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ख़बरें बर्फ़ की विशाल चट्टानें हैं जिनसे एक पत्रकार रोज़ ही टकराकर लहूलुहान होता है : लक्ष्मी प्रसाद पंत / विश्व प्रेस स्वतंत्रता दिवस पर विशेष

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सवाल - वरिष्ठ पत्रकार लक्ष्मी प्रसाद पंत से

वरिष्ठ पत्रकार लक्ष्मी प्रसाद पंत की आने वाली पुस्तक ‘न्यूज़ मैन @ वर्क’ न्यूज़ रूम की सच्ची घटनाओं पर आधारित हैं जहाँ न्यूज़ रूम के दिल दहला देने वाले क़िस्से हैं तो उसका वह संवेदनशील एवं कर्तव्यनिष्ठ चेहरा भी जिसकी वज़ह से उसे लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ माना गया है। प्रस्तुत है, विश्व प्रेस स्वतंत्रता दिवसपर वाणी प्रकाशन से आने वाली इस पुस्तक पर आधारित एक संवाद जो टीआरपी और सेलिंग न्यूज़ की मारामारी के बीच भी आज की पत्रकारिता की स्वतंत्र आवाज़ पर भरोसा बनाये रखने की ताक़ीद करता है।

(र.भ.) : आपकी वाणी प्रकाशन से आने वाली किताब ‘न्यूज़मैन @ वर्क का बाईलाइन है - न्यूज़ रूम की सच्ची कहानियाँ। यह किताब किस तरह की घटनाओं पर आधारित है?  किताब एवं इसके लिखने के उद्देश्य के बारे में पाठकों को कुछ बतायें।

(ल.प.) : न्यूजमैन @ वर्क पूरी तरह सच्ची कहानियों पर आधारित है। शत प्रतिशत सच्ची कहानियाँ और आपको पढ़ने के बाद पता चलेगा कि यह कहानियाँ अविश्वसनीय या काल्पनिक हो ही नहीं सकती। दरअसल, यह किताब समंदर की सतह पर दिखने वाले छोटे से आइसबर्ग के नीचे बर्फ़ की विशालकाय चट्‌टान को दिखाने की कोशिश है। यहाँ आइसबर्ग यानी अख़बार में प्रकाशित होने वाली ख़बरें हैं, जिन्हें आप रोज़ाना देखते हैं। एक कॉलम,  दो कॉलम, चौथाई पेज या कई बार हॉफ़ पेज़। सतह यानी अख़बार में यह इतनी ही दिखती हैं और सतह के नीचे यानी न्यूज़रूम में यह बर्फ़ की विशालकाय चट्‌टानों की तरह होती हैंपत्रकार रोज़ाना इन चट्‌टानों से टकराता है। लहूलुहान होता है, घायल होता है और अगले दिन फिर तैयार होकर अपना काम करने न्यूज़रूम में आ जाता है।एक नई ख़बर पर काम करने के लिए।

(र.भ.) : एक लेखक और एक पत्रकार किस तरह से एक दूसरे से भिन्न है या दोनों कहीं न  एक दूसरे के पूरक हैं, विशेषकर अगर यह प्रश्न मैं इस किताब के सन्दर्भ में करूँ?

(ल.प.) : देखिए,  मेरा मानना है कि लेखक और पत्रकार एक दूसरे के पूरक भी हैं और एक दूसरे से जुदा भी। लिटरेचर फेस्टिवल 2017में आए लेखक शशि थरूर ने अपने सत्र में एक छोटा सा क़िस्सा सुनाया था जो मुझे याद आता है। बरसों पहले कुआँ खोदते समय गहराई में साँस लेने लायक हवा है या नहींयह जानने के लिए एक पंछी को पिंजरे में डालकर गहराई में उतारा जाता था। अगर वो बेहोश होकर ऊपर आता है तो पता चल जाता था कि नीचे हवा नहीं है। लेखक और पत्रकार दोनों ही समाज के लिए उस पंछी का काम करते हैं। समाज में साँस लेने लायक जीवंतता बची है या नहीं, यह एक लेखक और पत्रकार ही दुनिया को बताते हैं। माध्यम दोनों के जुदा हैं। अंतर यह है कि लेखक की स्वतंत्रता पत्रकार से कहीं ज़्यादा है। पत्रकार कभी तथ्यों के साथ जरा सी भी छेड़छाड़ नहीं कर सकता। उसके पूरे काम की परिणीति उसकी ख़बर है। लेखक के काम में तथ्य एक हिस्सा भर हैं। उसका लेखन तथ्यों से कहीं आगे या ऊपर जा सकता है। यहां मैं प्रिंट मीडिया और टीवी चैनल्स के पत्रकारों को साफ़ तौर पर अलग-अलग देखता हूँ। टीवी के पत्रकार लीक से बहुत दूर चले गए हैं। वे अपनी ख़बरों में तथ्यों को बिल्कुल एक तरफ़ रखते हुए कल्पना, मनोरंजन, रहस्य-रोमांच आदि का तड़का लगाने लगे हैं। टीवी के पत्रकार दिन ब दिन न्यूज प्रेजेंटर बनते जा रहे हैं। ऐसे में न वे पत्रकार रहे हैं, न लेखक। और तो और अब वे न्यूज़ रीडर भी नहीं लगते। दूसरी ओर लेखक भविष्यवाणियाँ कर सकता हैसंकेत दे सकता है, किसी को भी सिरे से ख़ारिज़ कर सकता है या स्वीकार कर सकता है। पत्रकार केवल आलोचना या प्रशंसा करता है, वो भी पूरी तरह तथ्यों पर आधारित। रही बात न्यूज़मैन @ लाइव की तो इसमें एक पत्रकार ही प्राथमिकता से दिखता है जो लेखक की कुछ ख़ासियत लिए है बस।

