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अख़्तरीनामा - यतीन्द्र मिश्र

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कवि, गद्यकार और संगीत अध्येता


यतीन्द्र मिश्र

 के जन्मदिवस पर विशेष : 'अख़्तरी'से एक अंश 



अख़्तरीनामा
ज़िन्दगी और संगीत सफ़र के अँधेरे उजाले- यतीन्द्र मिश्र

बेगम अख़्तर का ज़िन्दगीनामा कुछ इस कदर स्याह और सफ़ेदहर्फ़ों में लिपटा हुआ संगीत के दीवानों के सामने बार-बार आता रहा हैकि उसमें यह देख पाना बहुत साफ़ नहीं कि ज़िन्दगी के तमाम हिज्ज़ों में यह अदाकारा गायिका कहाँ कितना आसमान साफ़ स्लेट की तरह हमारे कौतूहल हाथों में पकड़ा सकी है। तमाम अन्य गानेवाली बाइयोंतवायफ़ों की ज़मीन से जुड़ी कहानियों-क़िस्सों के चर्चे इस कारण भी बहुत रोचक और जानने लायक हमको लगते रहे हैं कि इन औरतों की दास्ताँ में यह छूट हमेशा से निभती आयी है कि उनकी सीधी-सादी जीवन की सपाटबयानी में कितना हिस्सा ऐसा हैजिस पर इतिहास की रोशनी पड़ती हैऔर कितना कुछ हिस्सा वैसा हैजो गल्प के अँधेरे में डूबा रहता है। इसी अँधेरे और उजाले के बीच फँसे हुए कुछ लोगों की कहानियों में चलते हुए हमें बेगम अख़्तर की दास्ताँ भी मिल जाती है।

अख़्तरीबाई फ़ैज़ाबादी के बारे मेंउनके मिज़ाज़ के बारे में और उनकी बेहतरीन गायकी के बारे मेंकुछ भी लिखने या ज़िक्र करने से ज़्यादा पेंचीदा बात यह है कि हम यह जान पायेंकिस तरह एक बड़ी तवायफ़ की साहबजादी अपने फ़न और अदा से एक दौर विशेष में भारतीय उप-शास्त्राीय गायन के शिखर पर बैठी थीं। बेगम अख़्तर का सीधा-सा मतलब है, अपने फ़न में पूरे रुमान के साथ ग़ज़लठुमरी और दादरा की दर्द भरी उठान। इस पूरे विमर्श मेंजहाँ हम अख़्तरी बाई फ़ैज़ाबादीको बेगम अख़्तर बनते हुए देखेंगेवहीं यह भी पायेंगे कि किस तरह से मौसीक़ी (संगीत) ने ख़ुद को तवारीख़ (इतिहास) से अलग करके कुछ नया ढूँढ़़ने की कोशिश की है। इस नयेपन की शिनाख़्त के रास्ते में हमें सबसे दुर्लभ और तर्कपूर्ण मत इतिहासकार सलीम किदवई के इस बयान से मिलता है

जब वे कहते हैं- तवायफ़ोबाइयों व राजदरबारों एवं नवाबों के यहाँ आसरा पाने वाली गायिकाओं के बारे में कुछ भी ढूँढ़़ने से पहले हमें इस बात का ख़ासा ध्यान रखना चाहिए कि इनमें से अधिकांश औरतों को अपने इतिहास को दोबारा से गढ़ना पड़ा है। इन औरतों को अपनी ज़ातीज़िन्दगी में इतने झूठ बोलने पड़े हैं कि आसानी से इनकी बातों से यह निकालना बेहद मुश्किल है कि इनकी ज़िन्दगी में जो कुछ हुआ और घटा हैवह कितना सही और कितना ग़लत है

