता। जानती हूँ, हम संख्या, में ज्यादा हैं, हम वो-जो लोकतंत्र और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर विश्वास करते हैं और वे हमेशा ही संख्या में कम रहेंगे, जो बोलने की आजादी के खिलाफ हैं, मानवताविरोधी,असहिष्णु और कट्टरपन्थी मौलवादी हैं। क्या उनका युद्ध मुझ अकेले के साथ है? लड़ाई तो हम सबों के साथ है। एक स्वस्थ समाज गढ़ने के लिए, एक सुन्दर देश गढ़ने के लिए, एक बसने लायक दुनिया बनाने के लिए, हम उस भयंकर पर क्षुद्र शक्ति के विरुद्ध बिना कोई समझौता किये लड़ सकते हैं। हम सब ही। क्यूँ? नहीं कर सकते हैं क्या?
मेरे विचारों को रोककर पुलिस हेडक्वार्टर पर गाड़ी रुकती है। धर्म बहुत भयंकर होता है, प्रकृति से प्रार्थना करना शुरू करती हूँ कि किसी हिन्दू पुलिसवाले से सामना हो, न कि किसी मुसलमान पुलिस अफसर से। दूसरी मंजिल पर ले जाकर बड़े-बड़े अफसरों के साथ मेरा परिचय करवाए जाने पर, तिरछी नजरों से उनके सीने पर लगे उनके नामों को पढ़कर, खुद को निश्चिन्त कर लेती हूँ। पुलिसवाले सभी बहुत मिलनसार थे। सभी आक्रमणकारी मौलवादियों को वे जानते थे। कमरे में टी.वी. पर, प्रेसक्लब में हुए निकृष्ट आक्रमण के हादसे को ही दिखाया जा रहा था, रह-रहके बड़े अफसर अपनी राय दे रहे थे। उन आक्रमणकारियों के विरुद्ध मुझ से दो शिकायत-पत्र लिखवा लेने के बाद मुझसे कहा ‘सबको जेल ले जाया जा रहा है, आप जरा भी चिंता मत करिएगा मुझे और क्या है सोचने को! मैं तो शहर छोड़कर चली ही जा रही हूँ। इस शहर में फिर कभी आना होगा, ऐसा मुझे नहीं लगता है।
शाम को कलकत्ता लौट जाने की बात थी, एयरलाइन्स में फोन करके बड़े साहब ने समय को और पहले करवा लिया, शाम होने से पहले ही पुलिस अफसर मुझे हवाई अड्डे ले गए। किसी भी पत्रकार शाम को मुझे हवाई अड्डे ले गये पुलिस अफसर। किसी भी पत्रकार को भनक नहीं लगने दी कि कब मुझे हवाई अड्डे ले जाया जाएगा, इसके बावजूद वहाँ पत्राकारों की भीड़ थी। शायद उनका उद्देश्य ही सारा दिन वहाँ बैठकर इन्तजार करना था। मैंने स्पष्ट कह दिया कि साक्षात्कार नहीं दूँगी, पर कोई भी हिलने को तैयार नहीं, भीड़ जमी हुई है। कलकत्ता पहुँचकर भी वैसा ही हाल। हवाई अड्डा भरा हुआ है संवाददाताओं से। कौन जाने! कैसे लोगों को पता चला कि मैं किस समय आ रही हूँ? घर पहुँच के देखती हूँ कि टी.वी. कैमरोंऔर पत्रकारों से बरामदा भरा पड़ा है। किसी को घर में आने नहीं दिया। किसी के साथ कोई बात नहीं की, जो घटना घटी है उसका प्रतिवाद दूसरे करें। मुझे क्यूँ करना होगा प्रतिवाद! इसी कलकत्ते से ही लड़ती आ रही हूँ, मत प्रकाश करने की स्वाधीनता के पक्ष में! मेरे मुरझाए चेहरे और मेरी सारी देह को टी.वी. पर दिखाकर ही क्यूँ बोलना पड़ेगा कि मुझे विचार प्रकट करने की आजादी चाहिए। लोग मुँह खोलें। सारे देश ने देखा है, जो कुछ भी हुआ। अपने ऊपर हुए हमले का खुद ही कितना वर्णन करूँ। बहुत नहीं हो चुका! मुझे थकान जैसी कोई चीज नहीं होती है क्या! क्या मुझे गुस्सा नहीं आना चाहिए! मैं एक लेखक बनी हूँ, लिखने के लिए या लिखने के अधिकार को लेकर लड़ने के लिए! और कितने मार खानी होगी मुझे, कितने शिकवे-शिकायतें करने पड़ेंगे, भागना पड़ेगा, रोना पड़ेगा मुझे!
घर में परेशान मित्र, मेरे लौटने की प्रतीक्षा कर रहे थे। अपने अन्दर की असह्य आग या फिर ठंडेपन ने स्तब्ध कर रखा था मुझे। सब मुझसे जानना चाह रहे थे कि क्या हुआ था, क्यूँ हुआ, शुरू से आखिर तक। किसी को भी कुछ बताने की इच्छा नहीं हो रही थी। बस अपनी बिल्ली को ढूँढ़ रही थी। फोन बजे चला जा रहा था। उठाकर बात करने का कतई भी मन नहीं था। बस अपनी बिल्ली को गोद में उठाकर प्यार करने का मन हो रहा था। चाह रही थी कि सब दोस्त घर से चले जाएँ, मुझे अकेला रहने दें। मुझे बहुत नींद आ रही थी। जैसे हजारों साल से सोयी नहीं हूँ, पर क्या सो सकी! बार-बार वही सारे चेहरे मेरी आँखों के आगे तैरने लगते, आतताइयों के भयंकर क्रुद्ध चेहरे, उनके हिंस्र शरीर। हो सकता है मुझे मार देने के उद्देश्य से वे नहीं आये थे, पर उस समय तो मुझे मालूम नहीं था कि वे विधायक हैं, दल की लोकप्रियता कम हो गयी है इसलिए, आ धमके मुझ पर आक्रमण कर, इलाके में अपनी लोकप्रियता बढ़ाने के लिए। मुझे तो लगा कि इतने दिनों के बाद धर्मान्ध, फतवेबाज, चरमपंथियों के एक दल के हाथ लग गयी मैं! बिना किसी सुरक्षा के, मेरी हत्या कर बहिश्त जाने का सुनहरा मौका, वे हाथ से नहीं जाने देंगे। बहुत से छोटे-मोटे मृत्यु के फंदों से बचती आयी हूँ पर इनके पंजों से बचने का अब और कोई उपाय नहीं। मुझे जान से नहीं मारा। नहीं मार सके ऐसा नहीं कहूँगी। चाहते तो मार सकते थे। अगर इच्छा न भी हो, क्रोध इंसान को इतना वहशी बना देता है कि उस वक़्त किसी को मार देना बहुत मुश्किल काम नहीं, बल्कि न मारना मुश्किल हो जाता है।
मृत्यु से बच कर आयी मैं। पुनरुत्थान हुआ मेरा। अपने दूसरे जीवन में, मैं।