स्त्री-विमर्शकार एवं सुपरिचित रचनाकर अनामिका जी की कलम से...
क्या आपके भीतर भी एक तालिबान है?
जो जहाँ है, ज़रा ठहरे! और आँखें झुका ले! यदि उसके सीने में एक समुन्दर है तो गौर से देखे-भीतर कहीं किसी पनडुब्बी में कोई तालिबानी तो छुपकर नहीं बैठा? कहते हैं, वो कहीं भी हो सकता है! राक्षस ने जैसे अपनी जान तोते में डाल रखी थी, उसने हमारे महबूबों, भाइयों, दोस्तों, बेटों, पिताओं तथा अन्य बुजुर्गों में भी छुपा रखी है अपनी दरिन्दगी-इत्ती-इत्ती ही सही, पर इत्ते अन्तरंग रिश्तों में इत्ती-सी भी दरिन्दगी अन्दर की हरीतिमा झुलसा देने को पर्याप्त है।
मैंने ऊपर वाली सूची में ‘पतियों'को अलग से नहीं डाला, उनको ‘महबूबों'में शामिल माना है, क्योंकि जिस प्रजातांत्रिक स्पेस का सपना हम सबकी आँखों में है, उसमें कोई किसी का पति या स्वामी हो भी कैसे सकता है! एक मनुष्य की यह मजाल कि वह दूसरे मनुष्य का स्वामी हो? धम्मपद के ‘अत्तवग्ग' में बुद्ध का वह कथन याद कीजिए, मन भर आएगा-
अत्ता हि अत्तनो नाथो, को हि नाथो परो सिया।
अत्त्वाव सुदत्तेन, नाथं लभ्यति सुल्लभं ।।
मनुष्य स्वयं अपना स्वामी है, उसका दूसरा कोई स्वामी नहीं है! जो स्वयं पर स्वामित्व स्थापित करता है यानी खुद को संयमित रखता है (अतिरेकों से बचाता है), दुर्लभ स्वामित्व को प्राप्त होता है! सोचिए, वह दिन कितना महबूब दिन होगा जब ‘पति’ भी महबूब कहलाएँगे और ‘सासे” साँसों की तरह ही सहज होंगी, यानी एक दूसरी माँ-पितर-सत्ता का एजेण्ट नहीं, जो स्त्रियाँ अक्सर बन जाती हैं, खासकर उम्र के उस कगार पर जब उनको लगता है कि रूप और यौवन जो मूर्खतापूर्वक स्त्री-जीवन की केन्द्रीय उपलब्धियाँ मानी गईं, अब उनके हाथों से फिसल गये, अब ध्यान और मान पाने का एक ही उपाय है, पितरसत्ता के हथकंडे अपनाना, बात-बात में कोड़े फटकारना-कभी जुबाने का कोड़ा, कभी सचमुच का!
गुलाम मानसिकता के रोगी हम, कभी-कभी हण्टरवालों के हण्टर चूम लेते हैं! बतौर रवीन्द्रनाथ टैगोर, खट्टा अचार और सख्त पति स्त्रियाँ पसन्द करती हैं! जहाँ । उपाय है, वहाँ भी वे आजमाए नहीं जाते! कभी बच्चों की दुहाई, कभी बूढ़ी माँ की! नई गृहस्थी, एकल गृहस्थी बसाने लायक संसाधनों की भी भयानक कमी! ज्यादातर स्त्रियाँ बेगार करती हैं, नौकरी नहीं करतीं और जहाँ वे नौकरी करती भी हैं, उनके चेकबुक-पासबुक पतियों के पॉकेट में ही रहते हैं। चूं-चपड़ की, लगाम ढीली करने की कोशिश की तो फिर से वही हण्टर! कोई तो बात होगी कि दुनियाभर की औरतें पुरुषों के मुकाबले तीन गुणा अधिक काम करती हैं, तिगुने हैं उनके काम के घण्टे और आमदनी नगण्य! दुनिया-भर की सम्पत्ति कम मात्र 2.2% हिस्सा स्त्रियों के नाम है! यानी प्रायः सारी स्त्रियाँ सर्वहारा हैं। जो बड़े सेठों, स्मगलरों, उद्योगपतियों, कालेधन के स्वामियों से ब्याही गई, उनके नाम से ज़मीनें और जायदादें खरीद तो ली