मशहूरशायर कैफ़ी आज़मी के जन्मदिवस पर विशेष...
“उस ज़माने का ज़ियादः कलाम नष्ट हो गया लेकिन वह पहली ग़ज़ल इसलिए ज़िन्दा रह गयी कि न जाने कहाँ से वह बेग़म अख़्तर तक पहुँच गयी उसमें उन्होंने अपनी आवाज़ के पंख लगा दिये और वह सारे हिन्दुस्तान और पाकिस्तान में मशहूर हो गयी। लीजिए वह ग़ज़ल आप भी सुन लीजिए। यह मेरी ज़िन्दगी की पहली ग़ज़ल है जो मैंने ग्यारह वर्ष की उम्र में कही थी”
शाइरी तो एक तरह से मुझे ख़ानदानी मिली मेरे अब्बा बाक़ाइदः शाइर तो नहीं थे लेकिन शाइरी को अच्छी तरह समझते थे घर में उर्दू, फ़ार्सी के दीवान (संग्रह) बड़ी संख्या में थे। मैंने यह किताबें उस उम्र में पढ़ीं जब उनका बहुत हिस्सा समझ में आता था। मुझसे बड़े तीनों भाई बाक़ाएदः शाइर थे यानी बयाज़ (डायरी) रखते थे और उपाधि भी। सबसे बड़े भाई सैय्यद ज़फ़र हुसैन मम की उपाधि“मजरूह”थी। उनसे छोटे भाई सैय्यद हुसैन की उपाधि“बेताब थी। उनसे छोटे भाई सैय्यद शब्बीर हुसैन की उपाधि“वफ़ा”थी।
भाई साहबान जव छुट्टियों में अलीगढ़ और लखनऊ से घर आते थे तो घर पर अक्सर शे’री महफ़िलें होती थीं जिनमें भाई साहबान के अलावा पूरे क़स्बे के शोअरा शरीक होते थे। भाई साहबान अब जब अब्बा को अपना कलाम सुनाते और अब्बा उसकी तारीफ़करते तो मुझे ईर्ष्या होती और मैं बड़ी हसरत से अपने से सवाल करता क्या मैं भी कभी शे’र कह सकूँगा। लेकिन मैं जब भाईयों के शे’र सुनने के लिए खड़ा हो जाता या चुपचाप कहीं बैठ जाता तो फ़ौरनकिसी बुजुर्ग की डांट पड़ती थी कि तुम यहाँ क्यों बैठे हो। तुम्हारी समझ में क्या आयेगा। घर में जाओ और पान बनवाकर लाओ मैं पाँवपटकता तक़रीबन रोता हुआ घर में बाजी के पास जाता कि देखिये मेरे साथ यह हुआ। मैं एक दिन इन सबसे बड़ा शाइर वनकर दिखा दूँगा। बाजी मुस्कराकर कहती क्यों नहीं तुम ज़रूर कभी बड़ा शाइर बनोगे, अभी तो यह पान ले जाओ और बाहर दे आओ। इसी उम्र में एक घटना यह है कि अब्बा बहराइच में थे क़ज़्लबाश स्टेट के मुख़्तार आम या पता नहीं क्या, वहाँ एक मुशाअरः हुआ उस वक्त ज़्यादातर मुशाअरे तरही (एक लाइन देना) हुआ करते थे। इसी तरह का एक मुशाअरः था भाई साहबान लखनऊ से आये थे। बहराईच, गोण्डा नानपारा और करीब-दूर के बहुत से शाइर बुलाए गये थे। मुशाअरे के अध्यक्ष‘मानी जयासी’साहब थे। उनके शे’र सुनने का एक ख़ासतरीका था कि एक वह शे’र सुनने के लिए अपनी जगह पर उकड़ूँबैठजाते और अपना सर दोनों घुटनों में दबा लेते और झूम-झूम कर शे'र सुनते और दाद (प्रशंसा) देते। उस वक़्तशाइर सीनियारिटी से बिठाये जाते एक छोटी सी चौकी पर क़ालीनबिछा होता और गाव तकिया लगा होता। अध्यक्ष इसी चौकी पर गाव-तकिया के सहारे बैठता जिस शाइर की बारी आती वह इसी चौकी पर आकर एक तरफ़ बहुत आदर से घुटनों के बल बैठता, मुझे मौक़ा मिला तो मैं भी इसी तरह आदर से चौकी पर घुटनों के बल बैठकर अपनी ग़ज़लजो“तरह”में थी सुनाने लगा।“तरह''थी मेहरबाँ होता, राज़दाँ होता वग़ैरह।
मैंने एक शे’र पढ़ा-
वह सबकी सुन रहे हैं सबको दाद-ए-शौक़देते हैं।
कहीं ऐसे में मेरा क़िस्स:-ए-ग़म भी बयां होता।
