Quantcast
Channel: वाणी प्रकाशन
Viewing all articles
Browse latest Browse all 301

गाँधी और रवीन्द्रनाथ: राष्ट्रवाद बनाम देशभक्ति

$
0
0



गाँधी और रवीन्द्रनाथ: राष्ट्रवाद बनाम देशभक्ति 

मौजूदा भारतीय राजनीति के नये अध्यायों में एक प्रमुख अध्याय राष्ट्रवाद का भी है। हालाँकि यह उतना नया नहीं है, जितना कि गये चार-पाँच सालों में समकालीन शासन-तन्त्र ने इसे बना दिया है। ऐसे वक़्तों में इसकी गहराई समझने के लिए हमें अपने राष्ट्र-निर्माताओं के विचारों की ओर वापसी की ज़रूरत जान पड़ती है। आशिस नंदी अपनी किताब राष्ट्रवाद बनाम देशभक्ति : रवीन्द्रनाथ ठाकुर और इयत्ता की राजनीति में इस यत्न में संलग्न दिखते हैं।

रवीन्द्रनाथ का स्पष्ट मानना था कि भारतीय परम्परा नस्लों के आपसी समायोजनके लिए सक्रिय रहती है और नस्लों के बीच वास्तविक अन्तर को स्वीकार करते हुए एकता का आधार तलाश करती हैउन्हें यह विश्वास था कि भारत को राष्ट्रवाद की वास्तविक अनुभूति कभी नहीं हुई


भारत के राष्ट्रगान के रचयिता रवीन्द्रनाथ ने राष्ट्रवाद को भौगोलिक अपदेवता यानी राक्षस क़रार दिया था। उन्होंने अपना वैकल्पिक विश्वविद्यालय शांतिनिकेतन इसी राक्षस के प्रभाव से मुक्ति के लिए समर्पित मंदिर के रूप में स्थापित किया था। इस समय तक वह यह घोषित करने की स्थिति में आ चुके थे कि वह सभी राष्ट्रों के आधार में निहित आम विचार के ही ख़िलाफ़ हैंक्योंकि राष्ट्रवाद एक बहुत बड़ी बुराईबन चुका है।

अपने इन्हीं राष्ट्रवाद सम्बन्धी विचारों के कारण रवीन्द्रनाथ को 'असहमतों के बीच असहमत' की संज्ञा दी जा सकती थी। प्रस्तुत पुस्तक में उनके इन विचारों के विकास की प्रक्रिया का अध्ययन और पड़ताल है। इस किताब में रवींद्रनाथ के तीन बहुचर्चित उपन्यासों—‘गोरा’, ‘घर और बाहर’, ‘चार अध्याय’—की मीमांसा का आलोक भी राष्ट्रवाद से निकली हिंसा के नये रूपों की राजनीति को समझने में सहायक है। 

राष्ट्रवाद बनाम देशभक्ति

आशिस नंदी


अनुवाद : अभय कुमार दुबे


यहाँ पढ़िए इस किताब से एक अंश:

गाँधी मानते थे कि युग की मूल्यवत्ता को राजनीति की कसौटी पर खरा उतरना होगा। इसीलिए, गाँधी की नजरों में राजनीति की कसौटी पर खरा उतरना होगा। इसीलिए, गाँधी की नजरों में राजनीति की कसौटी पर खरा उतरना होगा। इसीलिए, गाँधी की नजरों में राजनीति व्यक्ति के नैतिक जीवन के लिए निर्णायक महत्त्व की बन गयी थी। इसका मतलब यह नहीं कि गाँधी के लिए हर व्यक्ति का सक्रिय राजनीतिक होना जरूरी था, लेकिन वे यह जरूर चाहते थे कि हर व्यक्ति अपने मानस में राजनीतिक को विशेष महत्त्व देते हुए सक्रिय रहे।

