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5 सवाल - युवा लेखक प्रवीण कुमार झा से
नॉर्वे में रहने वाले डॉ. प्रवीण कुमार झा की ‘कुली लाइन्स’वाणी प्रकाशन से आने वाली है।ब्रिटिश राज में ‘न्यू स्लेवरी’ के तहत अघोषित गुलाम बना कर ले जाये गये हिन्दुस्तानी जो मॉरीशस, फ़िजी, सूरीनाम आदि कई देशों में मज़दूर की तरह गये और उनमें से अधिकांश कभी देश वापस नहीं लौट पाये,'गिरमिटिया'या 'बिदेसिया'कहलाये। ‘द ग्रेट इंडियन डायस्पोरा’का यह इतिहास या तो मिट गया है या बहुत बिखरा हुआ है। प्रवीण झा ने उसी अनकहे, अनजाने इतिहास को अपनी इस पुस्तक में शब्दबद्ध किया है जो रोचक, तथ्यपरक एवं मार्मिक है। प्रस्तुत है, वाणी प्रकाशन की प्रधान सम्पादक रश्मि भारद्वाज से उनकी बातचीत :
(र. भ.) : ‘कुली लाइन्स’ शीघ्र ही पाठकों के हाथों में होगी। यह किताब गिरमिटियों और बिदेसियों के इतिहास पर आधारित है। इस अछूते विषय पर लिखने का विचार कैसे आया?
(प्र. झ) :लिखने का विचार तो बाद में आया, पढ़ना-जानना ही ध्येय था। उसके बाद मैं उलझता चला गया। यह इतिहास अछूता नहीं है, लिखा बहुत गया है। लेकिन इसमें बिखराव बहुत है। हर गिरमिट देश की अलग-अलग दास्ताँ लिखी गयी और वह भी उनके दृष्टिकोण से। जबकि इन सब देशों की साझा संस्कृति है और इसलिए भारतीय दृष्टिकोण से उनको देखने पर सब एकरूप नज़र आते हैं। और यह सब उन तमाम बिदेसियों में मिल जाते हैं,जिनका एक अंश मैं स्वयं हूँ। बैरिस्टर मोहनदास करमचन्द गाँधी का स्वयं को गिरमिटिया कहना भी उसी भारतीय दृष्टिकोण का एक स्वरूप था। बल्कि भारत के अन्दर भी जो एक स्थान से दूसरे स्थान काम-काज के लिए प्रवासित समाज हैं, वह भी इसी पृष्ठभूमि से मेल खाते हैं। जैसे-जैसे स्वयं को एक बिदेसिया या गिरमिटिया रूप में देखने लगा, यह लिखना सहज होता गया। हाँ! मेरी स्थिति ‘प्रीविलेज़्ड’ है, और वे हाशिए पर थे। जैसे-जैसे मैं गिरमिट वंशजों से मिलता गया, मुझे लगा कि इनकी कहानी न सिर्फ़ लिखनी चाहिए, बल्कि यह तो घर-घर में सुनाई जानी चाहिए।
मुझसे एक गिरमिट वंशज ने कहा, “जानते हो गिरमिट का असल अर्थ क्या है? गिरना और मिटना! हमारा इतिहास हमारी धरती ने भी भुला दिया और परदेशी धरती ने भी। हम तो कहीं के नहीं रहे।” यह बात जैसे शूल की तरह हृदय में बैठ गयी और मैंने ठान लिया कि इनकी कहानी तो मुझे लिखनी ही है। तो यह साधारण पाठक रुचि कब एक भावनात्मक मोड़ ले बैठी, मुझे पता ही नहीं लगा। यह जहाजी भँवर है, मँझधार है, जिसमें उतरने का अर्थ है- डूब जाना। शायद वही मेरे साथ हुआ। मैं डूबता चला गया।
(र. भ.) : यह बहुत ही शोधपरक पुस्तकहै। आपने इसके शोध के लिए क्या तैयारियाँ कीं एवं शोध के दौरान क्या दिक्क़तें आयीं?