जाती हैं (क्योंकि एक नाम पर कितनी जायदाद होगी भला) पर उनके सारे कागज उनकी पहुँच के परे होते हैं और उन्हें यदि पता चल भी गया कि उनके पति अपराधी हैं, सिर्फ घर में ही हण्टर नहीं फटकारते, बाहर भी गोरखधंधे करते हैं, तो बार-बार कोर्ट का दरवाज़ा खटकाने के बावजूद उनको तलाक नहीं मिलता! कैसे मिले? उनके नाम इतनी सम्पत्ति नत्थी जो है! कहने को तो यह सम्पत्ति उनकी है, 2.2वें हिस्सा में उनकी भी गिनती हो गई होगी, पर वास्तव में यह क्या उनकी है? ये तो बस लदनी का घोड़ा हैं! और घोड़े के नसीब में चाबुक ही आता है।
मार-पीट, गाली-गलौज, भ्रूण-हत्या, कटाक्ष, इनसेस्ट (कौटुम्बिक व्यभिचार), बलात्कार और तरह-तरह के यौनदोहन, सती, पर्दा, डायन-दहन, दहेज-दहन, पोर्नोग्राफी, ट्रैफिकिंग, वेश्यावृत्ति, यान्त्रिक सम्भोग, प्रेमहीन विवाह-बन्धन, अनचाहा गर्भ, साफ-सुथरे और सुरक्षित प्रसव केन्द्र का अभाव-दुनिया के जितने अपराध हैं-प्रायः सबका प्राइम साइट, सबकी आधार-पीठिका स्त्री-शरीर ही तो है, शरीर जो कि इतना नरम और कोमल है, फिर भी इतना कर्मठ, लचीला और फुर्तीला, शरीर जिसने आपको धारण किया है, आपको पाला-पोसा है, कहानियाँ-लोरियाँ सुनाई हैं, दिन-रात आपकी खिदमत में जुटा है, आखिर आपसे चाहता क्या है? वैसा व्यवहार जो बकौल पोरस, एक राजा दूसरे से चाहता है। प्रजातन्त्र का गौरव इसमें ही है कि यहाँ सब शहंशाह हैं, कोई छोटा-बड़ा, ऊँचा-नीचा नहीं, सबकी ही मानवीय गरिमा की रक्षा होनी है!
जो ऐसा नहीं मानता, तालिबानी है! जो भी वर्ग-वर्ण-नस्ल और लिंगगत वैविध्य को शोषण का आधार बनाकर भेदभाव की राजनीति खेलता है, तालिबानी ही है। सबसे मजेदार बात यह कि ‘तालिबान' का मतलब है ‘विद्यार्थी’ ! 'तुम कौन धों पाटी पढ़े हो लला?' जाने किस स्कूल के विद्यार्थी हैं ऐसे! इतने उग्र और हृदयहीन! जाने किसने उन्हें ऐसी पट्टी पढ़ाई है। पिछले दिनों ससुर से ‘नाजायज़' सम्बन्ध के आरोप पर एक मासूम, कोमल-सी लड़की की जिस तरह की नृशंस पिटाई के दृश्य इण्टरनेट पर लोगों ने देखे, और जिस तरह की क्रूर यौन-तृप्ति का नज़ारा तालिबानियों के कुटिल चेहरे पर देखा, सैडिज्म की इन्तेहा था, सैडिज्म जिसकी परिभाषा डॉन्मांस ने उन झंकृतियों के रूप में की है जो दूसरों (विशेषकर विवश स्त्रियों) की नृशंस पिटाई के दौरान पुरुष की वहशी नसों में धीरे-धीरे जगती हैं-उनकी पशु-वृत्तियाँ खून में ऊपर-से-नीचे तक हहाकर-हहाकर उठती-गिरती हैं, उन्हें एक मीठी-सी गुदगुदी लगाती हुई, और उनका अहंकार पुष्ट होता है : ये लो, अब चख लो मजा, मेरा कहा टालने का....! अपने पाँचवें डायलॉग में साद खुद लिखते हैं :
"His sophistery as moralist, sociologist and legislator
reaches new heights ... seduced by a false religion,
beheld as a criminal, I reduce ourlabour to very little.
Let us create a few laws; but let them be good ..."
