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बीच बहस में सेकुलरवाद | सम्पादक : अभय कुमार दुबे

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भारतीय राजनीति के सन्दर्भ में सेकुलरवादी बहसें बहुत पुरानी होने के बावजूद कभी पुरानी न पड़ने वाली नज़र आती हैं। वे हमेशा बीच बहस में बनी रहती हैं। समकालीन शासन-तन्त्र में भारतीय अल्पसंख्यकों का भय और उनका तुष्टिकरण एक बार फिर चर्चा में है। इस सिलसिले में सेकुलरवाद के आयाम समझने के लिए साल 2005 में आयी पुस्तक बीच बहस में सेकुलरवादबेहद उपयोगी है।

'बीच बहस में सेकुलरवाद' की बुनियादी मान्यता यह है कि भारतीय सेकुलरवाद के मौजूदा मॉडल के आधार पर हिन्दू दक्षिणपन्थियों की राजनीतिक चुनौतियों का सामना नहीं किया जा सकता। बहस इस बात पर तो है कि लोकतन्त्र को बहुसंख्यकवादी विकृतियों से कैसे बचाया जाए, बहस यह भी है कि भारतीय सेकुलरवाद का शुरुआती मॉडल दरअसल क्या था और उससे विचलन की परिस्थितियाँ और कारण क्या था? यह बहस सवाल उठाती है कि सेकुलरवाद ख़ारिज करते हुए उसका विकल्प खोजा जाना चाहिए या वैकल्पिक सेकुलरवाद का सूत्रीकरण किया जाना चाहिए।



बीच बहस में सेकुलरवाद

अनुवाद : अभय कुमार दुबे

यहाँ प्रस्तुत है इस किताब से पार्थ चटर्जी के लेख सेकुलरवाद और सहिष्णुताका एक अंश : इसमें सेकुलरवाद बनाम उदारतावादी सिद्धान्तको मूल में रख कर कई विचारोत्तेजक बिन्दुओं को स्पर्श किया गया है :

भारत में सेकुलरवादपर चर्चा शुरू होते ही सबसे पहले यह बात कही जाती है कि इस शब्द का भारतीय मतलब अंग्रेज़ी भाषा में इसके अर्थ से अलग है। कभी तो यह अन्तर दो असमान संस्कृतियों के बीच अपरिहार्यके अन्तर की पुष्टि के रूप में पेश किया जाता है (यानी, ‘भारत यूरोप नहीं है और भारत में सेकुलरवाद का अर्थ यूरोप जैसा नहीं हो सकता’), और कभी इसे आधुनिक भारतीय राज्य की अपरिहार्यखामियों के प्रमाण की तरह उद्धृत किया जाता है (जैसे, ‘भारत में तो सेकुलर राज्य बन ही नहीं सकता क्योंकि भारतवासियों की सेकुलरवाद सम्बन्धी अवधारणा ही सही नहीं है’)

इस सिलसिले में यह भी कहा जा सकता है कि अगर हमारा मकसद सेकुलरवाद पर भारतीय बहस में भाग लेना है तो फिर इसकी यूरोपीय समझ से भारतीय समझ की तुलना की कोई तुक नहीं हो सकती। यूरोपीय और अमेरिकी सोच-विचार में सेकुलरवाद की समझ अगर कुछ और है तो इससे क्या फ़र्क़ पड़ता है। अगर भारतीय सन्दर्भ में सेकुलरवाद का मतलब बताने वाले स्पष्ट और सभी को सर्व-स्वीकार्य सन्दर्भ मौजूद हैं तो हमें यूरोप और अमेरिका की फ़िक्र न करके सीधे-सीधे सेकुलरवाद के भारतीय अर्थ की जाँच-पड़ताल में क्यों नहीं लग जाना चाहिए।

लेकिन, मामला इतना आसान नहीं है। सेकुलरवाद का भारतीय अर्थ उसके यूरोपीय और अमेरिकी अर्थ से बेपरवाह हो कर विकसित नहीं हुआ है। मेरा तो ख़याल यह भी है कि अपने सुपरिभाषित भारतीय हवालों के बावजूद सेकुलरवाद पर भारत में अकसर होते रहने वाली ज़ोरदार और तल्ख़ बहस इस शब्द की पश्चिमी वंशावली से पूरी तरह अप्रभावित नहीं होती। जो भी यह दावा करता है तो सेकुलरवाद के भारतीय अर्थ पर पश्चिमी सेकुलरवाद से उसके अन्तर का कोई प्रभाव नहीं है, और भारतीय सेकुलरवाद विशुद्ध भारतीय अवधारणात्मक दुनिया से निकला है, वह दरअसल एक आधारहीन क़िस्म का विचारधारात्मक दावा करता है जिसे न्यायोचित नहीं ठहराया जा सकता।

इस सिलसिले में मैं कुछ और मज़बूत दलील देना चाहूँगा। रेमण्ड विलियम्स की विख्यात रचना कीवर्ड्स पर टिप्पणी करते हुए क्वेंटिन स्किनर ने कहा है कि  किसी अवधारणा को नया अर्थ उस समय नहीं मिलता जब उसे नयी परिस्थितियों पर लागू करने वाले तर्क कामयाब होते हैं (हालाँकि ऐसा अकसर माना जाता है), बल्कि उन तर्कों की नाकामी के कारण ही वह अवधारणा नयी परिस्थितियों में नये अर्थ पाती है। इसी तर्ज पर भारत में सेकुलरवाद के नये अर्थपर विचार करते समय हमें सेकुलरवाद के समर्थकों के इस दावे को परखना चाहिए कि भारतीय राज्य और समाज के सन्दर्भ में इसके इस्तेमाल को आम मान्यता मिल गयी है और इसी प्रक्रिया में सेकुलरवाद ने एक नया भारतीय रूप ग्रहण कर लिया है। अगर ऐसा वास्तव में हुआ होता तो सेकुलरवाद का मूलपश्चिमी मानक अर्थ न केवल जैसा का तैसा ही बना रहता, बल्कि उसकी सफलता के प्रमाणों में भारतीय परिस्थिति में किया गया कामयाब प्रयोग भी जुड़ जाता। दरअसल, सेकुलरवाद के नये भारतीय अर्थों को लेकर बहस इसी वजह से है कि जैसे ही इस शब्द के मानक अर्थों का भारतीय परिस्थितियों में कार्यान्वयन किया जाता है वैसे ही गम्भीर दिक्कतें पैदा हो जाती हैं। स्वाभाविक रूप से सेकुलरवाद की मूलअवधारणा भारतीय परिस्थितियों को अपने प्रमाण रूप में आसानी से स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं है।

अगर कोई चाहे तो इस बहाने दावा कर सकता है कि भारत के पास तो इसी नाम की पश्चिमी अवधारणा से भिन्न सेकुलरवाद मौजूद है, और यही कारण है कि भारतीय हालात में पश्चिम का सेकुलरवाद लागू नहीं हो सकता। अगर यह दावा सही है तो यह मामला दो अलग-अलग अवधारणाओं का हो जायेगा। चूँकि अवधारणाएँ ही अलग-अलग हैं, इसलिए उसके समतुल्य हवाले की कोई तुक नहीं रह जायेगी। ज़्यादा से ज़्यादा यह कहा जायेगा कि भारतीय सेकुलरवाद और पश्चिमी सेकुलरवाद पूरी तरह अलग-अलग और अपने में स्वायत्त विमर्श हैं, और अगर है तो उनमें कुछ पारिवारिक किस्म की समानता ही है।


ब्लॉग साभार : अविनाश मिश्र




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