किदवई इन अर्थों में इस पूरी परम्परा पर ऐसी पैनी नज़र डालते हैं कि आपको अपने व्यक्तिगत पसन्द की किसी भी बाई या गायिका को जानने समझने के लिए कम से कम एक मज़बूत सिरा पकड़ में आ जाता है। हाँयहाँ यह बताना उतना ही प्रासंगिक है कि जब वे इस तरह का सार्वजनिक बयान इन गानेवालियों के बारे में जारी करते हैंतो अपवाद स्वरूप जिस गायिका को बचाते या बख़्शते हैं- वह मलका पुखराज हैं। उनके अनुसार मलका पुखराज ने अपनी आनुवांशिकी पर कभी कोई झीना-सा भी परदा नहीं डालाबग़ैर इस बात का फ़िक्र किये कि ऐसी साफ़गोई उनके सार्वजनिक जीवन को बदरंग बना सकती है।

सलीम किदवई के बयान को ध्यान में रखकर यदि हम अख़्तरीबाईफ़ैज़ाबादी के जीवन की गलियों में से होकर गुज़रेंतो हमेंफ़ैज़ाबाद से गयाकलकत्तालखनऊ होते हुए रामपुर तक जाना होगा। यह बात अपने आप में ख़ासी दिलचस्प है कि बड़ी तवायफ़ों ने कभी अपनी ज़िन्दगी के उन असहज पन्नों को समाज के आगे नहीं खोलाजिनसे उनकी बेटियों की ज़िन्दगी के उजाले में कुछ बदनुमा छीटें पड़ सकते हों। हालाँकि यह भी एक ऐतिहासिक तथ्य है कि सन् 1910 से लेकर 1930 के बीच की ढेरों नामचीन बाइयों ने किस तरह आने वाले समय को भाँप लिया था और इस बात को लेकर ख़ासी पसोपेश में थीं कि भविष्य इस तरह के संगीत के आदर का समय नहीं रहने वाला है। और यह भीकि आगे चलकर देश आज़ाद हो जायेगा और स्त्रिायों को ज़्यादा बेहतर ढंग से अपने दामन फैलाने भर का आसमान हासिल होगा। यदि हम इतिहास पर गौर से रोशनी डालेंतो पायेंगे कि उस समय चार प्रमुख गायिकाएँ ऐसी थींजो राजदरबारों में तो मुबारक़बादियों के लिए आती-जाती थींमगर उनकी सोच इतनी प्रगतिशील थी कि उन्हें पता था कि बदलते हुए समय में उन्हें अपनी लड़कियों के लिए क्या करना है। इनमें नरगिस की माँ जद्दनबाईशोभा गुर्टू की माँ मेनका बाईनसीम बानो की माँ शमशाद बेगम और अख़्तरीबाई फ़ैज़ाबादी की माँ मुश्तरीबाई प्रमुख हैं। जद्दनबाई ने बदलते हुए समय को पढ़कर नरगिस को अपनी परम्परा से बहुत मेहनत के साथ अलग किया और उन्हें न केवल अंगरेज़ी तबीयत की शिक्षा दिलाईबल्कि सआदत हसन मण्टोपृथ्वीराज कपूर और महबूब ख़ान जैसे नये सोच के लोगों के साथ विकसित होने में मदद की। जद्दनबाई को इस बात का पूरा इल्म था कि नरगिस भविष्य में एक बेहतर अभिनेत्री बनेंगीइस कारण उन्होंने अपने समय की हर वे चीज़ें नरगिस को सिखायींजो चालीस व पचास के दशक में एक सफल अभिनेत्री बनने के लिए ज़रूरी मानी जाती थीं। यह अपने में अत्यधिक मायने रखने वाली बात है कि नरगिस को उन्होंने हमेशा संगीतसाज़ और घुँघरू से दूर रखा। उन्हें डर था कि संगीत सीखकर कहीं उनकी बेटी गाने का पेशा न अपना ले। इसी तरह मेनका बाई ने पारम्परिक ‘कोर्ट सिंगिंग’ (राजाश्रय में पलने वाला संगीत) से शोभा गुर्टू का आत्मीय परिचय नहीं करवायाबल्कि उन्हें सीधे ले जाकर उन दिग्गज संगीतकारों की सभाओं में खड़ा कर दियाजिनका अनुसरण करते हुए धीरे-धीरे वे शास्त्राीय गायकी का एक मुकम्मल प्रतिनिधि चेहरा बनकर उभरीं। शमशाद बेगम ने नसीम बानो को और फिर नसीम बानो ने अपनी बेटी सायरा बानो कोइस तरह ट्रेंड किया कि वे दोनों अपने समय की सफल अभिनेत्रियाँ बन पायीं। अब रह गयी बात अख़्तरीबाई फ़ैज़ाबादीकी। यहाँ इस तथ्य का स्पष्टीकरण ज़रूरी है कि अख़्तरीबाई के जीवन में सर्वाधिक प्रासंगिक मुक़ाम उनकी माँ मुश्तरीबाई का ही हैजिनके कारण संगीत के इतिहास को ग़ज़लठुमरी और दादरे के दर्द भरे एहसास से भरा हुआ एक जहीन पन्ना बेगम अख़्तर पर हासिल हुआ है।