(सीवर ऐण्ड वेनहाउस, द माक्यू द साद, पृ. 113 )
एक पंक्ति में साद का दर्शन यह है कि सबसे पहले एक नैतिक शून्य तैयार करो, फिर उसे नई चेतना से भरो-चेतना जिसे प्रभुतासम्पन्न लोग अपनी सुविधा, अपनी शर्तों पर तैयार नियमावलियों से ‘मैनुफैक्चर’ करते हैं : धर्म और आध्यात्मिक मूल्यों को भी किसी तरह से पीट-पाटकर पूरा अनुकूलित करने का यत्न निरन्तर चलता है जिस तरह स्त्रियों को! इस तरह स्त्रियाँ और आध्यात्मिक मूल्य, जो दरअसल मानव-मूल्य हैं, सखियों की तरह उभरते हैं, पर फासिस्ट उन्माद की एक अवस्था ऐसी भी आती है जब ये मूल्य भी स्त्रियों के खिलाफ़ हो जाते हैं, उनके शोषण का हथियार बन जाते हैं। अब जैसे, सहिष्णुता, धीरज, ममता, क्षमा,
उदारता, सेवा उत्कृष्ट मानव-मूल्य या आध्यात्मिक मूल्य तो हैं ही (हिन्दी में प्रायः सब मूल्य स्त्रीलिंग ही हैं), किंतु इन सारे-के-सारे मूल्यों का निवेशन सिर्फ स्त्री में हो ...क्योंकि स्त्री संस्कृति की प्रहरी है, संस्कृति जो कि संप्रभुओं की क्रीतदासी है...यह तर्क कहीं से भी न्यायोचित नहीं दीखता! दुनिया की सारी उच्चाशयता का ठीका स्त्रियाँ ले भी लें अगर तो वे प्रेम करने लायक (अपनी नैतिक कद-काठी का) पुरुष कहाँ से पाएँगी? अपने से कमतर पुरुष से स्नेह तो किया जा सकता है, उस पर ममता तो लुटाई जा सकती है, किंतु प्रेम सुलगाने लायक जो प्यारी-सी चुनौती सामनेवाली के व्यक्तित्व में चाहिए-उसके बिना प्रेम तो असम्भव है।
तालिबान की वह प्यारी-सी मासूम बच्ची हो चाहे तहमीना दुर्रानी के ‘कुफ्र’ की नायिका, नासिरा शर्मा के-संगसार’ की या फिर उन अनेक फिल्मों की जो ‘स्वात क्षेत्र की कबीलाई मनोवृत्ति का भास्वर प्रतिरोध कर रही हैं ... उन्हें बृहत्तर दुनिया की उन सब स्त्रियों का उद्धुर तेज गोद में लेता है, दुलराता है; असीसता है जो अपनेछोटे-छोटेमोर्चेपरछोटे-छोटेतालिबानियोंकेसामनेसत्याग्रहठानेबैठीहैं।दुनियाकाइकलौतापूर्णतःअहिंसकआन्दोलनहैस्त्रीवाद : एकमनोवैज्ञानिकलड़ाईजिसनेमकामभीहासिलकिएहैंतोबहनापेकेज़ोरसे, औरयुद्ध, दंगे, निःशस्त्रीकरण, रंगभेदकीनीति, पर्यावरणऔरविश्वायन-सबबृहत्तरप्रश्नोंपरअपनेउनभाइयों, बेटोंऔरदोस्तोंकेसाथलगातारजूझरहीहैंजोउनकीतरहहीसर्वहाराऔरआदि-विस्थापित, हाशिएकेलोगहैं।
येहीहाशिएकेलोगएकदिनस्त्री-काया, स्त्री-मनऔरस्त्री-दृष्टिकीतालिबानीसमझदूरकरनेमेंहमारीमददकरेंगेक्योंकिप्रतिकारकाऔरसत्याग्रहकानैतिकतेजकहींबचाहैतोइनमेंही! भावकाअभावसेनाताबहुतगहराहोताहै।
शरीरचूँकिस्त्रीकाशरीरदुखताहुआघावहोताहै, उसकेशोषणकीआधारभूमि, वहइसेलेकरहमेशासशंकरहतीहै! सर्वेक्षणबतातेहैंकिदसलाखमेंसेएकसम्बन्धहीऐसाहोताहै, जहाँकिसीमजबूरीमेंशरीरचारेकीतरहबिछानेकीयाप्रयोजनसिद्धिमूलककोईसम्बन्धबनानेकीया‘आबैलमुझेमार’ कहनेकीपहलकोईस्त्रीकरतीहै! देहकाइस्तेमालरिश्वतकेरूपमेंवहकरेजिसमेंप्रतिभाकमहोयाजोमेहनतसेडरे, चूँकिस्त्रियाँमेहनतसेनहींडरतीं, दसहाथोंसेदसदिशाओंमेंफैलेदसकामलगातारहीसाधतीचलतीहैं-वहभीसेवा-भावसे, इन्हेंऑकी-बाँकीराहचलकेविकासकेमामूलीअवसर'वरदान'रूपमेंकिसीसेवसूलनेकीजरूरतहीक्या?
