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Channel: वाणी प्रकाशन
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लानत हो सआदत हसन मंटो पर, कमबख़्त को गाली भी सलीक़े से नहीं दी जाती।

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कालजयी रचनाकार सआदत  हसन मंटो के जन्मदिवस पर विशेष...
ज़माने के जिस दौर से हम इस वक़्त गुज़र रहे हैंअगर आप उससे नावाक़िफ़ हैं तो मेरे अफ़साने पढ़िए! अगर आप उन अफ़सानों को बर्दाश्त नहीं कर सकते तो इसका मतलब यह है कि यह ज़माना नाक़ाबिले बर्दाश्त है। मुझमें जो बुराइयाँ हैंवो इस अहद की बुराईयाँ हैंमेरी तहरीर में कोई नुक़्स नहीं


तिराज़ किया जाता है कि नए लिखने वालों ने औरत और मर्द के जिसी ताल्लुक़ातही को अपना मौजू बनाया है। मैं सबकी तरसे जवाब नहीं दूँगा। अपने मुताल्लिक इतना कहूँगाकि यह मौजू मुझे पसन्द है। क्यों हैसमझ लीजिए कि मुझमेंपरवर्ज़नहै और अगर आप अक़्लमन्दहैं, चीज़ों के अवाकियो-अवाक़िबो-अवातिफ़ अच्छी तरह जाँच सकते हैं तो समझ लेंगे कि यह बीमारी मुझे क्यों लगी है। ज़मानेके जिस दौर से हम इस वक़्त गुज़र रहे हैं, अगर आप उससे नावाक़िफ़ हैं तो मेरे असाने पढ़िए! अगर आप उन अफ़सानों को बर्दाश्त नहीं कर सकते तो इसका मतलब यह है कि यह ज़माना नाक़ाबिले बर्दाश्त है। मुझमें जो बुराइयाँ हैं, वो इस अहद की बुराईयाँ हैं, मेरी तहरीर में कोई नुक़्स नहीं। जिस नुक़्सको मेरे नाम से मंसूबकिया जाता है, दरअसल मौजूदा निज़ाम का नुक़्सहै। में हंगामापसन्द नहीं। मैं लोगों के यालातो-जज़्बात में हैजान पैदा करना नहीं चाहता। में तहज़ीबो-तमद्दूनकी और सोसाइटी की चोली क्या उतारूँगा, जो है ही नंगी। मैं उसे कपड़े पहनाने की कोशिश भी नहीं करता, इसलिए कि यह मेरा काम नहीं, दर्ज़ियों का है। लोग मुझे सियाह क़लम कहते हैं लेकिन मैं तख़्त-ए-याह पर काली चाक से नहीं लिखता,फ़ेद चाक इस्तेमाल करता हूँ कि तख़्त-ए-सियाह की सियाही और भी ज़्यादानुमायाँ हो जाए। यह मेरा ख़ास अंदाज, मेरा ख़ास तर्ज़ है जिसे फ़हशनिगारी, तरक्क़ीपसन्दी और ख़ुदामालूम क्या-क्या कुछ कहा जाता है। लानत हो सआदत हसन मंटो पर, कमबख़्त को गाली भी सलीक़े से नहीं दी जाती।

जब मैंने लिखना शुरू किया था तो घरवाले सब बेज़ार थे। बाहर के लोगों कोभी हस्बे-मामूलमेरे साथ दिलचस्पी पैदा हो गई थी। चुनांचे वो कहा करते थे :‘‘भई, कोई नौकरी तलाश करो। कब तक बेकार पड़े अफ़साने लिखते रहोगे...?''आठ-दस बरस पहले अफ़सानानिगारी बेकारी का दूसरा नाम था। आज इसे अदबे जदीद कहा जाता है जिसका मतलब यह है कि लोगों के ज़ेहन ने काफ़ी तरक्क़ी कर ली है। वह वक़्तभी आ जाएगा जब इस जदीद अदब का सही मतलब वाज़ेह हो जाएगा। और हकीम हैदर बेग साहिब देहलवी को अपने शिफ़ाख़ाने से उठकर नए लिखने वालों के रोग की तश्ख़ीस नहीं करना पड़ेगी।

जब से जंग शुरू हुई है, अदबे-जदीद पर एक नए ज़ाविए से हमला किया जा रहा है। कहा जाता है कि जब सारी दुनिया जंग के शोलों में लिपटी है, हर रोज़ हज़ारों इंसानों का खून मिट्टी में मिल रहा है, फ़ना बादा-ए-हर-जामबनी है, दूसरी अज्नास'की तरह इंसानों के गोश्त-पोस्तकी दुकानें भी खुली हैं तो ये नए लिखनेवाले क्यों ख़ामोश हैं, क्या इनके क़लम सिर्फ़ जिंसियात की रौशनाई ही में डूबते हैं? दुनिया का नक़्शा बदल रहा है। हर लख़्ता, हर घड़ी एक नए तूफ़ान का पैग़ाम ला रही है मगर उनके दिलो-दिमाग़ पर ऐसा जुमूद तारी है कि दूर ही नहीं होता।