( प्र. झ.) : शोध मेरे लिए नया नहीं है। मैं भारत और अमरीका में वैज्ञानिक शोध से जुड़ा रहा हूँ, तो ‘रिसर्च मेथोडोलॉजी’ का ज्ञान है। ऐतिहासिक शोध का भले कोई अनुभव नहीं था, लेकिन बुनियादी बातें एक ही है। अन्तर यह है कि ऐतिहासिक शोध में आप कुछ निर्माण नहीं करते, रचते नहीं; तथ्यों को ढूँढते हैं। मुझे दो मार्ग नज़र आए- एक तो सतह से बृहत इतिहास (मैक्रोहिस्ट्री) को देखना और फिर उसकी गहराई में उतरना, और दूसरा कि कई सूक्ष्म इतिहास (माइक्रोहिस्ट्री) जोड़ कर बृहत इतिहास बनाना। पहला तरीका सुलभ है कि मैं बस यह पता कर लेता कि किस वर्ष गिरमिटिए जाने शुरू हुए, कहाँ-कहाँ गये, और कब यह समाप्त हुआ।
लेकिन दूसरा तरीका क्लिष्ट है, जो कार्लो गिंजबर्ग जैसे इतिहासकार अपनाते हैं। मैंने जाने-अनजाने इस ‘माइक्रोहिस्ट्री’ का कठिन मार्ग पकड़ लिया, जब मैं एक-एक गिरमिट देश और उसमें ख़ास व्यक्तियों और घटनाओं की तफ़्तीश में फँस गया। यह रास्ता अगर न पकड़ता, तो यह लिखना सुलभ होता। अब मुझे पुराने सरकारी आर्काइवों में से जहाज़ों के नाम, व्यक्तियों के नाम, केस-फ़ाइल और उन पर आधारित संदर्भ इकट्ठे करने पड़े। इस मामले में कम से कम ब्रिटिश और डच आर्काइवों का शुक्रगुज़ार हूँ कि उन्होंने डेढ़ सौ वर्ष बाद भी सब सम्भाल कर रखे हैं, और ‘ओपेन-ऐक्सेस’ रखे हैं। अन्यथा मैं एक-एक द्वीप पर भटक कर रह जाता, और कुछ हाथ न आता।
एक समस्या यह ज़रूर आयी कि गिरमिट वंशजों को अपने इतिहास का ज्ञान कम या न के बराबर है। उनके पूर्वजों ने यह जान-बूझ कर उनसे छुपा लिया क्योंकि यह कोई गौरवपूर्ण इतिहास तो था नहीं। कुछ वंशजों ने तो यह भी रूखेपन से कह दिया कि हमें फिर से ‘कुली’ सिद्ध कर क्या मिलेगा? लेकिन कुछ पक्के इतिहासकार हैं, जिन्होंने गहन शोध किया है। उनमें भी हर तरह के लोग हैं। कोई खुल कर बात करता है, कोई भाव नहीं देता। और सबसे बड़ी मुश्किल तो यह कि कुछ ने लिखा भी डच और फ्रेंच भाषा में। यह संवाद स्थापित आख़िर हुआ, और अनुवाद भी हुए, लेकिन यह सब ‘केक-वॉक’ तो नहीं था।
( र. भ.) : वाणी प्रकाशन से ‘कुली लाइन्स’ के साथ ही चार अन्य कथेतर पुस्तकें आ रहीं हैं, वह भी एकदम नये विषयों पर। ऐसा लगता है जैसे कथा के बरअक्स कथेतर ने अपनी ज़बरदस्त पहचान और पकड़ पाठकों में बना ली है। आप इस बारे में क्या सोचते हैं?
