“इक्कीसवीं सदी में, हिन्दूवाद में एक सार्वभौमिक धर्म के बहुत-से गुण दिखाई देते हैं। एक ऐसा धर्म, जो एक निजी और व्यक्तिवादी धर्म है; जो व्यक्ति को समूह से ऊपर रखता है, उसे समूह के अंग के रूप में नहीं देखता। एक ऐसा धर्म, जो अपने अनुयायियों को जीवन का सच्चा अर्थ स्वयं खोजने की पूरी स्वतन्त्रता देता है और इसका सम्मान करता है। एक ऐसा धर्म, जो धर्म के पालन के किसी भी तौर-तरीक़े के चुनाव की ही नहीं, बल्कि निराकार ईश्वर की किसी भी छवि के चुनाव की भी पूरी छूट देता है। एक ऐसा धर्म, जो प्रत्येक व्यक्ति को स्वयं सोच-विचार करने, चिन्तन-मनन और आत्म-अध्ययन की स्वतन्त्रता देता है।’’
गो-माता से आगे
हिन्दू संस्कृति और इतिहास के उपयोग और दुरुपयोग
धार्मिक बहुलवाद में मेरी आस्था ‘सेक्युलर भारत में मेरी परवरिश की देन है। भारत में धर्मनिरपेक्षता का अर्थ अधार्मिकता नहीं है जिसकी अलोकप्रियता को कम्युनिस्ट या दक्षिण की डी.एम.के. जैसी नास्तिक पार्टियाँ भी महसूस कर चुकी हैं।सच्चाई यह है कि कोलकाता में वार्षिक दुर्गा पूजा के दौरान कम्युनिस्ट पार्टियाँ शानदार से शानदार पूजा पण्डाल बनाने में एक-दूसरे से होड़ करती हैं। भारतीय परम्परा को देखते हुए धर्मनिरपेक्षता का अर्थ सर्वधर्म समभाव अर्थात् सभी धर्मों के लिए जगह हो गया है जिनमें से किसी को भी राज्य का संरक्षण प्राप्त नहीं है। मुझे याद है कि हाई स्कूल के दिनों में जब मैं कोलकाता में रहता था तो पड़ोस की मस्जिद से उठती अज़ान की आवाज़ नज़दीक के शिव मन्दिर में गूँजती घण्टियों और मन्त्रोच्चारण और सिखों के गुरुद्वारे के लाउडस्पीकर से आती गुरुवाणी की आवाज़ में घुल-मिल जाती थी। सेण्ट पॉल कैथेड्रल भी पास ही नुक्कड़ पर स्थित था।
जैसाकि हमने देखा है भारत का धर्मनिरपेक्ष अस्तित्व इसीलिए सम्भव हो सका है क्योंकि यहाँ की जनसंख्या में हिन्दुओं का प्रचण्ड बहुमत है। स्वामी विवेकानन्द और अन्य हिन्दू महापुरुषों ने हिन्दू धर्म की जो व्याख्या की है उसके अनुसार भिन्नता की स्वीकृति हिन्दू धर्म की एक चारित्रिक विशिष्टता है। इसका अर्थ है कि अन्य धर्मों को मानने वालों के साथ सह-अस्तित्व हिन्दुओं के स्वभाव का हिस्सा है। एक विविधतापूर्ण समाज में धार्मिक बहुलवाद मात्र एक और ऐसी भिन्नता थी जिसे हर कोई स्वाभाविक रूप से स्वीकार करता था जैसेकि अलग-अलग भाषाएँ बोलने वालों अलग-अलग खान-पान पहनावे और रीति-रिवाज वालों और अलग-अलग रंगत के लोगों को।
धर्मनिरपेक्षता और समन्वयता
इस तरह भारत में धर्मनिरपेक्षता का अर्थ धर्म और राज्य में दूरी न होकर सभी धर्मों का ख़याल रखने वाला और किसी के साथ पक्षपात न करने वाला राज्य हो गया।