मैं फिर दूसरों की तरफ़ से जवाब नहीं दूँगा। अपने मुताल्लिअर्ज़ करना चाहता हैं कि दुनिया का नक़्शा वाक़ई बदल जाएगा। डरपोक आदमी हूँ जेल से बहुत डर लगता है। यह ज़िन्दगी जो बसर कर रहा हूँ, जेल से कम तकलीफ़देहनहीं। अगर इस जेल के अन्दर एक और जेल पैदा हो जाए और मुझे उसमें ठूँस दिया जाए तो चुटकियों में मेरा दम घुट जाएगा। ज़िन्दगी से मुझे प्यार है। हरकत कादिलदादा हैं। चलते-फिरते सीने में गोली खा सकता हूँ 

लेकिन जेल में खटमल की मौत नहीं मरना चाहता। यहाँ इस प्लेटफ़ार्म पर यह मज़मून सुनाते-सुनाते आपसबसे मार खा लूँगाऔर उफ़ नहीं करूँगा। लेकिन हिन्दू-मुस्लिम फ़साद में अगर कोई मेरा सिर फोड़ दे तो मेरे खून की हर बूँदरोती रहेगी। मैं आर्टिस्ट हूँ, ओछे ज़ख़्म और भद्दे घाव मुझे पसन्द नहीं। जंग के बारे में कुछ लिखूँऔर दिल में पिस्तौल देखनेऔर उसको छूने की हसरत दबाए किसी तंगो-तारीक कोठरी में मर जाऊँ, ऐसी मौत से तो यही बेहतर है कि लिखना-विखना छोड़कर डेरी फ़ार्म खोल लें और पानी मिला दूध बेचना शुरू कर दें। गोले और तारपीडो तो एक तरफ़ रहे, मैंने आज तक हवाई बंदूक भी नहीं चलाई। बचपन की बात है, हमारे पड़ोस में एक थानेदार रहते थे। उनके पास एक पिस्तौल था। पेटी उतारकर जब वह पलंग पर रखते तो सब बच्चों से कह दिया जाता :देखो, उस कमरे में मत जाना, वहाँ पिस्तौल पड़ा है। कभी हम डरते-डरते उस कमरे में चले जाते। दूर खड़े रहकर उस ख़तरनाक आले की तरफ़ देखते तो दिल धकधक करने लगता। ऐसा महसूस होता कि पड़े-पड़े पिस्तौल दग़ जाएगा। अब आप ही बताइए : मैं और मेरे दोस्त टैंकों के बारे में क्या लिखेंगे? मुझे चुस्त वर्दी पहनने का शौक़ नहीं है। पीतल और ताँबे के तमग़ों और कपड़े के रंगीन बिल्लों से मुझे कोई दिलचस्पी नहीं। होटलों, डांस क्लबों में शराब पीकर और टैक्सियों में चूना-कत्था लगी लड़कियों के साथ घूमकर मैं वार ऐफ़र्ट की मदद करना नहीं चाहता। इससे कहीं ज़्यादा दिलचस्प मशाग़िल मुझे मयस्सर"हैं। मिसाल के तौर पर यह मश्ला क्या बुरा है कि मैं हर रोज़ बम्बई सेण्ट्रल से गोरेगाँव और गोरेगाँव से बम्बई सेण्ट्रल तक बर्क़ी ट्रेन में सैकड़ों वर्दीपोश फ़ौजियों को देखता हूँ। जो फ़तह-ओ-नुसरतको और ज़्यादाकरीब लाने के लिए शराब के नशे में मदहोश या तो टाँगें पसारे सो रहे होते हैं या निहायत ही बदनुमा औरतों से मेरी मौजूदगी से ग़ाफ़िल, निहायत ही वाहियात क़िस्म का रोमांस लड़ाने में मसरूफ़ होते हैं।

मैं इस जंग के बारे में कुछ नहीं लिखूँगालेकिन जब मेरे हाथ में पिस्तौल होगा। और दिल में यह धड़का नहीं रहेगा कि यह खुद-ब-खुद चल पड़ेगा तो मैं उसे लहराता हुआ बाहर निकल जाऊँगा और अपने असली दुश्मन को पहचान कर या तो सारी गोलियाँ उसके सीने में खाली कर दूँगाया खुद छलनी हो जाऊँगा। इस मौत पर जब मेरा कोई नक़्क़ाद यह कहेगा कि पागल था तो मेरी रूह इन लफ़्ज़ों ही को सबसे बड़ा तमग़ा समझकर उठा लेगी और अपने सीने पर आवेज़ां कर लेगी।

(पुस्तक अंश : 'गुनहगार मंटो'से)

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