फ़ासीवाद का डर
नरेन्द्र मोदीके सत्ता में आते ही देश में फ़ासीवाद आ जायेगा। नरेन्द्र मोदी हिटलर की तरह हैं। नरेन्द्र मोदी के आने से देश में साम्प्रदायिक ताक़तें मज़बूत होंगी। नरेन्द्र मोदी उस विचारधारा के पोषक हैं जो देश को बाँटती है। यह चुनाव मुद्दों की लड़ाई नहीं है विचारधारा की लड़ाई है। लोकसभा चुनाव के दौरान इस तरह के आरोप नरेन्द्र मोदी और भारतीय जनता पार्टी पर लगातार लग रहे हैं। नरेन्द्र मोदी और भारतीय जनता पार्टी के पक्ष में हवा के रुख़ को भाँपते हुए आलोचकों और विरोधियों के हमले और तीखे हो रहे हैं। सबसे संगीन इल्ज़ाम जो लग रहा है वह है कि मोदी के आते ही देश में फ़ासीवाद आ जायेगा और तानाशाही प्रवृत्ति का बोलबाला हो जायेगा। मोदी के विरोधी उत्साह में भले ही मोदी की तुलना हिटलर से कर दें लेकिन वो तथ्यात्मक और सैद्धान्तिक दोनों रूप में ग़लत हैं। आज के भारत की तुलना हिटलर के उत्थान के समय के जर्मनी से नहीं की जा सकती है। उस वक़्त जर्मन साम्राज्य के पतन के सिर्फ़ पन्द्रह साल हुए थे और जर्मनी एक नवजात राष्ट्र के तौर पर खड़ा होने की कोशिश कर रहा था। उस वक़्त जर्मनी के लोग देश की ख़राब आर्थिक हालात की वजह से बुरी तरह से परेशान थे और वहाँ की लड़खड़ाती सरकार उसे सँभालने में नाकाम हो रही थी। आज जब पूरे विश्व की अर्थव्यवस्था पर संकट है ऐसे में भी भारत लगभग पाँच फ़ीसदी के ग्रोथ रेट के साथ मज़बूती से अपनी अर्थव्यवस्था को सँभाले हुए है। जनता की वर्तमान सरकार से नाराज़गी है लेकिन यह साफ़ है कि कोई भी अगर उसके नागरिक अधिकारों के हनन की कोशिश करेगा तो उसे वह बर्दाश्त नहीं करेगी। इसके अलावा एक राष्ट्र के तौर पर भारत की जो संरचना है वो भी जर्मनी से अलहदा है। अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग दलों की चुनी हुई सरकारें हैं। कुछ मसले ऐसे हैं जिनमें केन्द्र का दख़ल नहीं हो सकता है। भारत में लोकतन्त्र की जड़ें इतनी गहरी हो चुकी हैं कि अगर हिटलर भी आ जाये तो उसे उखाड़ कर नहीं फेंक सकता है। इस देश ने इन्दिरा गाँधी को भी देखा था जिन्होंने उन्नीस सौ पचहत्तर में भारतीय लोकतन्त्र के इतिहास में इमरजेंसी का काला अध्याय जोड़ा। तमाम ताक़त और ज़ोर लगा देने के बावजूद जनविरोध के आगे इन्दिरा को झुकना पड़ा और दो साल में ही इमरजेंसी ख़त्म करनी पड़ी थी। उन्नीस सौ पचहत्तर और अब की स्थितियाँ और भी बदल चुकी हैं। अब मीडिया पहले से ज़्यादा ताक़तवर है और जनता अपने अधिकारों को लेकर पहले से ज़्यादा जागरूक। दरअसल हमारे देश में फ़ासीवाद एक ऐसा जुमला है जिसका डर सदियों से दिखाकर राजनीति की रोटियाँ सेंकी जा रही हैं। फ़ासीवाद का जुमला सबसे ज़्यादा इस देश में कार्ल मार्क्स के अनुयायी उछालते रहे हैं। यहाँ यह याद दिलाने की ज़रूरत है कि कार्ल मार्क्स हमेशा से चुनाव करने की स्वतन्त्रता और चुनी हुई संस्थाओं का विरोध करते थे। उनका मानना था कि जब तक आर्थिक समानता नहीं हो तो चुनाव बेमानी हैं।
अब अगर दूसरे आरोप हिन्दू साम्प्रदायिकता की बात करें जिसके प्रचण्ड होने की आशंका जतायी जा रही है तो इस शब्द की अवधारणा ही ग़लत है। हिन्दू धर्म का आधार ही सर्वधर्म समभाव और सहिष्णुता है। अस्सी के दशक के अन्त में और नब्बे के दशक की शुरुआत में इसी तरह से हिन्दू राष्ट्रवाद की बात फैलायी गयी थी। उस वक़्त यह प्रचारित किया गया था कि हिन्दू राष्ट्रवाद का मतलब है देश की एकता और अखण्डता को कायम रखना और हिन्दू राष्ट्र का निर्माण करना। अब ज़रा इस पर गहराई से विचार करिए। हिन्दू राष्ट्रवाद के ये दोनों उद्देश्य एक-दूसरे के ख़िलाफ़ हैं। हिन्दू राष्ट्र की कल्पना करते हुए देश की एकता