ये बेगम अख़्तर थींजिनकी परवरिश को बड़े करीने से मुश्तरीबाई ने तराशा था। ये बेगम ही थींजिन्हें मुश्तरीबाई तब सिनेमा में ले आयींजिस समय गौहरजान कर्नाटकी की फ़िल्में लोगों के सिर चढ़कर बोलती थीं और उनके मुक़ाबले अदनी-सी अख़्तरी को खड़ा कर दिया। मुश्तरीबाईजिनको पूरा घर ‘बड़ा साहब’ कहता था- घर की बालकनी पर बैठकर हर आने-जाने वाले पर नज़र रखती थीं कि अख़्तरी से मिलने कौन आया और कौन गयामुश्तरी के ही बढ़ावा देने पर ये बेगम अख़्तर ही थींजो गया से कलकत्ते इसलिए गयीं कि पारसी थियेटर में काम कर सकें और बाद में बम्बई जाकर अपना मुक़ाम सिनेमा में बना पायें। इस पूरे प्रकरण में एक बात बहुत साफ़ है कि तमाम वे महत्त्वपूर्ण औरतेंजिन्हें भारतीय सिनेमा और शास्त्राीय संगीत के आरम्भिक प्रतिनिधि चेहरों के रूप में पहचान मिली- उनकी कामयाबी का अधिकांश सेहरा उनकी माँओं के हिस्से जाता हैजो अपने समय में बेटियों के प्रति विद्रोही बनकर आगे बढ़ सकींमगर स्वयं की ज़िन्दगी को सुनहले उजाले में लाकर देखने की हसरत उन कद्दावर औरतों ने कभी नहीं पाली।

यहीं से बेगम अख़्तर को समझने का प्रसंग आगे बढ़ता है। 7 अक्टूबरसन् 1914 को ज़िला  के भदरसा क़स्बे में जन्मी अख़्तरीबाई फ़ैज़ाबादी का आरम्भिक परिचय बस इतना ही था कि वे फ़ैज़ाबादी की नामी-गिरामी तवायफ़ मुश्तरीबाई और वक़ील असगर हुसैन की छोटी बेटी थीं। असगर हुसैनमुश्तरीबाई के इस कदर दीवाने थे कि उन्होंने मुश्तरी को अपनी दूसरी बीवी बनाया था।

