“देश की वर्तमान राजनीतिक पृष्ठभूमि में आज भाजपा की एक सुदृढ़ पहचान है। गठबन्धन की राजनीति से लेकर एक सशक्त इकाई के रूप में, उसने एक लम्बी यात्रा तय की है एवं 1998 में सत्तासीन होने से वर्तमान तक के सफ़र में एक स्वतन्त्र, पृथक् दल के रूप में अपनी पहचान बनायी है। अनुभवी पत्रकार सबा नक़वी ने 1980 में दल की स्थापना से लेकर उसके दो बार सत्तारूढ़ होने तक की यात्रा-कथा को दर्ज़ किया है।”
पढ़िए भाजपा से संबंधित एक रोचक अंश जब नरेन्द्र मोदी प्रधानमन्त्री नहीं बने थे।
भगवा का राजनीतिक पक्ष : वाजपेयी से मोदी तक
सबा नक़वी
2007के अन्त तक मोदी स्वयं को समसामयिक राजनीतिक परिवेश में एक सशक्त नेता के तौर पर स्थापित कर चुके थे। वे पूर्णरूपेण स्वनिर्मित थे और इसलिए कई मायनों में, कदाचित् एकाकी भी। समसामयिक भारतीय राजनीतिक पटल पर ऐसे कई सशक्त नेता उभरे हैं जिन्होंने एकाकी जीवन चुना-जे. जयललिता, मायावती, ममता बनर्जी और नवीन पटनायक। मोदी इनसे बहुत अलहदा रहे। इन सबने ऐसी पार्टियों का नेतृत्व किया जो उनके चतुर्दिक बनी थी। भाजपा अपने ऐतिहासिक स्वरूप में ही ऐसा दल रही है जहाँ व्यक्ति उपासना की परम्परा का विरोध रहा है। अन्ततोगत्वा मोदी ने एक नेता की मर्ज़ी के आगे पार्टी को झुकाने को मजबूर किया।
2007के चुनाव के बाद नरेन्द्र मोदी की शख़्सियत पर एक आलेख लिखने हेतु मैं अहमदाबाद रह गयी। मैंने बहुत सारे लोगों से बातचीत की, उनके पुराने परिचित, दल में उनके सहयोगी जो उनके क़रीबी माने जाते थे। उनकी जो छवि उभरी, वह एक एकान्तप्रिय इन्सान की थी- निकटतम रिश्तेदारों को भी बिल्कुल प्रश्रय नहीं देते थे, अकेले भोजन किया करते थे। एकमात्र सार्वजनिक स्थानों पर, विशाल और जीवन्त जनसमूह के बीच एक राजनीतिक नेता के तौर पर उन्हें भावुक होते देखा गया है, वरना भावुकता का प्रदर्शन उनकी फ़ितरत नहीं है।
अब तक, उन्होंने न केवल अपने पहनावे की, अपितु अपने हाव-भाव की भी एक बड़ी सोची-समझी शैली विकसित कर ली थी, जो उनके व्यक्तित्व के साथ उपयुक्त लगे। उन्हें कार्य करने की लत है और चुनाव हों या नहीं, वह सुबह 6बजे से रात 11तक अपने कार्य में व्यस्त रहते हैं। जेटली पत्रकारों को बताया करते थे कि, ‘जहाँ तक कार्य की बात है, मोदी पर उसका मानो भूत सवार है, वे रात 11बजे तक अपने दफ़्तर में होते हैं।’
गुजरात के मुख्यमन्त्री अपनी शख़्सियत में कुछ और इजाफे़ भी करने लगे थे। उन्होंने कविता संग्रह की एक किताब प्रकाशित की, जिसका शीर्षक था ‘आँख आ धन्य छे’ (धन्य हैं यह आँखें)। इसमें एक कविता ‘गौरव’ में वे लिखते हैं:
मुझे गर्व है कि हूँ मैं मानव, और एक हिन्दू,
हर क्षण करता हूँ बोध, हूँ विशाल, बृहद्, हूँ मैं सिन्धु।
अगर इस छन्द को इस मनुष्य का प्रतिबिम्ब मान लें, तो नरेन्द्र मोदी के अन्तर में सिर्फ़ नरेन्द्र मोदी ही समाये थे। उनके द्वारा ओढ़ा हुआ अधिकार का कवच अभेद्य था; कोई भी व्यक्ति गुजरात के मुख्यमन्त्री को जानने का दावा नहीं कर सकता था, वे विरोधाभास की प्रतिमूर्ति थे-भारतीय राजनीति के एकाकी चलने वाले नेता, अतीव कर्मठ, अपनी राह स्वयं बनाते हुए, जिनके अनुगामियों की संख्या इतनी थी, जो दुनिया की बड़ी से बड़ी हस्तियों में भी रश्क पैदा कर दे।
