प्रस्तुत है जयंती रंगनाथन के नये उपन्यास एफ़.ओ. ज़िन्दगीका रोचक अंश
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जयंती रंगनाथन हिन्दी की उन गिनी-चुनी लेखिकाओं में से हैं जिन्होंने फॉर्म, फॉरमेट, कॉन्टेंट और प्लेसमेंट में ख़ूब प्रयोग किया है। किसी ढाँचे में ढलकर नहीं, बल्कि नये ढाँचे बनाये हैं। 'धर्मयुग'में धर्मवीर भारती के साथ काम किया और तब से आज तक हिन्दी पत्रकारिता की शिखर महिला के रूप में हमारे बीच हैं।
'एफ़.ओ. ज़िन्दगी'जयंती का नया उपन्यास है, जो मिलेनियल्स को केन्द्र में रखता है। यहाँ खींचातानी उतनी ही है जितनी जीवन और लाइफ़ के बीच है, माता-पिता और मॉम-डैड के बीच है, जीवनसाथी और पार्टनर के बीच है या सहवास और सेक्सुअल इंडिपेंडस के बीच है। यानि बड़ी कन्फ़्यूज़न!इन सब के बीच राजनीति है, शहर है, रिश्ते हैं...आइए इस रोलर-कोस्टर राइड पर साथ चलते हैं।
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‘अरविंद स्पीकिंग’, सुनने के बाद गौरव ने बोलना शुरू किया, ‘बैनचो, बड़ी जल्दी फ़ोन उठा लिया। बहुत बेचैन हो रहा है स्साले।’
उधर से पता नहीं अरविन्द ने क्या कहा, गौरव हँसने लगा ‘भोसड़ी के, हम अपना नाम बतायेंगे तो तेरी निकल जायेगी। हम कौन हूँ? ट्रू कॉलर में देख ले, समझ जायेगा। तेरे सारे क़िस्से जानता हूँ। स्साले नज़फगढ़िए। अहमद मामू का नाम सुना है ना? बस, समझ ले, वही बोल रहे हैं। अब काम की बात सुन भोसड़ी के। कुमारी श्रुति हमारी बहन है। सुसाइड करने जा रही थी तुम्हारे नाम नोट छोड़ कर। वो तो शुक्र मनाइए कि हम टाइम पे पहुँच गए।’
‘साँप काहे सूँघ गया कलेक्टर साब? एक बार मिलकर क्लेरिफाई तो कर लेते? ऐसे कैसे छोड़ दिया आपने? आप आदमी हैं कि क्या हैं? एक बार जिप खोलकर झाँकिये तो। अबकि तुमने कोई चिरकुटाई की तो कहे देते हैं छोड़ेंगे नहीं। अच्छा, रख रहे हैं फ़ोन। हमारे बारे में कुछ जानना हो तो अहमद मामू से पूछ लेना। वैसे हमारा चेहरा इतना बुरा भी नहीं दामाद जी। जिस साल तुम पाजामे का नाड़ा लगाना सीख रहे थे, उस साल डीयू के इलेक्सन में गेंदे की माला पहने जीप पर जो जीत कर निकला था ना, बस उसकी शक्ल याद कर लेना।’
‘अच्छा, फ़ोन रखिए। नमस्ते।’
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