लाखोंमेंकोईएकलड़कीदूसरेपुरुषकीबाँहोंकातृषितआमन्त्रणस्वीकारभीकरतीहैतोकाफीहील-हुज्जतऔरगहरेअन्तर्द्वद्वकेबाद, औरइसबारेमें।आश्वस्तहोकरकिवहकिसीऔरकीराहकाकाँटातोनहींबनरही।अक्सरऐसेसम्बन्धबनतेतभीहैंजबमानसिकतौरपरदोनोंअकेलेहों! SWCAकेएकअद्यतनसर्वेक्षणकेअनुसारस्त्रियाँ’ विवाहेतरसम्बन्धोंकीओर (जानेअनजाने) तभीबढ़तीहैंजबदाम्पत्यकाअनुभवकड़वाहोताहै! घरेलूहिंसाकीशिकारऐसीस्त्रियाँजिनकाजीवनउनकेनीरसया/औरक्रूरपतिनेपहलेसेहीहरामकररखाहै, कभी-कभीहमदर्दीपाकरपिघलजातीहैं।शुरू-शुरूमेंयहरिश्ताउदात्तदोस्तीकाहीहोताहै, बादमेंपुरुषकीपहलपरइसमें (कभी-कभी) दैहिकअन्तरंगताकीलालिमाआजातीहै।सबसेतकलीफदेहऔरविडम्बनामूलकतथ्यतोयहकिहमदर्दभी‘पुरुष'या‘पति’ या‘यौन-साथी’ बनतेहीवेहीक्रूरताएँलगताहैदिखानेजोउसेपितरसत्तानेघुट्टीमेंपिलारखीहैंऔरस्त्रियाँ‘ताड़सेगिरेखजूरपेअटके'वालीस्थितिमेंपहुँचजातीहैं .... घरकेभीतरतोजोताण्डवहोनाहै, होताहीहै, बाहरकातालिबानीविश्वभीसंगसारकरताहैतोसिर्फउसकोही।
‘चिड़ियाजालमेंक्योंहँसी
क्योंकिवहभूखीथी?'एकउत्तरयहभीहोसकताहै, लेकिनइससेज्यादापैनाउत्तरहैयहकि :
‘चिड़ियाजालमेंफंसी...
क्योंकिवहचिड़ियाथी’
अबबातबनेगीतभीजब‘हितोपदेश'केचित्रग्रीवऔरउसकेशावक-दलकीतरहजाल-समेतउड़जाएँगीचिड़ियाँ : एकस्वशासितस्पेसकीओरजहाँउन्हेंसाथीकेरूपमेंतीक्ष्णदाँतवालेलघुपतनकमिलेंगे (यानीकिहाशिएकेअन्यवंचितजन)-जीर्ण-शीर्णजालकाटदेनेकोतैयार!
मैंबार-बारयहकहनाचाहूंगीकिहमारेहिंसाविह्वल, आतंकातुरसमयकीसबसेबड़ीत्रासदीयहहैकिस्त्रियाँतो‘ध्रुवस्वामिनी'वालीकद-काठीपरगईंकिन्तुपुरुषअभीरामगुप्तकीमनोदशामेंहीहैं, चन्द्रगुप्तनहींहुए! नईस्त्रीबेतरहअकेलीहैक्योंकिउसकोअपनेपाएकाधीरोदात्त, धीरललित, धीरप्रशान्तनायकआस-पासकहींदीखताहीनहीं! गालीबकते, ओछीबातेंकरते, हल्लामचाते. मार-पीट, खून-खराबाकरतेआतंकवादीयाटुच्चेपुरुषसेप्रेमकरपानायाउसेअपनेसाथसोनेकेलायकसमझनाकिसीकेलिएभीअसम्भवहै! स्त्रियोंकाजितनाबौद्धिकऔरनैतिकविकासपिछलेतीनदशकोंमेंहुआहै, पुरुषोंकानहींहुआ, इसलिएज्यादातरस्त्रियोंकीदशाविद्यापतिकीउसनायिकावालीहैजोतकलीफ़कीइन्तेहापरहँसदेतीहै : ‘पियामोरबालकहमतरुनी/पियालेलीगोदकचललीबजार'! बराबरकायहसाथतभीहोसकेगाजबपुरुषअतिपुरुषनरहेंऔरस्त्रियाँअतिस्त्री ! एकध्रुवीयविश्वनमैक्रोस्तरपरअच्छाहैनमाइक्रोस्तरपर! सन्तुलनहीसुखकामूलमन्त्रहै! सरप्लसनक्रोधकाचाहिए, नकामनाका!
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