मुझे बताया गया कि उनका निवास उनके व्यक्तित्व की व्याख्या बख़ूबी करता था। उनके निवास में जो सीमित लोग जा पाये, उनका कहना था कि व्यक्तिगत जीवन में वे बड़ी किफ़ायत बरतते थे। उनके निजी मातहतों में तीन लोग शामिल थे जिनमें एक रसोइया, और दो चपरासी थे जो उनके आधिकारिक निवास में ही रहते थे। रसोइया के अवकाश लेने पर उनका एक चपरासी ही उनका भोजन बना दिया करता था। ऐसा सादा जीवन उस मनुष्य का था जो कॉर्पोरेट भारत का प्रतीक बन चुका था। उस वक़्त के उनके सरकारी सहायक-ओ.पी., तन्मय और दिनेश-जो उन्हें प्राप्त फ़ोन कॉल की जाँच किया करते थे (जैसे मेरे सरीखे संवाददाता जो उनके साथ बातचीत हेतु आवेदन किया करते थे) को भी उनके आवास में जाने की इजाज़त नहीं थी। भाजपा के पुराने अनुभवी और उनके क़रीबी माने जाने वाले एक ने मुझसे कहा था, ‘उनसे व्यक्तिगत रिश्ता पनप नहीं पाता और इसलिए लोग आहत भी हुए हैं। इसमें उनका कोई दुराभाव नहीं छुपा है, वे बस ऐसे ही हैं, यह तथ्य अब सब समझने लगे हैं।’
मोदी ने न तब और न आज ही, दरबारियों को प्रश्रय दिया है। कितने ही ऐसे राजनेता हैं जो अपने कर्मचारियों और परिचारकों के जत्थों के साथ अपने विशाल, आकर्षक रिहाइशों में रहते हैं। जहाँ नियमित ख़ुशामदियों का ताँता लगा रहता है। मोदी अपनी दैनिक अतिव्यस्तता के बाद अपने निवास में निर्लिप्त, एकाकी अपना भोजन करना पसन्द करते हैं।
2007के चुनावी अभियान में मैंने पहली बार ‘मोदी मुखौटा’ देखा। हर रैली में मुझे कुछ बच्चे दिख ही जाते थे जो मुखौटा लगाये कूदते-फाँदते रहते थे। अब वे महज़ एक जन नेता नहीं रहे; एक पन्थ के केन्द्रीय आधार स्वरूप उनके व्यक्तित्व के नये आयाम विकसित हो रहे थे।
2012में मैं विधानसभा चुनावी अभियान कवर करने पुनः गुजरात गयी। उस वक़्त केन्द्र में मनमोहन सिंह के नेतृत्व में यूपीए सरकार भ्रष्टाचार के दलदल में बुरी तरह से फँसी दिखाई देती थी। मोदी वहीं हर क़दम पर स्वयं को सशक्त बनाते आगे बढ़ रहे थे। 2007में मोदी मुखौटे पहने बच्चों का अचरज भरा नज़ारा देखने को मिला था। बहरहाल, पाँच साल बाद महामोदी आयोजन का साज़-ओ-सामान बदल चुका था। अब अभियान में कथावस्तु स्वामी विवेकानन्द थे। मोदी को अब दार्शनिक विचारक स्वरूप दर्शाया जा रहा था। ‘विवेकानन्द युवा विकास यात्रा’ की हर रैली में उनका आगमन किसी रॉक स्टार के आगमन-सा होने लगा।
मुझे याद है मोटरसाइकिल पर सवार हमलावर सैनिकों का आभास देती टोली रथ के पीछे खड़ी थी। उनका पहनावा चटकीला नारंगी टीशर्ट था जिसके अग्रभाग में स्वामी विवेकानन्द की तस्वीर और पृष्ठभाग में सोच में डूबे मोदी की तस्वीर बनी थी। मंच के प्रवेश द्वार के निकट कई युवक विवेकानन्द के जैसे गेरुआ परिधान और पगड़ी में सजे दिखाई दिये। मंच पर गायन प्रस्तुति चल रही थी और लड़कियाँ अपने सिर पर मटकी सँभाले मंच के पार्श्वभाग में तैयार खड़ी थीं। अचानक नगाड़ों की आवाज़ आरम्भ हुई और तेज़ होते हुए अपने चरम को पहुँची, भारत माता की जयकार से वातावरण गूँज उठा!