यह और बात है कि छोटी-सी बच्ची बिब्बी (अख़्तरीबाई के बचपन का नाम) में वे सब हुनर बचपन से ही मौजूद थेजिन्हें बाद में धीरे-धीरे परिस्थितियों ने निखारकर एक अलहदा वयस्क और समझदार अख़्तरी में बदल दिया था। बचपन की उनकी ख़राब आर्थिक परिस्थिति ने सन् 1920 के आसपास उन्हें गया और कलकत्ता पहुँचा दिया था। इसका एक सुफल यह रहा कि मुश्तरीबाई ने उन्हें परम्परागत शास्त्राीय संगीत में तैयार होने के लिए पटियाला घराने के उस्ताद अता मुहम्मद ख़ाँ के सुपुर्द कर दिया। उस्ताद की शुष्क और गम्भीर गायकी से सीखकर अख़्तरी कभी पूरे मन से ख़्याल नहीं गा पाती थींबल्कि उनके समीप रहकर ग़ज़लठुमरी और दादरा में सिद्धहस्त होती रहीं। उस समय बचपन में ख़्याल ठीक से न सीख पाने की पीड़ा ने उन्हें दोबारा ख़्याल सीखने के लिए प्रेरित किया और इस बार किराना घराने के दिग्गज उस्ताद अब्दुल वाहिद ख़ाँ से ख़्याल की बारीकियों को सीखने में जी-जान से जुट गयीं।

इस बार की अख़्तरी ज़्यादा समझदार और ज़्यादा गम्भीर थीं। अब पहले का सा न बचपन था और उन्हें यह बख़ूबी मालूम था कि ख़्याल गायकी की छोटी से छोटी बारीकी को गहराई से जाने बग़ैर पब्लिक के आगे परफॉर्म करने में उनके घराने की तौहीन है। वे ख़्यालठुमरीदादरा और ग़ज़ल सीखते हुए जवान हुईं और उनके भीतर बैठे कलाकार का मन पुरबिया, अवधी, भोजपुरी, हिन्दी और उर्दू के खनकते हुए शब्दों को सुन-सुनकर भाषा और बोलियों के लिहाजश् से समृद्ध होता रहा। आप यहाँ आसानी से इस बात की पड़ताल कर सकते हैं कि बेगम अख़्तर की गायकी में पूरब का अंग और उत्तर प्रदेश की गंगा-जमुनी तहज़ीब की रंगत किस तरह अनूठे ढंग से परिमार्जित होकर हासिल होती है। उर्दू शब्दों का रवानगी के साथ इस्तेमालबेगम अख़्तर की गायकी की एक और बड़ी ताक़त हैजिससे उनके समकालीनों में उनका दबदबा अलग ढंग से कायम होता गया।

यह अख़्तरीबाई की परवरिशउनकी नज़ाकत और कम उम्र में ढेरों शहरों में अलग-अलग तरीक़ों से तालीम लेने का असर था कि बाद के दिनों मेंजब वे अपने संगीत और उम्र दोनों के ही लिहाज़ से सबसे नाज़ुक और ख़ूबसूरत दौर में थींभारत के अधिकांश नवाबों और राजा-महाराजाओं ने समय-समय पर उन्हें अपने दरबार की गायिका बनाया। हैदराबादभोपाल और रामपुर के नवाबों तथा कश्मीर और अयोध्या के राजघरानों में दरबारी गायिका के रूप में कई वर्षों तक रही बेगम अख़्तर की गिनती हमेशा बड़ी गायिकाओं में होती रही। उनकी पूर्ववर्ती एवं समकालीन गायिकाओं ख़ासकर अंजनीबाई मालपेकरकेसरबाई केरकरमोघूबाई कुर्डीकर और सिद्धेश्वरी देवी जैसी दमदार उपस्थितियों के बीच बेगम अख़्तर ने अपना मुक़ाम बनाया था। सीखने को लेकर इतनी ललक और कुछ नया पा लेने की बेपनाह चाहत ने उन्हें बहुत सारी गायिकी की नायाबियों से नवाज़ा। मसलनअपने से उम्र में बड़ी और लगभग 90 की हो चुकीं भेंडी बाज़ार घराने की अप्रतिम अंजनीबाई मालपेकर से सुना हुआ एक दादरा- मैं तो तेरे दमनवा लागी महाराज’, उनके लगभग पीछे पड़कर ही उन्होंने सीख लिया। इस तरह देखेंतो लगेगा कि वे घराने में रहकर भी पूरी तरह घराने की नहीं थीं।