(र.भ.) : टीआरपी और सेलिंग पॉइंट के दबाव में आज पत्रकारिता कितनी निष्पक्ष रह गयी है, क्या न्यूज़मैन वाकई सच्ची ख़बरे प्रस्तुत करने का अपना दायित्व निभा पा रहें हैं?

(ल.प.) : सबके बारे में तो नहीं कह सकता लेकिन मैं निष्पक्षता के बिना पत्रकारिता की कल्पना भी नहीं कर सकता। ख़ासकर एक राष्ट्रीय स्तर के अख़बार में एक ज़िम्मेदार पद पर रहते हुए मेरी पहली और आख़िरी कोशिश रहती है, उन लोगों के साथ खड़े होना जिन्हें सिस्टम से कुछ नहीं मिला। मेरा अधिकतर काम ज़मीन से जुड़ी ऐसी ख़बरों पर आधारित है जो किसी न किसी नतीज़े या बदलाव के रूप में सामने आया और आम आदमी को इससे राहत मिली। चाहे हर जिले में पॉक्सो अदालतें खुलवाने के लिए दुष्कर्म के खिलाफ़ चलाई गई मुहिम हो या अंधविश्वास पर किए गए स्टिंग ऑपरेशन। गरीब परिवारों को मिलने वाले गेहूँ की बिक्री का स्टिंग हो या प्रसव केंद्रों में चल रही जानलेवा लापरवाहियों के खिलाफ़ मुहिम। सेनेट्री पैड जैसे टैबू विषयों की बात हो या सरकारी कामकाज़ की पोल खोलती ख़बरें। मैंने हमेशा व्यवस्था के भयावह और तकलीफ़ देने वाले ढांचे को निशाना बनाया।

(र.भ.) : हादसों और दिल दहलाने वाली घटनाओं के बीच से हर रोज गुज़रता एक पत्रकार क्या इन चीज़ों का इतना अभ्यस्त हो जाता है कि उसके अन्दर का इंसान अपनी संवेदना खोने लगता है?

(ल.प.) : देखिए, संवेदनाएँ तो कभी खत्म नहीं होती। बस इन संवेदनाओं के गुबार से हमारे डील करने के तरीके में फ़र्क आ जाता है। यही फ़र्क एक अनुभवी पत्रकार को संवेदनाओं के गुबार में बहने से रोके रखता है और वो तटस्थ रहकर अपनी ख़बर पर काम करता रहता है। हाँ, इतना तो कह सकता हूँ कि पत्रकार के दिल की धड़कन हर ख़बर पर तेज़ नहीं होती।संवेदनाएँ अगर खो गई होतीं तो कोई पत्रकार 2साल की बच्ची से दुष्कर्म की खबर लिखते वक़्त इतना आक्रोशित नहीं होता कि वो व्यवस्था की उन कमियों को खोदने में लग जाए, जिनकी वजह से ऐसे दुष्कर्मियों को फाँसी नहीं मिल पाती। मैंने ऐसा किया है। पत्रकारों ने संवेदनाओं को साधना सीख लिया है। मतलब कोरी संवेदना से क्या होगा?  अगर बतौर पत्रकार मैं कोई बदलाव लाने में सक्षम हूँ तो अपनी संवेदना को साधकर, उसे सही रूप देकर मैं उस अंजाम तक लाऊँगा कि वो बदलाव ला सके। एक गुबार की तरह आकर गुज़र न जाए। एक तूफ़ान की तरह अपने निशान छोड़े। माफ़ी के साथ एक बात स्वीकारना चाहूँगा कि न्यूज़रूम में पत्रकार के लिए घटनाएँ, दुर्घटनाएँ और मौत आँकड़े भर हैं जिनकी संख्या से उसकी ख़बर का रूप, रंग और आकार तय होता है।

(र.भ.) : जिस तरह से साहित्य के लिए कहा जाता है कि अंततः उसका उद्देश्य मानवता के हितों के साथ खड़े होना है, आज की पत्रकारिता क्या अपना कोई उद्देश्य देखती है?

(ल.भ.) : बिल्कुल। उद्देश्य के बिना आप एक क़दम नहीं चल सकते और पत्रकारिता ने तो सदियों का सफ़र तय किया है और आगे भी करेगी। मैं मानता हूँ कि माध्यम, प्रस्तुतिकरण या मंच कोई भी हो, पत्रकारिता का पहला और मूल उद्देश्य सत्य ही है।

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