नरेन्द्र मोदी तेज़ क़दम बढ़ाते मंच पर आये, स्मृतिचिह्न स्वरूप कुछ पगड़ियाँ स्वीकार कीं और बिना वक़्त ज़ाया किये एक शानदार प्रस्तुति पेश की। उत्साह भरे चेहरे उनकी ओर उन्मुख थे। ‘दिल्ली सल्तनत’ पर अपनी सुपरिचित उक्तियाँ कहते हुए स्वयं को शान्ति का दूत सदृश प्रस्तुत किया जिसे अपनी ‘प्रजा’ से प्यार था। स्वामी विवेकानन्द का आह्वान करते हुए उन्होंने एकत्रित भीड़ से पूछा, ‘क्या किसी ने स्वामी विवेकानन्द के सपनों को साकार करने का प्रयास किया है? गुजरात के छह करोड़ बाशिन्दे ऐसा करेंगे।’ एक अच्छे वक्ता तो वे थे ही, श्रोताओं से प्रश्न पूछ उन्हें अपने साथ जोड़ने की एक अद्भुत कला उन्होंने विकसित की: ‘क्या आपको इन दिनों पानी मिल रहा है?’ हाँ, जनता ने चीखते हुए जवाब दिया, ‘क्या आपको बिजली मिल रही है?’ हाँ, ‘क्या सड़कों की हालत अच्छी है?’ हाँ, हाँ, बेशक़, ‘क्या आप ख़ुश और सन्तुष्ट हैं?’ भीड़ सम्मिलित स्वर में पुकार उठी-हाँ! ‘पर मैं नहीं हूँ। मैंने अपने लोगों के लिए इससे कहीं बेहतर और अधिक विकसित जीवन की कल्पना की है।’ प्रस्तुति के चरमोत्कर्ष का यह वाक्य किसी रॉक स्टार प्रदर्शन से कम नहीं होता था।उनकी जीत निश्चित थी। आउटलुक रिसाले के लिए लिखी आवरण कथा में मैंने मोदी की तुलना लोकप्रिय हैरी पॉटर शृंखला के महान जादूगर लॉर्ड वोल्देमोर्ट से की: इस अत्यन्त लोकप्रिय नॉवेल में वोल्देमोर्ट एक शक्तिशाली जादूगर हैं जिन्हें वह-जिनका-नाम-लेना-वर्जित-है-से सम्बोधित किया जाता है। वे हक़ीक़ी और तिलिस्मी, दोनों दुनिया पर विजय पाने के लिए निकल पड़ते हैं। उनकी शख़्सियत और महत्वाकांक्षा इस नाटकीय प्रस्तुति की धुरी हैं। हैरी पॉटर और उसके मित्रगण, शिक्षक और दूसरे सहायक अपेक्षाकृत साधारण लोग हैं जो जादूगर द्वारा कृत घटनाक्रमों का प्रतिक्रिया स्वरूप सामना करते दिखाये गये हैं।
सात किताबों की शृंखला में रचित यह ऐसा रोमांचक विवरण है जिसने एक पूरी पीढ़ी को आसक्त रखा।
हक़ीक़ी दुनिया के जादुई क्षणों के प्रतीक स्वरूप मैंने नरेन्द्र मोदी को लिया है। एक ऐसी शख़्सियत जिनके सम्मोहन के वशीकरण मन्त्र ने उन्हें तीन बार गुजरात पर विजय दिलवाई। इसके बाद बारी हिन्दुस्तान की थी।अब तक गुजरात में कांग्रेस ख़ासी ख़ौफ़ज़दा हो चुकी थी; यह हिदायत दी गयी थी कि बहुत ज़रूरी होने पर ही उनका नाम लिया जाये, अभियान को सादा रखा जाये और सिर्फ़ ‘गणित’ पर तवज्जो दी जाये।