उन्मुक्तस्वच्छन्द और हुनर के पीछे दीवानों की तरह लगी रहने वाली बेगम साहिबा ने वो सब कुछ कियाजो उन्हें पसन्द था। वो सब कुछ पाने की चाहत रखीजो हसरत बड़े-बड़े उस्ताद रखने से भी घबड़ाते हैं। कई दरों पर जाकर कुछ सीख आने वाली अख़्तरीबाई फ़ैज़ाबादीमें भी ये हुनर कमाल का था कि वे सबमें पूरी तरह डूबकर भी कहीं-न-कहीं किसी कोने में अपनी बेगम अख़्तर वाली टाइप बचा ले जाती थीं। इस सन्दर्भ में उस्ताद बिस्मिल्ला ख़ाँ का एक दिलचस्प संस्मरण सुनाने लायक हैख़ाँ साहब फरमाते हैं- बेगम अख़्तर के गले में एक अजीब कशिश थी। जिसको कहते हैं ‘अकार की तान’ उसमें ‘’ करने पर उनका गला कुछ फट जाता थाऔर यही उनकी ख़ूबी थी। मगर शास्त्राीय संगीत में वह दोष माना जाता है। एक बार हमने कहा कि ”बाई कुछ कहोज़रा कुछ सुनाओ।“ वे बोलीं, ”अमाँ क्या कहेंका सुनायें।“ हमने कहा कुछ भी। बेगम गाने लगीं, ”निराला बनरा दीवाना बना दे।“ एक दफेदो दफे कहने के बाद जब दीवाना बना दे में उनका गला खिंचातो हमने कहा, ”अहायही तो सितम है तेरी आवाज़ का।“ वो जो गला दुगुन-तिगुन के समय लहरा के मोटा हो जाता थावही तो कमाल का था बेगम अख़्तर में“ गले का एक विशेष परिस्थिति में जाकर शुद्ध स्वरों को थोड़ा विकृत करते हुए तीव्र हो जाना या उसका सामान्य अर्थों में तानमींड़गमक लेते वक्त फट जाना- बेगम अख़्तर की कला में अद्भुत ढंग से रस-परिवर्तन करता था। लोग दम साधे सिर्फ़ उस क्षण के इंतज़ार में घण्टों बैठे रहते थे कि न जाने क़ब वह घड़ी आन पड़े। इतिहासकार सलीम किदवई बताते हैं कि ”यह कोई नहीं जानता था कि बेगम अख़्तर की अदायगी में वह स्थिति एकदम निश्चित तौर पर क़ब श्रोता महसूस करेंगेमगर इतना अवश्य है कि ऐसा कोई जतन बेगम जानबूझकर नहीं करती थीं।“ उनके गले की आवाज़ का विशेष अन्दाज़ चूँकि नैसर्गिक और लगभग अप्रत्याशित था- शायद इसी कारण उस ज़माने से लेकर आज तक बेगम की ग़ज़लों को सुन-सुनकर जवान होती हुई पीढ़ी में उस अप्रत्याशित विद्रूप की खनक बसी हुई है। कुदरत से पायी हुई यह विकृति हीबेगम अख़्तर की गायकी का अलंकार बन गयी है। फिर चाहे वह ‘दीवाना बनाना है तो दीवाना बना दे’ सुनकर कोई महसूस करेचाहे ‘ज़रा धीरे-से बोलोकोई सुन लेगा’ और ‘हमरी अटरिया पे आओ सँवरिया’ जैसे दादरे सुनकरसभी कुछ उनके अन्दाज़े -बयाँ में बिल्कुल अनूठा थाजिसकी नकल सम्भव नहीं थी।