( प्र. झ.) : मैं इस पर अपनी राय जताता रहा हूँ कि पाठक वर्ग को कथेतर और कथा में 60:40का अनुपात रखना चाहिए। कथेतर यथार्थ का ‘ऐज़ इट इज़’ चित्रण है, और वांग्मय भी। अगर किसी को गल्प भी बुनना हो, तो यथार्थ का ज्ञान आवश्यक है। गिरमिट विषय पर ही वी.एस. नायपॉल से अमिताव घोष तक ने गल्प लिखे हैं। लेकिन इसके लिए इनका इस विषय पर गहन अध्ययन, शोध और/या अनुभव है। अगर कोई क्राइम-थ्रिलर भी लिखना चाहे तो उसे कई असल केस-फ़ाइल्स और कथेतर किताबें पढ़नी ही होंगी। यथार्थ के बिना गल्प तो खोखला रह जाएगा। भारतीय अंग्रेज़ी साहित्य में ऐतिहासिक गल्प ख़ूब चल पड़े हैं, जिसके लिए अमीश त्रिपाठी, आनंद नीलकंठन, और देवदत्त पटनायक निश्चित ही कथेतर अध्ययन करते हैं। यही बात फ़िल्म-लेखन में भी है, जो अब इतिहास या किसी सत्य-घटना या व्यक्तित्व पर आधारित बन रही हैं।
कथाएँ तो ‘एवरग्रीन’ रहेंगी ही, लेकिन उनकी नींव कथेतर पुस्तक या अनुभव हो तो अधिक स्थायी और नयापन लिए होंगी। ‘कुली लाइन्स’ को लिखते हुए ही मुझे लगा कि इससे तो सैकड़ों गल्प जन्म ले सकते हैं और सबका कथ्य भिन्न होगा। कथेतर की लोकप्रियता बढ़ेगी, अगर इसका लेखन नीरस न होकर क़िस्सागो अंदाज़ में हो, रोचक हो। यह अकादमिक लेखन से इतर यूँ लिखा जाए कि यथार्थ भी लोग रस लेकर पढ़ें और उससे जुड़ा महसूस करें।
वाणी प्रकाशन की इन पुस्तकों को देख कर तो मैं यह ज़रूर कहूँगा कि हिन्दी कथेतर अब यात्रा-संस्मरण से कहीं आगे निकल गया है।
(र. भ.) : चिकित्सा जैसे अथक समय, समर्पण और एकाग्रता की माँग रखने वाले पेशे में रहते हुए भी आप लेखन, वह भी इतनी शोधपरक रचनाओं के लिए समय कैसे निकाल पाते हैं? (आप ख़ुद को एक लेखक के तौर पर अधिक आइडेंटिफ़ाय कर पाते हैं या एक चिकित्सक के तौर पर)
( प्र. झ.) : यह प्रश्न वाज़िब है और कठिन भी। साहित्य में चिकित्सक तो कई हुए। चेख़व को अगर इतिहास भी मान लें, तो हिन्दी साहित्य में ही अजय सोडानी जी, ज्ञान चतुर्वेदी जी, और युवाओं में स्कंद शुक्ल नियमित लिखते रहे हैं। मुझे लगता है कि चिकित्सा-शास्त्र का प्रशिक्षण-काल भी लंबा है और कार्य-स्थल भी कुछ हद तक तनाव-पूर्ण है कि लोग एक समानान्तर ‘स्ट्रेस-बस्टर’ ढूँढ लेते हैं। किसी की संगीत में रुचि हो गयी, कोई लिखने-पढ़ने लग गया। दूसरी बात कि जीवन काफ़ी समय का पाबंद होता जाता है कि आदमी एक चलता-फिरता कैलेंडर बन जाता है। ‘टाइम मैनेज़मेंट’ सीख जाता है कि दस मिनट भी मिल गये, तो ख़ाली न बैठो। तो यह वाक़ई हुआ है कि मैंने एयरपोर्ट पर बैठे, पार्किंग लॉट में इंतज़ार करते, या ब्रह्म-बेला में जाग कर राग ललित सुनते हुए लिखा या पढ़ा है। यूरोप आकर समय कुछ अधिक मिला कि जहाँ मैं भारत में हफ़्ते में अस्सी घंटे काम करता था, अब चालीस घंटे करता हूँ। और यह देश नॉर्वे भी अजीब है कि गर्मियों में अर्धरात्रि तक सूर्य चमकता है, तो नींद छोटी हो जाती है। व्यक्तिगत तौर पर मैं औसतन तेज़ लिखता-पढ़ता भी हूँ। हिन्दी की गति पिछले कुछ वर्षों में सोशल मीडिया लेखन से भी बढ़ी है।