‘मानी'साहब को न जाने शे'र इतना क्यों पंसद आया कि उन्होंने खुश होकर पीठ ठोंकने के लिए पीठ पर एक हाथ मारा मैं चौकी से ज़मीन पर आ रहा।‘मानी’ साहब का मुँहघुटनों में छिपा हुआ इसलिए उन्होंने देखा नहीं कि क्या हुआ झूम-झूम कर दाद देते और शे'र दुबारा पढ़वाते रहे और मैं ज़मीन पर पड़ा-पड़ा शे'र दोहराता रहा। यह पहला मुशाअरः था जिसमें शाइर की हैसियत से मैं शरीक हुआ। इस मुशाअरे में मुझे जितनी दाद मिली उसकी याद से अब तक (कोफ़्त) परेशान रहता हूँ। बुजुर्गों ने इस तरह मेरा दिल बढ़ाया कि वाह मियां वाह, माशा अल्लाह आप की याद दाश्त (मेमोरी) बहुत अच्छी है किसी ने कहा ज़िन्दारहो मियां किस ए'तिमाद से ग़ज़लसुनाई है। हर आदमी यह समझ रहा और किसी न किसी तरह यह दिखा रहा था कि मुझे मेरे किसी भाई ने ग़ज़ललिखकर दे दी है जो मैंने अपने नाम से पढ़ी है। खैर इन बुजुर्गों के इन अंदेशों (शंकाओं) की मैंने ज़ियादः परवाह नहीं की। लेकिन जब अब्बा ने भी कोई इस तरह की बात की तो मेरा दिल टूट गया और मैं रोने लगा। मेरे बड़े भाई शब्बीर हुसैन“वफ़ा” अब्बा बेटों में जिनको सबसे ज़ियादः चाहते थे, उन्होंने अब्बा से कहा इन्होंने जो ग़ज़लपढ़ी है वह इन्हीं की है। शक दूर करने के लिए क्यों न इम्तिहान ले लिया जाये। उस वक़्तअब्बा ने मुंशी हज़रत शौक़वहराइचीह थे जो मज़ाहिया (व्यंग) शाइर थे। उन्होंने इस प्रस्ताव का समर्थन किया। मुझसे पूछा गया इम्तिहान देने के लिए तैयार हो। मैं खुशी से इसके लिए तैयार हो गया। शौक साहब ने मिस्रा'दिया“इतना हँसोकि आँख से आँसूनिकल पड़े” भाई साहब ने ये ज़मीन इनके लिए बंजर साबित होगी कोई अच्छा प्रस्ताव दीजिए। लेकिन मेरा उस वक़्तकी इंगो आज जिसे अक्सर तलाश करता हूँ, मैंने कहा अगर मैं ग़ज़ल कहूँगा तो इसी ज़मीन (कैनवस) में वर्ना इम्तिहान नहीं दूँगा। तय पाया कि इस “तरह"में तबा'आज़माई (कोशिश) करूँ। मैं उसी जगह लोगों से ज़रा हट कर दीवार की तरफ़मुँह करके बैठ गया और थोड़ी देर में तीन चार शे'र हो गये। आज इन शेरों को देखता हूँ तो समझ में नहीं आता कि इन में मेरा क्या है पूरी ग़ज़लमें वहीं बातें जो असातिज़ (पुराने बड़े शाइर) कह चुके थे। उस ज़माने का ज़ियादः कलाम नष्ट हो गया लेकिन वह पहली ग़ज़लइसलिए ज़िन्दा रह गयी कि न जाने कहाँ से वह बेग़म अख़्तर तक पहुँच गयी उसमें उन्होंने अपनी आवाज़ के पंखलगा दिये और वह सारे हिन्दुस्तान और पाकिस्तान में मशहूर हो गयी। लीजिए वह ग़ज़लआप भी सुन लीजिए। यह मेरी ज़िन्दगी की पहली ग़ज़ल है जो मैंने ग्यारह वर्ष की उम्र में कही थी।
ग़ज़ल
इतना तो ज़िन्दगी में किसी की ख़लल पड़े
हँसने से हो सुकून न रोने से कल पड़े
जिस तरह हँस रहा हूँ मैं पी पी के गर्म अश्क
यूँ दूसरा हँसे तो कलेजा निकल पड़े
इक तुम कि तुम को फ़िक्र-ए-नशेब-व-फ़राज़ है
इक हम कि चल पड़े तो बहरहाल चल पड़े
साक़ीसभी को है ग़म-ए-तिश्नः लबी मगर
मय है इसीकी नाम पे जिसकी उबल पड़े
मुद्दत के बाद उसने की तो लुत्फ़ की निगाह
जी ख़ुश तो हो गया मगर आँसू निकल पड़े।
अब इस ग़ज़ल को आप पसन्द करें या न करें ख़ुद मैं अब ऐसी ग़ज़ल नहीं कह सकता लेकिन इसकी यह ख़ूबी है कि इसने लोगों का शकदूर कर दिया और सब ने यह मान लिया कि मैंने जो कुछ अपने नाम से मुशाअरे में सुनाया था वह मेरा ही कहा हुआ था माँगे का उजाला नहीं था।
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