संगीत की व्याप्ति हमेशा से ही प्रबुद्ध समाज का अंग रही है। भारतीय शास्त्राीय गायन को मान्यता और श्रेष्ठता हासिल होने के बावजूद ‘पक्का गाना’ कहकर थोड़ा बच निकलने की परम्परा है। जो लोग अपने मनोविनोद के लिए संगीत सुनते आये हैंउनके लिए शास्त्राीय गायन हमेशा ही कौतूहल की चीज़ रहा है। मगर बेगम अख़्तर के बारे में उन लोगों की मान्यता भी आश्चर्यजनक रूप से सम्मानजनक व प्रशंसापरक ही रही हैजो ऐसा सोचते आये हैं। यह भी हो सकता है कि बेगम अख़्तर का जीवन जिस तरह तमाम आड़ी-तिरछी रेखाओं और ढेरों उदास-चटख रंगों से बना और सँवरा हैउसमें एक श्रोता को आवाजाही के लिए थोड़ा अतिरिक्त स्पेस मिल जाता है। एक बाई की बेटी होनातिस पर सिनेमा में एक्टिंग करनाउसके बाद धीरे-धीरे उपशास्त्राीय संगीत समाज में केन्द्रीयता हासिल करना और रही-सही कसर अपने विलासितापूर्ण जीवन और खान-पान से उजागर कर देना- यह सब कुछ मिल-मिलाकर बेगम अख़्तर को एक आश्चर्य की वस्तु में बदल देते हैं। सिगरेट और शराब पीते हुए अपने हम उम्र लोगों में बेलौस ढंग से उठने-बैठने वाली बेगम अख़्तर की गायिकी भी दरअसल इसी कारण बड़े आश्चर्य और थोड़े संशय दोनों ही के साथआज तक सुनीदेखी और बरती जा रही है। इसमें श्रोता और प्रशंसकों को हमेशा इस बात की छूट भी मिलती रही कि वे यह तय कर पायें कि उनकी अपनी चहेती गायिका का अफ़साना कितना अपना है और कहाँ तक बेगाना है।

इस अपनेपन और बेगानेपन के बीच के द्वन्द्व में फँसी बेगम अख़्तर की गायकी हमेशा से नये सुनने वालों के बीच जिज्ञासा का बायस बनती रही है। यह उन तमाम सारे कद्रदानों का मत है कि जब बेगम अख़्तर कोई ग़ज़ल गाती थींतो पूरी महफ़िल पर एकाएक जादुई-सा असर होने लगता था। सन् 60-70 के दौरानजो बेगम का शिखर काल भी हैमें ऐसी नामी-गिरामी ग़ज़ल गायिका को सुनना ख़ासा विस्मयकारी होता था। उन श्रोताओं द्वारा यह तय कर पाना मुश्किल था कि गाते वक्त अख़्तरीबाई की आवाज़ कितनी ज़मीन से जुड़ी हुई है और कितनी मिथक की चीज़। ग़मआँसूदर्दइश्क़पीड़ाविरह,श्रृंगार जैसे पलों को कितनी बुलन्दी मुहैया करायी जा सकती है- इस बात के लिए उनके ग़ज़लों की नये सिरे से पड़ताल की जानी चाहिए। गायकी में आम जीवन का दर्द किस कदर शास्त्राीय गरिमा अख़्तियार करता है- बेगम अख़्तर इसकी मिसाल आप थीं। यहाँ यह स्पष्ट कहने में कोई संकोच नहीं कि जिस दौर में उनके समकालीन गायक-गायिकाओं ने अपने अद्भुत फ़न द्वारा ‘पक्का-गाना’ की दुन्दुभी बजाई हुई थीउस समय अपने भावों की नज़ाकत मेंगम्भीर साहित्यिक उर्दू शब्दों की बन्दिशों से बँधी एक ओर मीरग़ालिबमोमिनदाग की ग़ज़लों को गाती हुईतो दूसरी ओर बिल्कुल समकालीन और नये शायरों कैफ़ी आज़मीशकील बदायूँनीजिगर मुरादाबादीसुदर्शन फाक़िर की नज़्मों के साथअपनी समकालीन गायिकाओं से बहुत आगे निकल जाती थीं।





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