यही वह दौर था जब मीडिया का एक बड़ा तबक़ा मन्त्रमुग्ध हो यह सम्भावना तलाशता दिखा कि मोदी कैसे यह नहीं कि कब अब भारत के बाक़ी हिस्सों पर अपना प्रभुत्व स्थापित करेंगे। भारतीय मध्यम वर्ग भी, बहाव के दौर में, अब केन्द्र में एक सशक्त नेता की परिकल्पना से उत्साहित था; युवा वर्ग मोदी में एक जोशीला, गतिमान व्यक्तित्व देख रहा था; औरतें उनके विशाल, सशक्त व्यक्तित्व से अभिभूत नज़र आती थीं; भाजपा धड़ल्ले से यह आँकड़े पेश कर रही थी कि गुजरात और देश के बाक़ी हिस्सों के मुसलमान भी अब मोदी को अपरिहार्य नेता स्वरूप स्वीकार चुके थे।
हालाँकि उनकी यह तीव्र वृद्धि वाद-विवाद का विषय बनी-बहुतों ने इसे अतिउत्साही मोदी वफ़ादारों की कारस्तानी कहा। मेरी नज़र में, बड़े कॉर्पारेट समूहों की वित्तीय सहायता के बल पर मोदी हिन्दुत्व संयोजन के प्रतीक स्वरूप उभरे, जिससे उनके आगे का मार्ग भी प्रशस्त हुआ। प्रधानमन्त्री पद की सम्भावित उम्मीदवारी के बहुत पहले उनके वफ़ादारों ने मीडिया और इण्टरनेट जैसी संगोष्ठियों में उनके समर्थन में संग्राम का आग़ाज़ कर दिया था।
31दिसम्बर, 2012की आवरणकथा में मैंने लिखा था:
हम सबको अब यह प्रश्न उठाना होगा कि क्या ‘प्रधानमन्त्री स्वरूप मोदी’ एक ऐसे व्यक्ति की दुस्साहसिक योजना है जिन्होंने विगत वर्षों में कई ऐसी योजनाओं को बड़ी सफलतापूर्वक निष्पादित किया है?
मोदी के ऐसे प्रयास की अगर सम्भावना भी रहती है, यह अपने आप में महत्त्वपूर्ण होगा। यह एकमात्र ऐसा मुद्दा बन उभरेगा जो अन्य नेताओं की राजनीति निर्धारित करेगा। अगर स्थिति वह-जो-पी.एम.-न-बन-सका वाली बनती है, फिर भी उनके प्रयास हमें यह सोचने पर मजबूर करेंगे कि क्या यह शख़्स देश का इतिहास बदलकर रहेगा?
मोदी जिस प्रकार स्वयं को किसी भी कार्य में झोंक देते थे, वह स्पष्ट दृष्टिगोचर और सराहनीय था। मानवाधिकार वकील, सामाजिक कार्यकर्ता और दंगों के पीड़ित, कोई भी उन्हें किसी तरह की कानूनी परेशानी में नहीं डाल पाया था, हालाँकि केन्द्र सरकार का रुख़ मोदी के लिए प्रतिरोधी और शत्रुतापूर्ण था। इसके अलावा, जिस प्रकार के आक्षेप और निन्दा का सामना उन्हें पश्चिमी देशों से करना पड़ा था, किसी भारतीय नेता के साथ यह पहली बार हुआ था। (कितने देशों ने उन्हें वीसा देने से मनाही की थी) इन सबके बावजूद गुजरात के ‘सम्पदा जनक’ की प्रतिष्ठा उन्होंने अर्जित की। भारत का एक वर्ग अब उन्हें प्रधानमन्त्री स्वरूप देखने को विकल था।
(पुस्तक अंश - 'भगवा का राजनीतिक पक्ष : वाजपेयी से मोदी तक'से)