चिकित्सक और लेखक दोनों ही कपड़े अदल-बदल कर पहनता हूँ। मैं जब लिखता हूँ तो अपने नाम से ‘डॉ.’ उपाधि हटा देता हूँ, और चिकित्साशास्त्र संबंधी हिन्दी लेखन नहीं करता। मेरी चिकित्सकीय भाषा फिलहाल नॉर्वेज़ियन है जो मैं धाराप्रवाह लिखता-बोलता हूँ। तो दोनों स्वतंत्र आइडेंटिटी है।
( र.भ.) : ‘कुली लाइन्स’ के शोध और लेखन के दौरान कोई ऐसा क़िस्सा जो आप पाठकों से बाँटना चाहेंगे।
( प्र. भ.) : यह कुछ भुतहा संयोग है। यह किताब जब मैं लिख रहा था तो अचानक मुझे एक सन्देश मिला। दिल्ली के एक व्यक्ति धीरेंद्र पाल जी ने मुझे सम्पर्क किया कि आपको एक कहानी सुनानी है। यह उनके गाँव के एक गिरमिट वंशज की कथा थी, जो अपने पिता को ढूँढ रहे हैं। उनके पिता उन्हें सूरीनाम में अनाथालय में छोड़ कर भारत आ गये और फिर कभी न लौटे। मैंने पूछा कि यह सब आप मुझे क्यों सुना रहे हैं? उन्होंने कहा कि मैं आपको सोशल मीडिया पर पढ़ता रहा हूँ और मुझे लगता है कि आप उन्हें ढूँढ लेंगे। यह अजीब कयास था क्योंकि मैंने सोशल मीडिया पर कभी गिरमिट के सम्बन्ध में नहीं लिखा। मेरे किताब की बात लीक होना तो दूर, उन्हें तो शायद अब तक नहीं मालूम कि मैंने किताब लिख भी दी है। ख़ैर, मैं उन गिरमिट वंशज से जाकर मिला, और उन्होंने भावरंजित होकर मेरा हाथ पकड़ लिया जैसे कि मेरे पास वह गुप्त-सूत्र हो। उन्हें यक़ीन था कि मैं उनके पितामह को ढूँढ सकता हूँ। जब उनके काग़ज़ वगैरा मैंने ढूँढे तो मैं चौंक गया! उनके पिता हिंदुस्तान के आख़िरी जीवित गिरमिटिया थे। पिता अनाथालय में उन्हें लेने जरूर लौटते, अगर उसके बाद कोई जहाज़ जाता। गिरमिट-प्रथा बंद हुई, और यह पिता-पुत्र सदा के लिए अलग हो गये। मुझे गिरमिटियों की तीसरी-चौथी पीढ़ी तो बहुत मिली, लेकिन यह पहले और अंतिम व्यक्ति मिले जिनके पिता गिरमिट जहाज पर थे। कई वर्षों से इतिहासकार हिंदुस्तान का अंतिम गिरमिटिया ढूँढ रहे थे, और मुझे किसी दैवीय संयोग से यूँ ही मिल गए। हमने साथ बैठ विश्व-कप फुटबॉल भी देखा। उन्होंने मुझे एयरपोर्ट पर छोड़ते वक़्त कहा, “मेरे पिता चार वर्ष के थे जब वह जहाज़ पर सूरीनाम गए। और जब तिरानबे वर्ष की उम्र में हिंदुस्तान में अपने गाँव लौटे तो बच्चों की तरह ज़मीन में लोटने लगे। कहने लगे कि यही मेरी मिट्टी है। इसी में मिल जाना चाहता हूँ।”
रामसहाय नामक इन अंतिम गिरमिटिया के पुत्र अब एम्सटरडम में हैं, और उनके घर के ठीक बाहर गली में महात्मा गाँधी की मूर्ति लगी है। महात्मा गाँधी स्वयं को ‘पहला गिरमिटिया’ कहते थे। इस पहले से अंतिम की कड़ी में मेरा होना ‘एक्सीडेंटल’ था।
जल्द ही युवा लेखक प्रवीण कुमार झा द्वारा लिखित नयी पुस्तक 'कुली लाइन्स'आप सभी पाठकों के बीच प्रस्तुत होगी।