और अखण्डता कायम नहीं रखी जा सकती है। अगर हिन्दू राष्ट्र थोपने की बात होती तो देश में हिंसा का ऐसा दौर चलता कि देश की एकता और अखण्डता ख़तरे में पड़ जाती। दरअसल हिन्दू राष्ट्रवाद के सिद्धान्त का प्रतिपादन और प्रचार करके समाज में भ्रम फैलाने की गहरी साज़िश की गयी थी जिसमें तर्कों के लिए कोई जगह नहीं बची थी। दोनों तरफ़ से उन्माद फैलाने का काम किया गया था। पहले हिन्दू राष्ट्रवादियों का भय पैदा किया गया था और बाद में उसके ख़िलाफ़ धर्मनिरपेक्षता की दुहाई देकर राजनीतिक फ़ायदा उठाया गया था। धर्मनिरपेक्ष साम्प्रदायिकता के ख़िलाफ़ प्रचार का एक ऐसा वितान खड़ा किया गया था जिससे जनता भयाक्रान्त होकर किसी पार्टी विशेष के पक्ष में मतदान कर सके। हुआ भी यही था। हिन्दू राष्ट्रवाद और धर्मनिरपेक्ष साम्प्रदायिकता के ख़िलाफ़ बोलने वालों को हिन्दू साम्प्रदायिक क़रार दे दिया जा रहा था। अब एक बार फिर से उसी तरह का भय का माहौल पैदा कर सियासी फ़सल काटने की तैयारी की जा रही है। यहाँ एक और उदाहरण प्रासंगिक होगा। इन दिनों धर्मनिरपेक्षता की वकालत करने वालों को लालकृष्ण आडवाणी बहुत अच्छे लगने लगे हैं। तथाकथित धर्मनिरपेक्ष विचारकों को लगता है कि लालकृष्ण आडवाणी अपेक्षाकृत कम कट्टर हैं। हमें अपने इन विचारकों की बदलती राय पर तरस आता है। यह वही जमात है जो बाबरी विध्वंस के बाद आडवाणी को देश का सामाजिक ताना-बाना ध्वस्त करने का ज़िम्मेदार मान रही थी। ये वही लोग हैं जो उस वक़्त आडवाणी को कट्टर और अटल बिहारी वाजपेयी को उदार छवि का मानते थे। उनके तर्कों के आधार तब भी ग़लत थे और अब भी ग़लत हैं।
दरअसल हमारे देश में नेहरू के बाद सही मायने में धर्मनिरपेक्षता को ज़ोरदार तरीक़े से बढ़ावा देने वाला कोई नेता हुआ ही नहीं। नेहरू का मानना था कि राष्ट्रवाद की भावना को धर्म नहीं बल्कि संस्कृति मज़बूत कर सकती है। उनकी किताब डिस्कवरी ऑफ़ इण्डिया में अशोक, अकबर, कबीर और गुरु नानक को नायक के तौर पर याद किया गया है। गाँधी को भी। क्योंकि गाँधी ने भी धर्म को राष्ट्र से अलग किया था। उन्होंने कहा था कि अगर हिन्दू सोचते हैं कि यह सिर्फ़ उनका देश है तो वो सपनों की दुनिया में हैं। भारत को जिन हिन्दू,मुस्लिम, सिख, ईसाई ने अपना देश चुना है वो सभी भाई हैं। नेहरू के बाद इन्दिरा गाँधी की धर्मनिरपेक्षता अलग किस्म की थी और उसके बाद राजीव गाँधी की धर्मनिरपेक्षता को तो सारे देश ने देखा था जब उन्होंने अयोध्या में शिला पूजन किया था। राजीव गाँधी के बाद देश की बागडोर सँभालने वाले नरसिम्हाराव पढ़े-लिखे समझदार प्रधानमन्त्री माने जाते हैं लेकिन बाद के दिनों में जिस तरह से धर्म को लेकर उनकी पसन्द और नापसन्द का खुलासा हुआ उससे तो यही लगता है कि उनकी आत्मा एक धर्मविशेष की तरफ़ झुकी हुई थी। सामाजिक न्याय के मसीहाओं की धर्मनिरपेक्षता को देश ने नब्बे के दशक में देखा। किस तरह से धर्मनिरपेक्षता के नामपर समाज को बाँटने का ख़तरनाक खेल खेला गया। बाद के दिनों में समुदाय के नाम पर राजनीति का रंग और गाढ़ा हुआ और अब हालात यह है कि देश के दो प्रमुख दलों के अध्यक्ष धर्मगुरुओं के आशीर्वाद के आकांक्षी हो रहे हैं। अन्त में सिर्फ़ इतना कहा जा सकता है कि इस महान देश में कोई भी तानाशाह पैदा नहीं हो सकता। तानाशाही को देश की जनता क्षण भर भी बर्दाश्त नहीं करेगी और एक क्या हज़ार मोदी भी इस देश में फ़ासीवाद नहीं थोप सकते हैं। आग्रह सिर्फ़ इतना है कि देश में भय की राजनीति बन्द होनी चाहिए और भयाक्रान्त कर वोट लेने की कोशिशों को जनता भी नाकाम करे।
वरिष्ठ पत्रकार अनंत विजय की आने वाली पुस्तक 'मार्क्सवाद का अर्धसत्य'से एक अंश।