फ्रांस में सेक्युलेरिटी का अर्थ धर्म को सरकारी संस्थानों से बाहर रखना और सरकार को धार्मिक संस्थानों से बाहर रखना है। इसकी तुलना में भारत में धर्मनिरपेक्षता के अन्तर्गत धार्मिक स्कूलों को सरकारी मदद दी जा सकती है और विभिन्न धार्मिक समुदाय अपने पर्सनल लॉ जारी रख सकते हैं। भारतीय व्यवस्था में बहुत-से धार्मिक समुदायों को सरकारी मदद से अल्पसंख्यक स्कूल और कॉलेज खोलने और उन्हें चलाने के अवसर उपलब्ध हैं। उन्हें कई नियमों और करों में छूट की भी सुविधा है जो ग़ैर-अल्पसंख्यक स्कूलों को उपलब्ध नहीं है। (आलोचक ख़ासकर हिन्दुत्व के समर्थक अक्सर यह शिकायत करते रहे हैं कि जहाँ आम सरकारी स्कूलों और कॉलेजों को धार्मिक शिक्षा प्रदान करने की अनुमति नहीं है वहीं अल्पसंख्यक समुदाय सरकारी मदद से अपने ख़ुद के स्कूल खोल कर धार्मिक शिक्षा प्रदान कर सकते हैं।)
भारत के‘सेक्युलरवाद के अन्तर्गत मुस्लिम वक्फ़ बोर्डों बौद्ध विहारों और कुछ ईसाई धार्मिक संस्थानों को सरकार की तरफ़ से आर्थिक मदद दी जाती है। 1951के धार्मिक और परोपकारी अक्षय-निधि कानून के अन्तर्गत राज्य सरकारें हिन्दू मन्दिरों को अपने नियन्त्रण स्वामित्व और संचालन में ले सकती हैं चढ़ावे की राशि एकत्र कर सकती हैं और इसे किसी भी उचित उद्देश्य के लिए भले ही वह मन्दिर से सम्बन्धित न हो ख़र्च कर सकती हैं। इस कानून पर पुनर्विचार की ज़रूरत हो सकती है। फिर भी 2016में जब हरियाणा की भाजपा सरकार ने एक जैन मुनि को विधानसभा में आमन्त्रित करके अध्यक्ष से भी ऊँचे स्थान पर बिठाया तो बहुत-से लोगों को गहरा झटका लगा। उन्हें इसमें एक भारी भूल दिखाई दी। हमारे देश की राजनीति में धार्मिकता कोई अनजानी वस्तु नहीं है। बहुत-से भगवाधारी साधु हमारी संसद के चुने हुए सदस्य हैं और उनमें से एक योगी आदित्यनाथ तो भारत के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश के मुख्यमन्त्री हैं। फिर भी एक अनचुने धार्मिक मुनि को एक चुनी हुई प्रतिनिधि सभा में सबसे ऊपर बिठाना आधारभूत रूप से ग़लत था। संवैधानिक मर्यादा का ऐसा उल्लंघन पहले कभी नहीं हुआ था।
हो सकता है हरियाणा सरकार से यह ग़लती अनजाने में हो गयी हो फिर भी इस तथ्य से बचने का कोई रास्ता नहीं है कि भारत ‘सेक्युलर शब्द के आमतौर पर समझे जाने वाले अर्थों में एक सेक्युलर देश नहीं है। इसकी बजाय यह एक बहुलधर्मी देश है। देश की बहुसंख्यक हिन्दू आबादी राजनीतिक और सरकारी संस्थाएँ चलाती है और धार्मिक अल्पसंख्यकों के अस्तित्व सुविधाओं और प्रगति का ध्यान रखती है। धर्म से दूरी बनाकर रखने अर्थात् धर्मनिरपेक्षता जिसे सेक्युलरवाद के आलोचक हमेशा अपना निशाना बनाते रहे हैं) की बजाय यही विचार अमल में लाया जाता रहा है। दूसरे शब्दों में कहें तो राज्य सभी धर्मों को संरक्षण प्रदान करता है।
मेरी पीढ़ी एक ऐसे भारत में बड़ी हुई जहाँ राष्ट्रीय भावना का अर्थ अनेकता में एकता का नारा था। इस बहुलवाद को एक स्वाभाविक स्थिति के रूप में देखते हुए और देश के टुकड़े करने वाली साम्प्रदायिकता को नकारते हुए बड़े हुए। पाकिस्तान के औचित्य को नकारने का यह भी अर्थ था कि एक राष्ट्र का आधार धर्म नहीं हो सकता। हम कभी भी इस झाँसे में नहीं आये कि क्योंकि बँटवारे ने एक मुस्लिम देश बना दिया था इसलिए जो कुछ बचा था वह एक हिन्दू देश था। भारत के विचार को स्वीकार करने का अर्थ था बँटवारे के तर्क को सिरे से ख़ारिज करना।
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