इन दोनों महान विभूतियों को एक बात जोड़ती थी। दोनों ही एक नैतिक संसार की सृष्टि के समर्थक थे। दोनों ही चाहते थे कि व्यक्ति की राजनीति और सामाजिक विचारधारा की शिनाख्त इसी नैतिक दायरे में होना चाहिए। परन्तु, राजनीति की इस समझ का असर करीब दो सौ साल पहले ही घटना शुरू हो गया था। रवीन्द्रनाथ के मुताबिक राष्ट्र-राज्यों की भूमण्डलीय व्यवस्था ने शासन-कला को विज्ञानीकृत कर डाला है। दरअसल, यह व्यवस्था राजनीति और नैतिकता के बीच तब तक किसी किस्म का रिश्ता उस समय तक मानने के लिए तैयार नहीं थी जब तक नैतिकता स्वयं को एक राजनीतिक जोड़-बाकी की दुनिया में नैतिकता अपना महत्त्व केवल इसी तरीके से दर्ज करा सकती थी। गाँधी इसे समझ गये थे। इसीलिए वे अपनी नैतिक मुद्रा का राजनीतिकरण करने के लिए तैयार थे, हालाँकि इस राजनीतिकरण का आधार वे नैतिक ही रखते थे, न कि राजनीतिक। अगर अर्नोल्ड टॉयनबी द्वारा गाँधी को दी जाने वाली श्रद्धांजलि के आईने में देखा जाये तो गाँधी राजनीति की झोंपड़-पट्टीमें रहने के लिए तैयार थे। जहाँ तक रवीन्द्रनाथ का सवाल है, वे गाँधी के विश्व-दृष्टिकोण का समर्थन एक सीमा तक ही कर पाते थे। दरअसल, रवीन्द्रनाथ की दुनिया दूसरी थी।


इस किताब में महात्मा गाँधी और रवींद्रनाथ ठाकुर के 
राजनीतिक मतभेद और 
जुड़ाव के बिंदु राष्ट्रवाद की विवेचना के 
आलोक में देखे जा सकते हैं 

रवीन्द्रनाथ और गाँधी ने राष्ट्रवाद के जिस विकल्प की तरफ इशारा किया है वह उन जन-राजनीति की उथल-पुथल के सामने क्षणभंगुर साबित हो जायेगा। दरअसलइन दोनों हस्तियों ने उन समस्याओं को पहले ही देख लिया था जो राष्ट्र-राज्यों की राजनीतिक संस्कृति में से आज के जमाने में पैदा हो रही हैं। ये समस्याएँ पूर्व में भी हैं और पश्चिम में भी। शायद अब राष्ट्रवाद आधारित राष्ट्र-राज्यों के बन्दोतस्त की कीमतों का हिसाब लगाने का वक्त आ गया है। यह तखमीना जाहिर है कि हमारे अतीत पर कोई असर नहीं डालेगापर कम से कम दुनिया के इस हिस्से में राज्य की समझ और उसका कामकाज पुनर्परिभाषित करने में मदद जरूर करेगा।


कई साल पहले प्रथम विश्व युद्ध के समय सिगमण्ड फ्रायड जैसी अ-राजनीतिक हस्ती ने टिप्पणी की थी कि राज्य की संस्था ने इनसान पर दुराचारकरने की पाबन्दी लगा दी है, लेकिन यह प्रतिबन्ध दुराचार खत्म करने के लिए नहीं बल्कि उसे करने की इजारेदारी खुद हासिल करने के लिए लगाया गया है। गाँधी और रवीन्द्रनाथ शायद ही फ्रायड की रचनाओंसे वाकिफ रहे हों, पर भारत की राजनीतिक संस्कृति में इस समझ को प्रोत्साहित करने को श्रेय उन्हीं दोनों को जाता है। यह सही है कि अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति की कठोर हकीकतों और दक्षिणी दुनिया में चली राज्य और राष्ट्र-रचना की शुरुआती प्रक्रिया के दबाव के सामने यह समझ न टिक सकी, पर केवल इसीलिए गाँधी और रवीन्द्रनाथ की असहमति खारिज नहीं की जा सकती। हो सकता है कि आने वाले वक्त में हम यह कहने की स्थिति में हों कि अट्ठारहवीं सदी और उन्नीसवीं सदी के प्रारम्भिक वर्षों के यूरोप ने इस बारे में जो कहा था वही अन्तिम सत्य नहीं है। हो सकता है कि समय असहमति के इन दो महान पैरोकारों की दृष्टि सही साबित कर दे। 


ब्लॉग साभार : अविनाश मिश्र



Viewing all articles
Browse latest Browse all 301

Trending Articles



<script src="https://jsc.adskeeper.com/r/s/rssing.com.1596347.js" async> </script>